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फिल्मी दुनिया में कामयाबी का कोई बना-बनाया फार्मुला नहीं

‘मुझे अच्छा बनने का कोई शौक नहीं. सुना है ऊपर वाला अच्छे लोगों को बहुत जल्दी अपने पास बुला लेता है. हीरो मरने के बाद स्वर्ग जाता है. और विलेन जीते जी स्वर्ग पाता है.. ’ ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा’ में जब अक्षय यह संवाद बोलते हैं, तो थियेटर में तालियां गूंज […]

‘मुझे अच्छा बनने का कोई शौक नहीं. सुना है ऊपर वाला अच्छे लोगों को बहुत जल्दी अपने पास बुला लेता है. हीरो मरने के बाद स्वर्ग जाता है. और विलेन जीते जी स्वर्ग पाता है.. ’ ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा’ में जब अक्षय यह संवाद बोलते हैं, तो थियेटर में तालियां गूंज उठती हैं. दरअसल, यह कमाल केवल अक्षय नहीं, बल्कि संवाद लिखनेवाले शख्स का भी है. ‘वन्स अपॉन..’ की पहली किस्त, फिर ‘द डर्टी पिर्स’ और अब ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा’ में रजत अरोड़ा एक साथ कई भूमिकाएं निभा रहे हैं. वह फिल्म के स्क्रीनराइटर, डॉयलॉग राइटर के साथ- साथ गीतकार भी हैं. पेश है रजत अरोड़ा से अनुप्रिया अनंत और उर्मिला कोरी की बातचीत के मुख्य अंश

रजत, आपने अपनी तीन फिल्मों से ही साबित कर दिया है कि आप संवाद लेखन के महारथी हैं. आप अपने वन लाइनर्स और पंचिंग संवाद कहां से लाते हैं. या कहें, इन संवादों का स्नेत क्या है? क्या इसका कोईफार्मुलाहै?

ऐसा कुछ बना बनाया फामरूला नहीं है. हां, बस इस बात का ख्याल रखता हूं कि उस फिल्म की, उसके किरदार की डिमांड क्या है? जैसे ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ से पहले गैंगस्टर्स वाली कई फिल्में आ चुकी थीं. मुझे लगा कि हम कुछ ऐसा करें कि चीजों में दोहराव न लगे. यानी कि आइला है..जाइला है..मैंने और मिलन ने इस बारे में साथ- साथ सोचा था. मुंबई की अपनी लैंग्वेज है. हम जिस दौर पर फिल्म बना रहे थे, उस दौर की जो बात थी, जो भाषा थी, वह बहुत साफ और क्लीयर थी. हम चाहते थे कि उस पर काम करें. इसी फिल्म से वन लाइनर संवादों का दौर दोबारा शुरू हुआ. मन में डर तो था कि कहीं फिल्म दर्शकों को न पसंद आये तो हम क्या करेंगे. लेकिन किस्मत से लोगों को फिल्म के संवाद पसंद आये. शायद इसलिए क्योंकि काफी समय के बाद हिंदी फिल्मों में ऐसे संवाद सुनने को मिले थे.

शुरुआत कैसे की आपने? पहला ब्रेक मिलना कितना मुश्किल रहा?
मैं पहले सीरियल लिखता था. मैंने शुरुआत ‘आहट’ के साथ और भी दो-तीन शोज से की थी. फिर ‘सीआइडी’ के लिए लिखता था. पहले ब्रेक की जहां तक बात है तो हां, बिल्कुल आसान भी नहीं था. लेकिन श्रीधर राघवन मेरे दोस्त थे. उन्हें मेरे संवाद अच्छे लगते थे. हां, ऐसा भी नहीं है कि मुझे बहुत ज्यादा इंतजार करना पड़ा.

फिल्मों से जुड़ना कैसे हुआ? क्या शुरू से ही तय कर रखा था कि इस इंडस्ट्री का हिस्सा बनना है ?
बिल्कुल. सिनेमा का शौक तो शुरू से ही था. परिवार में सभी फिल्मों के शौकीन रहे हैं. बचपन से ही फिल्में देखता आया था और हमेशा लगता था कि इस फील्ड से जुड़ना है. इसलिए ग्रेजुएशन करने के बाद एएएफटी से जुड़ाव हुआ. वहां से एक माहौल बना. थोड़ी जानकारी मिल जाती है ऐसे कॉलेज में. थोड़ा एक्सपोजर भी मिल ही जाता है.

परिवार में फिल्मी माहौल था ?
हां, मेरे फादर बहुत शौकीन थे फिल्में देखने के. हम भी उनके साथ जाते थे. दिल्ली में मेरे घर के पास दो थियेटर थे . एक कमल सिनेमा. एक उपहार सिनेमा. अब तो दोनों ही बंद हो गये. पहले, हम वहां जाते थे फिल्में देखने. दूसरी बात है कि मेरे परिवार में फिल्म ‘शोले’ की खास अहमियत है. इसकी वजह यह है कि जिस साल ‘शोले’ रिलीज हुई थ, उसी साल मेरा जन्म हुआ था. मेरे घर वाले बच्चे को लेकर 40 दिन के बाद फिल्म देखने जानेवाले थे, तो उस वक्त उन्होंने सोचा कि चलो ‘शोले’ देख आते हैं. उस साल ‘जय संतोषी मां’ भी रिलीज हुई थी. लेकिन मां, पापा क्योंकि शोले देख कर आये, इसलिए उस फिल्म का प्रभाव रहा मुझ पर. ‘जय संतोषी मां’ देख कर आया होता, तो भक्ति जैसे संवाद लिखता. मैं जब बड़ा हुआ, तो कई बार ‘शोले’ देखी. उस फिल्म की खासियत यही है कि जितनी बार देखो, नयी सी लगती है. ऐसा बहुत कुछ है उस फिल्म में, जिससे सीखा जा सकता है.

क्या आप इस बात से सहमत हैं कि लेखकों को हिंदी सिनेमा में वह सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं.
मैं पहलेवालों की बात तो नहीं जानता. अपने बारे में कहूं, तो अगर मुझे मेरा ड्यू नहीं मिलता तो मैं क्यों पांच-पांच फिल्मों पर इतनी मेहनत कर रहा होता. मुझे एकता ने सम्मान और मेहनताना दोनों दिया है, तभी मैं उनकी पांच फिल्में लिख रहा हूं. इंडस्ट्री में सबको ये बात पता है कि अगर राइटिंग स्ट्रांग नहीं होगी, तो आगे कोई काम बढ़ाया नहीं जा सकता. फिल्म टीम वर्क है, फिर वह किसी एक डिपार्टमेंट को क्यों इग्नोर करेंगे! और संवाद तो फिल्म का अहम हिस्सा है. मुझे लगता है कि यह गलत धारणा है कि राइटर को सम्मान नहीं मिलता. राइटर सबसे पहले फिल्म से जुड़ता है. बाद में उससे बाकी लोग जुड़ते जाते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राइटर को फिल्म से अलग रख कर कुछ सोचा जाने लगता है. फिल्म के पूरे काम में राइटर का कंट्रीब्यूशन होता है. इसलिए उसे नजरअंदाज करने का तो सवाल ही नहीं उठता. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ है.

एकता कपूर बहुत अलग तरह की निर्माता मानी जाती हैं. कई लोगों को उनसे कई तरह की शिकायतें रही हैं. लेकिन आप उनके साथ लगातार काम कर रहे हैं, कैसे समन्वय बिठा पाते हैं ?

मुझे लगता है कि एकता ने सबसे ज्यादा लोगों को ब्रेक दिया है. प्रोड्यूसर, राइटर, एक्टर सभी को मौके दिये हैं. हर आदमी का काम करने का अपना तरीका होता है. वह बतौर निर्माता केवल पैसे लगा कर भूल नहीं जातीं. वह पूरी तरह इनवॉल्व होती हैं. क्रिएटिव काम में उनको मजा आता है. अब जिसको क्रिएटिविटी में मजा आता है, वह आपको सजेशन भी देगा और यह भी कहेगा कि बेकार है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे लेते हैं. वह जब तारीफ करती हैं, तो खुल कर. और बुरा लगता है, तो बुरा भी बोलती हैं. मुझे लगता है कि वह बेस्ट प्रोड्यूसर है. वह फिल्म को लेकर बच्चे की तरह ट्रीट करती हैं. जब फिल्म रिलीज होनेवाली होती है, वह सबसे ज्यादा नर्वस रहती हैं.

जब ‘वन्स अपॉन..’ पहली बार आयी थी, क्या तभी तय कर लिया था कि इसकी इसका सीक्वल लायेंगे ?
नहीं, बिल्कुल नहीं. जिस वक्त इसका पहला भाग आया था, हम नर्वस थे कि फिल्म पसंद भी आयेगी या नहीं. लेकिन जब बहुत पसंद की गयी, तो हमने सोचा कि अच्छी चीज है. इसकी कहानी को आगे बढ़ाते हैं.

‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा’ आपकी नजर में क्या है?
इसके पहले भाग में आप देखें, तो फिल्म में पॉवर स्ट्रगल दिखाया गया है. पॉवर छीनने की लड़ाई है. यहां लड़ाई प्यार की है. शोएब का किरदार सेम है. लेकिन 15 साल का गैप है. हम चाहते थे कि पुरानी कहानी न दिखायें. इसलिए चेंज किया है.

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