भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन संबंधी अध्यादेश पर देश भर में व्यापक बहस छिड़ी है. अब यह अध्यादेश विधेयक के रूप में संसद के समक्ष विचाराधीन है. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान भी यह मसला गहन चर्चा का विषय बना. खासकर राज्यसभा में गंभीर बहस के दौरान सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के कई नेताओं ने तथ्यपूर्ण ढंग से अपनी बातें रखीं. कल के विशेष पेज में आपने राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद का भाषण पढ़ा, जिसमें उन्होंने अनुभवों और उदाहरणों के साथ बताया था कि जमीन छीन लेने के बाद किसान कैसे भिखारी बन जाता है और भू-अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव का आकलन क्यों जरूरी है. इसी कड़ी में आज पढ़ें राज्यसभा में दिया गया सदन के नेता अरुण जेटली का जवाब. साथ में कुछ अन्य विचार.
तय करना होगा कि आप विकास चाहते हैं या नहीं
एक प्रचार चला कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश किसान विरोधी है और कॉरपोरेट्स की मदद करता है. जब यह कानून बना, तो तत्कालीन यूपीए सरकार ने उसमें सेक्शन 105 डाला था, और उस सेक्शन के तहत शेड्यूल 4 बनाया गया था. उस शेड्यूल में 13 कानून- राष्ट्रीय राजमार्ग, रेल, कोयला, परमाणु ऊर्जा आदि- रखे गये थे, जिनके लिए भूमि की आवश्यकता थी और उसे उस सरकार ने छूट वाले उद्देश्य में मान लिया. उन छूट वाले उद्देश्यों में न तो सहमति चाहिए, न सामाजिक प्रभाव आकलन और न ही उसमें भोजन के अधिकार की शर्ते होंगी. आपने (यूपीए ने) सहमति हटा दी. आपके कानून में 13 उद्देश्यों के लिए सहमति समेत इन तीन चीजों की आवश्यकता नहीं थी. यह मूल कानून है. फिर यह कहा कि एक साल के भीतर इन कानूनों में केवल मुआवजा बढ़ा दीजिये. हमने क्या किया? हमने उन सभी 13 कानूनों में पुनर्वास के अतिरिक्त मुआवजे को चार गुना कर दिया. यह कदम किसानों के हित में है, क्योंकि हमने इन 13 कानूनों में मुआवजा बढ़ाया है.
अगर सेक्शन 105 और शेड्यूल 4 को हटाने का संशोधन पारित हुआ, तो पूरा देश केरल और पश्चिम बंगाल की तरह राजस्व घाटे में चला जायेगा. जो कुल संशोधन प्रस्तावित हैं, उनमें इन 13 के साथ 5 और जोड़े गये हैं. मैं आपसे, विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी से,त विनती करता हूं कि आप हमसे पांच-सात गुना अधिक समय तक सत्ता में रहे हैं. आप इस देश में ऐसा वातावरण न बनायें, जहां ये दो शब्द- ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ और ‘इंडस्ट्री’- खराब शब्द बन जायें. आप यही कर रहे हैं. आज सबसे बड़ा अपराध यह कहना है कि इंफ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री बनाने की जरूरत है.
अब इस अध्यादेश के पांच उद्देश्यों पर बात की जाये. पहला उद्देश्य है पिछले कानून के दोष को दूर करना- वह भारत के हितों, राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा के विरुद्ध था. जयराम जी ने जब यह एक्ट बनाया, उन्होंने रक्षा और सुरक्षा को आपात उद्देश्य के रूप में रखा था, लेकिन वे इसे छूट वाला उद्देश्य बनाना भूल गये. इसका नतीजा यह है कि अगर भारत सरकार को रक्षा इंस्टॉलेशन, परमाणु इंस्टॉलेशन के लिए भूमि चाहिए, तो हमें पहले यह बताना पड़ेगा कि किस उद्देश्य के लिए यह चाहिए और कहां पर चाहिए. फिर वहां पब्लिक इकठ्ठी करके 70 फीसदी लोगों से हस्ताक्षर करवाना पड़ेगा, फिर उन लोगों से सामाजिक प्रभाव का अकलन होगा. फिर पांच साल में अगर वह इंस्टॉलेशनपूरी नहीं हुई तो उसके साथ खेत बनाने पड़ेंगे और फिर इस सुनवाई के जरिये पाकिस्तान को पूरी सूचना देनी पड़ेगी कि यहां पर हमारी इंस्टॉलेशन लगी हुई है. यह एक दोषपूर्ण कानून था. यह भारत के सुरक्षा हितों के विरुद्ध था. इसे सही करना जरूरी था. जो उस सरकार में थे, उन्हें ऐसे कानून के नुकसानदेह परिणामों पर विचार करना चाहिए, जिसके अनुसार सुरक्षा और रक्षा के लिए ली जानेवाली भूमि के मामले में सामाजिक प्रभाव आकलन, भोजन का अधिकार आदि लागू होंगे
मैं अपने सहकर्मी श्री मनोहर पर्रिकर जी से उन फाइलों को लाने का आग्रह करूंगा और इन्हें एंटनी साहेब और डॉ मनमोहन सिंह जी को दिखाऊंगा, क्योंकि दोनों ही इस बात को जानते हैं कि कहां-कहां हमारे सामरिक इंस्टॉलेशन इस कानून की वजह से रुके पड़े हैं. और आप बस इतना कहना चाह रहे हैं कि सरकार की छवि किसान-विरोधी बता दें, भले देश का इस प्रक्रिया में नुकसान हो जाये. यह हमारा पहला उद्देश्य है.
दूसरा उद्देश्य है ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर. और इस संबंध में मेरी अपने दोस्त जयराम रमेश से गंभीर शिकायत है. जिस दिन यह कानून पारित हो रहा था, हमलोगों ने मसला उठाया था कि इस देश में किसानों का क्या होगा? सिंचाई परियोजनाएं कैसे आयेंगी? आपने कहा था कि आप इसे सिंचाई के लिए संशोधित कर देंगे और विधेयक को वापस लोकसभा ले जायेंगे. सिंचाई को छूट दी जायेगी. मैंने आपका पारित कानून देखा. मैं अपनी बहुत बड़ी भूल मानता हूं कि मैंने उस वक्त गंभीरता से इसका परीक्षण नहीं किया. इस सदन को भरोसा दिलाने के बावजूद सिंचाई छूट वाले उद्देश्य में नहीं है. मैंने अपनी सहकर्मी सुषमा जी से पूछा, जो तब लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष थीं, तो उन्होंने बताया कि सदन के हर सदस्य को बताया था कि सिंचाई को छूट दी जा रही है.
आपने सिंचाई में बस इतना ही किया कि जिस सिंचाई परियोजना में राज्य में सामाजिक प्रभाव आकलन हो चुका है, वहां केंद्र में इसे करने की जरूरत नहीं होगी. आपने बस इतना ही किया. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना भूल जाइये, उसको जमीन नहीं मिलेगी. ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए जमीन नहीं मिलेगी. बहन मायावती जी और शरद यादव जी कह रहे हैं कि हम कॉरपोरेट की मदद कर रहे हैं. सिंचाई, ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर, ग्रामीण सड़कें- यह कॉरपोरेट की मदद है? आप ऐसे उद्देश्यों के लिए जमीन कहां से लायेंगे?
तीसरा उद्देश्य क्या है? आपकी इंदिरा आवास योजना, किसी बिल्डर और कॉरपोरेट की मदद के लिए बड़े मकान नहीं, सस्ता आवास और गरीबों के लिए आवास की योजना है. सस्ता आवास की परिभाषा है, जो 800 फुट से छोटा होता है. वे बिल्डर नहीं बनाते, वह बनाना सरकार की जिम्मेदारी है. आज 65 फीसदी लोग जो देहात में रहते हैं, उनमें से जो महत्वाकांक्षी हैं, वे शहर में आना चाहते हैं, शहरों के आसपास छोटे शहर बन रहे हैं, उनके छोटे घर बनते हैं. क्या हम इसे रोक देना चाहते हैं? हम इसके लिए जमीन कहां से लायेंगे? और ये सारे ग्रामीण क्षेत्रों के लोग हैं, जो माइग्रेशन से आयेंगे. शहर के लोगों के पास तो अक्सर घर हैं- अच्छे या खराब. गांवों से आनेवाले गरीब लोगों के लिए आवास की जरूरत है. आज जीडीपी में खेती का हिस्सा 15 फीसदी है, और 60 फीसदी जनसंख्या उसी 15 फीसदी में साझा करती है. तो 60 फीसदी लोग 15 फीसदी पैसा साझा कर रहे हैं. आज आपको 20-30 फीसदी लोगों को खेती से निकाल कर मैनुफैक्चरिंग में डालना है और उनके लिए रोजगार का सृजन करना है. यह अगले 20 सालों के लिए एक चुनौती है. आनंद शर्मा जी, आप तो इतने सालों तक देश के व्यापार मंत्री रहे हैं. ‘व्यापार करना आसान बनाने’ पर यदि किसी के सबसे ज्यादा भाषण हुए होंगे, तो आपके हुए होंगे. अब यदि किसी बाहर के व्यक्ति को कहेंगे कि निवेश कर, उद्योग लगा, रोजगार दे, लेकिन जमीन के लिए पहले 70 फीसदी की सहमति ला, फिर यह सारी प्रक्रिया पूरी होगी और देखेंगे कि आपको जमीन मिलती है या नहीं मिलती. क्या हम एक ऐसी अवस्था में पहुंच रहे हैं, जहां उद्योग एक बुरा शब्द बन जायेगा?
और आखिरी है इंफ्रास्ट्रक्चर, जहां भूमि का मालिकाना सरकार के पास बरकरार है. अब शहरों में तो इंफ्रास्ट्रक्चर फिर भी है. दरअसल इंफ्रास्ट्रक्चर तो पिछड़े इलाकों में ज्यादा बनना है, तो क्या उन्हें पिछड़ा रहने दें? यह बहस धनी और गरीब के बीच, किसान और गैर-किसान के बीच में नहीं है; यह भारत की गरीबी कम करने और अगले दो दशकों में भारत को और गरीब बनाने के बीच है. मैं एक बहुत दिलचस्प दस्तावेज पढ़ना चाहता हूं जिसे 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री को भेजा गया था. इस पत्र में वह सब कुछ कहा गया है, जो मैं कह रहा हूं. इस दस्तावेज के लेखक आनंद शर्मा यहां बैठे हैं. वे एक दिन कह रहे थे कि ‘आप किसान-विरोधी हैं, क्योंकि आप ऐसा कर रहे हैं’. जब कानून तैयार किया जा रहा था, तब यूपीए के ये मंत्री ऐसा कह रहे थे.
(नोट : जिस पत्र का जिक्र वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने भाषण में कर रहे हैं, उसे तत्कालीन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को लिखा था. यह पत्र कल ‘प्रभात खबर’ के विशेष पन्ने पर प्रकाशित किया गया है.)
अब हम उसकी अलग-अलग व्याख्या दे सकते हैं (आनंद शर्मा की टिप्पणी के बाद जेटली का बयान), लेकिन मैं आनंद शर्मा के विश्लेषण (उस पत्र में व्यक्त) को स्वीकार करूंगा कि इस कानून से देश में सिर्फ राष्ट्रीयकृत उद्योगों के व्यापार ही चलेंगे, क्योंकि निजी क्षेत्र को भूमि नहीं दी जा सकेगी.
मैंने पहले जयराम रमेश से बात की थी, जो उन्हें याद होगा. मैं कभी आपसी बातचीत को उद्धृत नहीं करता हूं, लेकिन मैं उनके तर्कों और अपने जवाब से वाकिफ हूं. उन्होंने कहा था कि कृषि की भूमि खरीदिये और उस पर उद्योग स्थापित कीजिए. तब मेरा जवाब था कि खेती की भूमि औद्योगिक भूमि नहीं बनायी जा सकती है. यह राज्य पर निर्भर करता है कि ‘भूमि उपयोग’ को बदलना है या नहीं. भूमि बंजर भी हो सकती है. अगर उद्योग स्थापित करने का एक ही तरीका है कि पहले किसानों से जमीन लो, और फिर मुख्यमंत्री के पास जाओ कि वे ‘भूमि उपयोग’ को बदले, तो फिर वही होगा जो पिछले कई वर्षों से हो रहा है. तब सिर्फ एक ही उद्योग होगा- सीएलयू यानी चेंज ऑफ लैंड यूज इंडस्ट्री. आप गुड़गांव जायें, आप जान सकेंगे कि उस राज्य में क्या हुआ है. राज्य सिर्फ इसी उद्योग पर टिका हुआ था. और आप इसे संस्थागत बनाना चाहते हैं. मणिशंकर अय्यर का कहना है कि ‘आप अधिग्रहित न करें, लोगों को खरीदने दें.’ मुङो इस अंतर का ज्ञान है. लेकिन अय्यर साहेब 13 छूट के कानून हैं, जो सभी अधिग्रहण के कानून हैं. ये खरीद के कानून नहीं हैं. आप इन 13 कानूनों को ‘सहमति’, ‘सामाजिक असर आकलन’ से छूट दे सकते हैं, लेकिन जैसे ही ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर को जोड़ा जाता है, गरीबों के आवास को जोड़ा जाता है, सारा मसला किसान-विरोधी हो जाता है. ‘सिंचाई’ को जोड़ते ही मसला किसान-विरोधी हो जाता है. इसलिए, इस दिशाहीन बहस का कहीं अंत होना चाहिए.
मसला यह है कि क्या हम देश का विकास करना चाहते हैं या नहीं? या, हम यह चाहते हैं कि सारे निवेश दूसरे देशों में चले जाएं. आनंद शर्मा का अनुभव मुझसे कहीं ज्यादा है. और, मैं उस प्रस्ताव के पूरे पक्ष में हूं, जो उन्होंने प्रधानमंत्री को दिया था. मुङो अफसोस है कि जयराम रमेश में समझाने-बुझाने की क्षमता अधिक थी और प्रधानमंत्री को समझा सके थे. मुङो बस इतना ही कहना है.
यूपीए के बिल पर कई मंत्रियों को था ऐतराज
भूमि अधिग्रहण के लिए नये नियम और मुआवजा नीति निर्धारित करनेवाला ‘उचित मुआवजा और भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन में पारदर्शिता का अधिकार विधेयक, 2012’ लोकसभा में कुछ संशोधनों के साथ 29 अगस्त, 2013 को पारित किया गया था. लेकिन, इस बिल के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान यूपीए के कई वरिष्ठ मंत्रियों के बीच गंभीर मतभेद रहे थे और उन्होंने ऐतराज जताया था. हालांकि आज वे मंत्री मोदी सरकार द्वारा लाये गये उन संशोधनों का भी विरोध कर रहे हैं, जिन्हें तब वे इस बिल में शामिल कराना चाहते थे.
28 अगस्त, 2012 की कैबिनेट बैठक में भूमि अधिग्रहण बिल का जो संशोधित मसौदा पेश किया गया था, उसमें वाणिज्य मंत्रलय की कई सिफारिशों को शामिल नहीं किया गया था. वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा कैबिनेट मीटिंग में शामिल नहीं हुए थे और प्रधानमंत्री को एक नोट भेज कर तमाम मुद्दों पर सहमति बनने तक बिल को पास न कराने का अनुरोध किया था. (यह पत्र हम कल के अंक में छाप चुके हैं.)
बैठक में कई अन्य मंत्रियों ने भी कहा था कि बिल का फाइनल ड्राफ्ट बनाने से पहले उनसे बात नहीं की गयी. विरोध करनेवालों में आनंद शर्मा और शहरी विकास मंत्री कमलनाथ, कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के अलावा वीरप्पा मोइली, अजित सिंह और सीपी जोशी आदि शामिल थे. खबरों के मुताबिक कमलनाथ ने कहा था कि यह विधेयक शहरीकरण में बाधा बनेगा, जबकि सड़क एवं परिवहन राजमार्ग मंत्री सीपी जोशी ने विधेयक के कारण रोड विकास में बाधाएं आने की बात कही थी. आनंद शर्मा ने इसे औद्योगीकरण की राह में रोड़ा बताया था. बिल के मसौदे पर घमासान देख कैबिनेट ने इसे मंत्रियों के समूह (जीओएम) के पास भेज दिया था. इन तीन प्रमुख मुद्दों पर थे 14 सदस्यीय जीओएम में मतभेद :
भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले 80 फीसदी लोगों की रजामंदी अनिवार्य होने के प्रावधान पर
पिछली तारीख से जमीन अधिग्रहीत करने के प्रावधान पर
जमीन अधिग्रहण के लिए मुआवजा राशि के मामले पर
पुनर्विचार की जरूरत
हमारा देश कृषि प्रधान है. यदि केंद्र सरकार किसानों के हित में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाती, तो शायद इतना हंगामा नहीं होता, न हाउस के अंदर और बाहर. 2013 में भूमि अधिग्रहण का विधेयक लाया गया था, तो कोई जल्दबाजी में नहीं लाया गया था. उस समय दोनों सदनों में काफी गहन चर्चा हुई थी और आज के सत्ता पक्ष के लोग, जो उस समय विपक्ष में थे, इनकी भी राय ली गयी थी और आम सहमति से भूमि अधिग्रहण विधेयक पास हुआ था. उस भूमि अधिग्रहण विधेयक में किसानों के हित में जो शर्ते रखी गयी थीं, उन शर्तो को इस सरकार में उलट दिया गया है. अध्यादेश का अध्ययन करने के बाद हमारी पार्टी इस नतीजे पर पहुंची है कि यह अध्यादेश किसानों के हित में नहीं है, बल्कि देश के कुछ मुट्ठीभर बड़े-बड़े उद्योगपतियों और धन्ना सेठों के हित में है. इसलिए किसानों के हित को ध्यान में रख कर इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए.
मायावती
प्रमुख, बसपा