देश की आजादी के अविस्मरणीय पल के गवाह बननेवाले करोड़ों लोगों में से कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस क्षण की अनुभूति को शब्दबद्ध किया है. कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस दृश्य को ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर पुनर्जीवित करने की कोशिश की है. जितनी अनुभूतियां, उतनी ही तरह की अभिव्यक्तियां किताबों की शक्ल में हमारे बीच उस दिन की याद के रूप दर्ज हैं. किताबों में दर्ज 15 अगस्त 1947 के अनुभव को संकलित करने की एक कोशिश..
जब सारे इंतजाम कम पड़ गये
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता-समारोह के सर्वप्रमुख कार्यक्रम में भाग लेने के लिए जो अपार भीड़ उमड़ पड़ी थी उसकी याद वर्षो तक बनी रही. लगता था कि एक विशाल जन-सागर नये राष्ट्र के अभिवादन के लिए ठाठें मार रहा है. पहले महायुद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले 90,000 भारतीय सैनिकों की याद में बनाये गये नयी दिल्ली के इंडिया गेट के पास खुले मैदान में शाम को पांच बजे भारत का झंडा फहराया जानेवाला था. माउंटबेटन और उनके सलाहकारों ने, ब्रिटिश राज के बड़ी धूमधाम से मनाये जानेवाले समारोहों के आयोजन के लिए बनाये गये सारे नियमों और सारी हिदायतों के आधार पर यह अनुमान लगाया था कि 30,000 लोग वहां आयेंगे. उनके इस अनुमान में कई हजार की नहीं, बल्कि पांच लाख से ज्यादा की गलती थी. इससे पहले कभी किसी ने भारत की राजधानी में इस तरह की कोई भीड़ नहीं देखी थी.
चारों ओर फैले अपार जन-सागर की लहरों ने झंडे के पास बनाये गये छोटे-से मंच को अपनी लपेट में ले लिया था. एक दर्शक को तो वह मंच ऐसा लगा जैसे ‘कोई छोटी सी नाव तूफानी समुद्र में हिचकोले ले रही हो.’ भीड़ को रोकने के लिए लगायी गयी बल्लियां, बैंडवालों के लिए बनाया गया मंच, बड़ी मेहनत से बनायी गयी विशिष्ट अतिथियों की दर्शक-दीर्घा और रास्तों के दोनों ओर बांधी गयी रस्सियां- हर चीज इंसानों की इस प्रबल धारा में बह गयी. पुलिस लाचार खड़ी देखती रही और लोग सारी बाधाओं को रौंदते हुए, कुर्सियों को सूखी टहनियों की तरह तोड़ते हुए आगे बढ़ते रहे. छतरपुर का किसान रंजीतलाल, जो मुंह अंधेरे ही अपने गांव से चल पड़ा था, इस भीड़ में आकर खो गया. वह समझता था कि भारत में इतनी भीड़ सिर्फ गंगा-स्नान के मेले के लिए होती है. भीड़ में चारों ओर से वह इतनी बुरी तरह पिसा जा रहा था कि गांव से साथ लायी रोटियां भी नहीं खा पाया. वह अपना हाथ उठाकर मुंह तक नहीं ले जा सकता था. लेडी माउंटबेटन की दो सेक्रेटरी एलिजाबेथ कालिंस और म्यूरियल वाटसन पांच बजे के कुछ ही देर बाद वहां पहुंचीं. वे ताजे धुले हुए और सफेद दस्ताने, दावतों और पार्टियों में जाने की अपनी बेहतरीन पोशाकें पहन कर और अपने हैट में चिड़ियों के रंग-बिरंगे पर लगा कर पूरी तरह सज-धजकर आयी थीं. अचानक उन्होंने अपने-आपको खुशी में चूर, पसीने में नहाये हुए अधनंगे लोगों की उस भीड़ में फंसा हुआ पाया.
उनके लिए पांव जमा कर खड़े रहना मुश्किल हो रहा था और भीड़ उन्हें जिधर ढकेल देती उधर ही वे चली जातीं. सहारे के लिए उन्होंने एक -दूसरे का हाथ पकड़ रखा था, सिर पर उनकी टोपियां टेढ़ी हो गयी थीं, उनके कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये थे और वे जान लड़ा कर सीधे खड़े रहने की कोशिश कर रही थीं. एलिजाबेथ लड़ाई के दिनों में लेडी माउंटबेटन की हर यात्र के दौरान उनके साथ रह चुकी थी, लेकिन आज अपने जीवन में पहली बार उसे डर लग रहा था. म्यूरियल की बांह मजबूती से पकड़ कर उसने हांफते हुए कहा,‘ये लोग हमें रौंद कर मार डालेंगे.’ गवर्नर-जनरल की 17 वर्षीय बेटी पामेला माउंटबेटन अपने पिता के कर्मचारी-मंडल के दो सदस्यों के साथ आयी. बड़ी मुश्किल से वे भीड़ को चीर कर लकड़ी के मंच की ओर बढ़ रहे थे. वहां पहुंचने से सौ गज पहले जमीन पर बैठे हुए लोगों की एक ठोस दीवार ने उनका रास्ता रोक दिया. वे लोग एक-दूसरे से इतने सट कर बैठे हुए थे कि उनके बीच से हवा का गुजरना भी मुश्किल था.
‘कैसे आऊं?’ उसने चिल्लाकर जवाब दिया. ‘मैंने ऊंची एड़ी के जूते पहने हैं.’ ‘जूते उतार लो’ नेहरू ने जवाब दिया. पामेला ऐसे ऐतिहासिक अवसर पर इतनी अभद्रता की हरकत करने की कल्पना स्वपA में भी नहीं कर सकती थी. ‘नहीं’ उसने हांफते हुए कहा,‘मैं ऐसा नहीं कर सकती.’ ‘तो फिर पहने रहो’ नेहरू ने कहा. ‘लोगों के ऊपर पांव रखकर चली आओ. कोई कुछ नहीं कहेगा.’
जैसे ही माउंटबेटन-दंपती की सवारी के साथ चलनेवाले अंगरक्षकों की चमकदार रंगीन पगड़ियां दूर क्षितिज पर दिखायी दीं, भीड़ लहर की तरह आगे की ओर उमड़ पड़ी. अपने माता-पिता को धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ते हुए देख पामेला की आंखों के सामने एक अनोखा दृश्य आया. मंच के चारों ओर उमड़ते हुए इंसानों के उस समुद्र में हजारों ऐसी औरतें भी थीं जो अपने दूध पीते बच्चों को सीने से लगाये हुए थीं. इस डर से कि कहीं उनके बच्चे लहर की तरह बढ़ती हुई भीड़ में पिस न जाएं. जान पर खेल कर वे उन्हें रबर की गेंदों की तरह हवा में उछाल देतीं और जब वे नीचे आ गिरते तो फिर उन्हें उछाल देतीं. एक क्षण में हवा में इस तरह सैकड़ों बच्चे उछाल दिये गये. उस नौजवान लड़की की आंखें आश्चर्य से फटी रह गयीं और वह सोचने लगी,‘हे भगवान, बच्चों की वर्षा हो रही है.’
गाड़ी पर बैठै-बैठे ही माउंटबेटन ने समझ लिया कि झंडा फहराने के सिवा और रस्में जिनका कार्यक्रम उन्होंने बनाया था, अदा नहीं की जा सकतीं. वह स्वयं गाड़ी से उतर ही नहीं पा रहे थे.
(कॉलिन्स और लैपियर की किताब ‘फ्रीडम एट मिड नाइट’ के हिंदी अनुवाद ‘बारह बजे रात के’ से साभार)