हमारी अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार मंद पड़ रही है. सरकार की कोशिशों से ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) को आकर्षित करनेवाले फैसलों से ही विकास की रफ्तार तेज हो जायेगी और देश की सभी मौजूदा समस्याओं का हल हो जायेगा. इसके लिए सरकार ने पिछले दिनों कई महत्वपूर्ण फैसले लिये. इसके तहत मल्टी ब्रांड रिटेल और टेलीकॉम सेक्टर समेत कई क्षेत्रों में एफडीआइ के नियमों में ढील दी गयी. इन फैसलों पर विपक्ष के ज्यादातर राजनीतिक दल चुप हैं. ऐसे समय में इस बात पर बहस होनी चाहिए कि क्या सिर्फ विदेशी निवेश बढ़ानेवाले फैसलों से ही देश की मौजूदा आर्थिक समस्याएं हल हो जाएंगी?
घरेलू निवेश बढ़ाने से सुधरेगी स्थिति
।।पीके चौबे।।
(अर्थशास्त्री)
विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए सरकार अपनी तरफ से पूरी कोशिश में जुटी है. विदेशी निवेश का डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य से सीधा रिश्ता है. डॉलर के मुकाबले में रुपया अभी बेहद चिंताजनक स्थिति में है. इसके साथ ही सरकार खुद भी स्वीकार रही है कि हालिया वर्षो में विकास दर कम हुई है और रोजगार में पर्याप्त बढ़ोतरी नहीं हुई है.यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही विकास दर 9 फीसदी से घट कर 6 फीसदी के नीचे आ चुकी है. इतना ही नहीं, केंद्र सरकार देश में समावेशी विकास का दावा करती है, लेकिन यह भी नहीं हो रहा है. अमीरों और गरीबों का फासला लगातार बढ़ता ही जा रहा है.
इस बात में कोई संदेह नहीं कि आर्थिक सुधारों के लिए हमें निवेश की जरूरत है. निवेश के लिए रकम तीन तरीकों से प्राप्त होती है. विदेशी निवेश, घरेलू बचत और उधारी. इसमें विदेशी निवेश जरूरी है, लेकिन हमें घरेलू बचत बढ़ाने पर भी जोर देना होगा. सेंट्रल स्टेटिस्टिकल ऑफिस (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2012-13 में देश की घरेलू बचत की दर 30 फीसदी थी, जबकि 2007-08 में यह तकरीबन 37 फीसदी थी.
हमें इस बात पर गौर करना होगा कि आखिर क्या वजह है कि घरेलू बचत दर में महज सात फीसदी की कमी आने से विकास दर में करीब तीन फीसदी की कमी हो गयी. जबकि अनुमानों के मुताबिक घरेलू बचत में सात फीसदी तक की कमी होने से विकास दर में महज एक फीसदी की कमी आनी चाहिए थी. जाहिर है, हमारी आर्थिक नीतियों और आर्थिक व्यवस्था में कहीं न कहीं कोई बड़ी खामी है, जिसके चलते ऐसा हुआ. एक बड़ा कारण यह भी है कि अपने पास मौजूद रकम को हम सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. कहीं भ्रष्टाचार तो कहीं लेट-लतीफी के कारण परियोजनाएं लंबे समय तक लटकी रहती हैं और उनका खर्च काफी बढ़ जाता है.
केंद्र सरकार की ओर कई क्षेत्रों में 100 फीसदी तक विदेशी निवेश को मंजूरी देने के बावजूद विदेशी निवेश में वृद्धि नहीं हो पा रही है. बहुराष्ट्रीय मल्टीब्रांड रिटेल कंपनियों के भारत आने से आर्थिक सुधारों को गति मिलेगी, इस दावे का कोई ठोस आधार नहीं है. असल में ग्रोथ रेट बढ़ाना तो एक बहाना है, निवेश को आकर्षित करनेवाले कदमों के जरिये सरकार की पूरी कोशिश रुपये की गिरती कीमत को थामना है.
सरकार रुपये की दर को स्थिर करने के लिए तमाम कोशिशें कर रही हैं, लेकिन उसकी कोई भी कोशिश कारगर साबित नहीं हो रही है. रुपये की कीमत को थामने के लिए सिर्फ विदेशी निवेश के पीछे भागना और घरेलू खर्च पर नियंत्रण नहीं करना एक गलत प्रक्रिया है, जिससे लंबे समय के लिए सकारात्मक परिणाम हासिल नहीं हो सकते.
दरअसल हमारे देश में ज्यादातर आंतरिक समस्याओं को राजनीति के एक ही चश्मे से देखा जाता है. जबकि आर्थिक और राजनीतिक मसलों से अलग-अलग तरीके से निपटा जाना चाहिए. कुल मिला कर कह सकते हैं कि देश की मौजूदा समस्याओं के हल के लिए सिर्फ विदेशी निवेश के पीछे भागना गलत है.
एफडीआइ के जरिये निवेश बढ़ाना सही है
।।प्रेमिला नाजेरथ सत्यानंद।।
(आर्थिक मामलों की जानकार)
विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए मनमोहन सरकार ने पिछले दिनों कई क्षेत्रों में एफडीआइ की सीमा बढ़ायी है. सरकार ने मल्टी-ब्रांड रिटेल, एयरलाइंस और रक्षा क्षेत्रों में एफडीआइ के नियमों को पिछले साल ही उदार बनाया था. बहुत से लोगों को आशंका है कि बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश छोटे घरेलू कारोबारियों और उद्यमियों को खत्म कर देगा. लोग आरोप लगा रहे हैं कि आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के नाम पर एफडीआइ के नियमों को जरूरत से ज्यादा उदार बनाया जा रहा है. इन सबके बीच हमारे सामने कुछ अहम सवाल हैं. हमारे लिए 9 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर भी क्यों मुश्किल हो रही है? क्या इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सरकार की ओर से कारगर रणनीतियां बनायी जा रही हैं?
असल में एफडीआइ से जुड़ी कई आशंकाओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि एफडीआइ में ढील दे रही सरकार का ध्यान समावेशी विकास पर नहीं है. लेकिन विदेशी पूंजी आने से हमारा बढ़ता व्यापार घाटा कम होगा, जो दिसंबर, 2012 में 32.6 बिलियन डॉलर यानी जीडीपी के 6.7 फीसदी तक पहुंच चुका है. पी चिदंबरम समेत कई अधिकारी इस बारे में अपनी दलील पेश कर चुके हैं. हालांकि, व्यापार घाटा कम करने का एक रास्ता यह है कि हम आयात कम करें और निर्यात बढ़ाएं, लेकिन ऐसा जल्द करने में हम सक्षम नहीं हैं. धनी देशों के बाजारों में मंदी का दौर है. इससे भारतीय निर्यातकों को जूझना पड़ रहा है. इसके अलावा उन्हें ढांचागत समस्याओं और अपने अधिकारियों की लालफीताशाही का भी सामना करना पड़ता है.
रुपया कमजोर होने के कारण हमारे प्रमुख आयात (तेल और सोना) की कीमत तेजी से बढ़ी है. भारत एक ऐसे घर की तरह है, जिसके सदस्य अपने खर्चो को पूरा करने के लिए ज्यादा नहीं कमाते और उनकी आमदनी का मूल्य करीब 25 फीसदी घट चुका है. इससे देश में रकम निवेश करने की ताकत कम हो रही है. विपक्ष ही नहीं, यूपीए में शामिल दलों के भी दबाव के चलते सरकार ने उदारीकरण की प्रक्रिया में कई सुरक्षात्मक उपाय किये हैं. सरकार एफडीआइ को बढ़ावा दे रही है, क्योंकि दुनिया के प्रख्यात अर्थशास्त्रियों व नीति निर्धारकों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय पूंजी का यह प्रारूप पोर्टफोलियो निवेश की तुलना में ज्यादा अच्छा है, जिसमें विदेशियों द्वारा भारतीय स्टॉक मार्केट में शेयरों की खरीद और कारोबार या सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश होती है. ये निवेशक पूरी दुनिया में ऊंची ब्याज दर की तलाश में रहते हैं. इसके विपरीत, एफडीआइ में ऐसा नहीं होता है. विदेशी निवेशक किसी कारोबार से रातोंरात अपना पैसा नहीं निकाल सकते हैं. एफडीआइ ज्यादा पारदर्शी भी होता है. इसका एक पहलू यह भी है कि इससे विदेशी तकनीक आती है, प्रतिभा और प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जिससे घरेलू कौशल और उत्पाद की गुणवत्ता में भी सुधार होता है. ज्यादातर देशों में देखा गया है कि विदेशी निवेश से स्थानीय कारोबारियों में प्रतिस्पर्धा बढ़ने के चलते ग्राहकों को उसका फायदा मिलता है.
एफडीआइ नियमों में ढील
मनमोहन सरकार ने पिछले दिनों मल्टी–ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के नियमों में ढील दी है और कई सेक्टर्स में एफडीआइ की सीमा भी बढ़ा दी है.
-कैबिनेट ने टेलीकॉम में एफडीआइ की सीमा को बढ़ा कर 100 फीसदी कर दिया गया है.
-केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मल्टी-ब्रांड रीटेलर्स के लिए 30 फीसदी सोसिर्ंग की पाबंदी को नरम बनाया है. अब राज्य सरकारें उन शहरों में भी मल्टी-ब्रांड रीटेल में एफडीआइ की इजाजत दे सकेंगी, जिनकी आबादी 10 लाख से कम होगी.
-वॉलमार्ट और टेस्को जैसी मल्टी-ब्रांड रीटेल कंपनियों के लिए अब स्मॉल और मीडियम एंटरप्राइजेज से 30 फीसदी प्रॉडक्ट्स की खरीदारी सिर्फ बिजनेस शुरू करने के वक्त जरूरी होगी
-बैक ऐंड इन्फ्रास्ट्रर के बारे में भी कहा गया है कि इस संबंध में इन्वेस्टर को 5 करोड़ डॉलर का जरूरी निवेश सिर्फ पहले बिजनेस के वक्त करना होगा. बाद में यह इन्वेस्टमेंट बिजनेस की जरूरतों पर निर्भर करेगा.
-कई सेक्टरों में एफडीआई सीमा बढ़ाने को लेकर सिफारिशों को मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया गया है. रिफॉर्म्स का दूसरा दौर सिविल एविएशन जैसे सेक्टरों को विदेशी निवेश के लिए खोले जाने के 10 महीने बाद शुरू हुआ है.
फैसलों के समर्थन में तर्क
एफडीआइ में ढील के हालिया फैसलों को आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर के कदम के रूप में देखा जा रहा है.
– के फैसले का ऐलान करते हुए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने कहा कि मल्टी ब्रांड रीटेल में एफडीआइ के नियमों को नरम बनाये जाने से निवेशकों को आसानी होगी.
-शीत गृह जैसी ढांचागत सुविधाओं में निवेश के बारे में उन्होंने कहा कि निवेशक को पहले सौदे में ही पांच करोड़ डॉलर का निवेश करने की अनिवार्यता होगी. इसके बाद निवेश कारोबार की जरूरतों पर निर्भर करेगा.
-उन्होंने बीमा क्षेत्र में एफडीआइ सीमा बढ़ाने का जिक्र नहीं किया, जिसमें पिछले महीने इंटर-मिनिस्ट्रियल ग्रुप एफडीआइ सीमा को मौजूदा 26 फीसदी से बढ़ा कर 49 फीसदी करने पर राजी हुआ था. शर्मा ने कहा कि कैबिनेट ने 16 जुलाई को एफडीआइ सीमा बढ़ाने और ऑयल रिफाइनरी जैसे सेक्टर में एफडीआइ रूट को आसान बनाने के लिए प्रधानमंत्री की अगुवाई में हुई इंटर-मिनिस्ट्रियल ग्रुप की मीटिंग में लिये लगभग सभी फैसलों पर मंजूरी दे दी है.
-सरकार के फैसलों के संबंध में इकोनॉमिक अफेयर्स सेक्रेटरी अरविंद मायाराम ने बताया था, हमें इन फैसलों से एफडीआइ निवेश में बढ़ोतरी की उम्मीद है और इससे विदेशी निवेशकों को इंडियन फॉरेन इन्वेस्टमेंट पॉलिसी पर भरोसा बढ़ेगा.
प्रतिक्रियाएं और भी हैं
मल्टीब्रांड रिटेल और टेलीकॉम सेक्टर समेत कई क्षेत्रों में एफडीआइ के नियमों में दी गयी ढील को जहां सत्ता पक्ष विकास की रफ्तार बढ़ाने के लिए उठाया गया कदम बता रहा है, वहीं इसका विरोध भी हो रहा है.
-सरकार ने पिछले साल मल्टी ब्रांड रिटेल क्षेत्र में 51 फीसदी तक एफडीआइ को अनुमति दी थी, लेकिन अब तक इस क्षेत्र में कोई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं हुआ है. उम्मीद है कि एफडीआइ से संबंधित नीतियों में स्पष्टता के बाद विदेशी कंपनियां भारतीय मल्टी ब्रांड क्षेत्र में प्रवेश कर सकती हैं. कुछ बड़े सवालों के कारण ही मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआइ रुकी हुई थी. – पी चिदंबरम, केंद्रीय वित्त मंत्री
-किसी अंशधारक या राजनीतिक समुदाय से विचार-विमर्श किये बिना सरकार ने देश का खुदरा क्षेत्र वैश्विक रिटेलरों को सौंपने का फरमान जारी कर दिया है. यह फैसला असंगठित क्षेत्र के 5 करोड़ खुदरा दुकानदारों की कीमत पर किया गया है. इस फैसले से घरेलू व्यापारी बुरी तरह प्रभावित होंगे. – प्रवीण खंडेलवाल, व्यापारियों के शीर्ष संगठन कन्फेडरेशन ऑफ आल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के महासचिव
-संप्रग सरकार कॉरपोरेट्स और विदेशी निवेशकों के हितों को भाने वाली नीतियां आगे बढ़ा रही है – गुरुदास दासगुप्ता, भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के संसदीय समूह के नेता
-रक्षामंत्री एके एंटनी ने रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ सीमा मौजूदा 26 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत करने के प्रस्ताव का विरोध किया था.