प्रोफेसर पन्नालाल ने कहा, मगर कहां साहब? मैंने उनकी भी तसवीरें देखी हैं. जामिनीराय के मुकाबले में उनकी तीन बहनें देखिए तो मालूम होता है कि ये बहनें सचमुच ही कुछ हैं.
पर बारीकी से देखिए तो पता चलना मुश्किल है कि कौन बड़ी है और कौन छोटी, कौन शादीशुदा है, कौन शादी करेगी. अब बताइये यह सब कोई कहने के लिए विलायत से तो आवेगा नहीं.
वे कहते गये, तसवीर तो बोलती हुई होनी चाहिए. पर आजकल तो लफ्फाजी पर तसवीरें चलती हैं.
मैंने देखा की एक कमरे में मेज पर चाय के चंद प्याले टेढ़े-मेढ़े पड़े हैं. अब जनाब, एक साहब मुझे पढ़ाने लगे कि इसमें इनसान नहीं दिखाया गया, पर लगता है कि कमरे से अभी-अभी चाय पी कर लोग बाहर गये हैं.
मैंने कहा, भाई जान, इसका क्या सबूत? मुझे लगता है कि नौकर बेसलीके से प्याले रख गया है और लोग उन्हीं में चाय पीने को आ रहे हैं. यह तो अपना-अपना खयाल है.
मैंने कहा, तो सबूत होता भी तो क्या होता?
वे बोले, क्यों फर्श पर जाते हुए पैरों के निशान नहीं दिये. भई, अक्ल की जरूरत तो सभी जगह पड़ती है!
इतनी देर बाद मुझे लगा कि मेरे धैर्य की आखिरी बूंद सूख रही है. अत: मैंने कहा, प्रोफेसर साहब! असल बात यह है कि आजकल की चित्रकला के बारे में आप कुछ नहीं जानते. इसकी सुंदरता समझने के लिए आंख ही नहीं दिमाग भी चाहिए.
वे फिर मुस्करा दिये और बिना कहे ही कह गये कि मेरी पीढ़ी के लड़कों से वे इसी तमीज की उम्मीद करते हैं. कहने लगे, बस, बस, यही बात हम लोगों ने कभी नहीं कही. हम यहीं कच्चे पड़ते हैं.
तुम लोगों का तो यह हाल है कि गाना बहुत घुमा कर गाओगे. न पसंद आया, तो कह दोगे कि गानेवाला पक्का गवैया है और सुननेवाला गावदी है.
बाद में अगर तुम अंगरेजी ट्यून पर कोई सड़ियल तराना छेड़ बैठे और हमने नाक सिकोड़ी तो कह दोगे, पुराना जाहिल है, कुछ नहीं जानता.
वही हाल आर्टिस्टी का है. तसवीर सरासर आंख के सामने है, देखता हूं तो देखने में अच्छी नहीं लगती, न कोई देवी है, न देवता है, न आदमी है, न औरत है, न नेचर का करिश्मा है, न इनसान की हिकमत है. टेढ़ी-मेढ़ी बेढंगी बातें हैं.
मैं देख कर कहता हूं कि यह तसवीर दो कौड़ी की है और आप कह देते हैं कि मैं नासमझ हूं. यानी सरासर तसवीर देख रहा हूं और आप कहते हैं कि मैं देखता नहीं हूं.
प्रोफेसर पन्नालाल शायद दूसरे की गवाही मान जायें, इस आशा से मैंने कहा, और इन तसवीरों पर जो इतना ईनाम दिया जाता है..?
वे बोले, ईनाम क्या? ईनाम तो सरकार पक्के गाने पर भी देती है और फिल्मी गानों पर भी. पुराने ढंग की किताबों पर देती है और नये किस्म की पॉपुलर किताबों पर भी देती है. हर आर्ट की यही हालत है. सिर्फ तसवीरों के मामले में घपला है.
मैं तो यह कहने जा रहा हूं कि जहां आप पांच टेढ़ी-मेढ़ी आंखों के गोल दायरों पर ईनाम देते हैं, वहीं मेरे राम-पंचायतन पर भी रहम खा लें. वे गोल दायरे तो आपके गोल कमरे में ही हैं, पर राम-पंचायतन तो जनता के घर-घर में है. जरा यह भी तो देखिए.
वे कुछ देर उत्तेजित से बैठे रहे. फिर सहसा हंस कर जैसे कोई भूला हुआ फारमूला-सा याद करते हुए बोले, भाईजान, अब तो जनता राज है और हम जनता के आर्टिस्ट हैं. आप हमारी समझ पर हंस कर खुद कौन-सी समझ दिखा रहे हैं?
इस बार जिस अंदाज से उन्होंने झुक कर छाती पर हाथ रखा और अकड़ कर मूंछों से हंसी की फुलझड़ी बिखेरी, उससे मुझे इत्मीनान हो गया कि प्रोफेसर पन्नालाल की आर्टिस्टी निशात थियेटर कंपनी के परदों के ऊपर तक ही नहीं, कभी-कभी परदे के आगे स्टेज पर भी खिसक आती रही होगी.
मैंने अपनी नासमझी मान ली और उनसे माफी मांगी. उन्होंने मुझे माफ कर दिया और मेरी वंश-परंपरागत विनम्रता की प्रशंसा की.
(समाप्त)