।।उमेश चतुर्वेदी।।
(टेलीविजन पत्रकार)
तेलंगाना के तौर पर भारत के 29वें राज्य को यूपीए की संयोजन समिति और कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी दे ही दी है. जब संगठन के दो महत्वपूर्ण अंग ऐसी मंजूरी देते हैं, तो सरकारी निर्णय महज औपचारिकता ही रह जाते हैं. इसके साथ ही आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य बनाने का रास्ता साफ हो गया है. माना जा रहा है कि चार-पांच महीने के अंदर इस राज्य का गठन हो जायेगा.
इसके साथ ही आंध्र की 42 में से 17 लोकसभा सीटें, विधानसभा की 294 में से 119 सीटें और 23 में से 10 जिले इस नये राज्य के अंग होंगे. चंडीगढ़ की तर्ज पर हैदराबाद को दोनों राज्यों की राजधानी बनाने की तैयारी है. चूंकि यह तेलंगाना इलाके की जनआकांक्षाओं से जुड़ा मामला रहा है, लिहाजा अलग राज्य देनेवाली कांग्रेस और वाइएसआर कांग्रेस को राजनीतिक फायदा होता नजर आये, तो हैरत नहीं होनी चाहिए.
2009 में अगर 2004 के मुकाबले मजबूत केंद्र सरकार बनी, तो उसकी बड़ी वजह आंध्र प्रदेश रहा, जहां की 42 सीटों में से 33 पर कांग्रेस कामयाब हुई. लिहाजा कांग्रेस उम्मीद जता सकती है कि अगले आम चुनाव में उसे अलग तेलंगाना का फायदा मिल सकता है. पर उसे नहीं भूलना चाहिए कि आंध्र प्रदेश में एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो अलग राज्य का विरोध करता है. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी के इस्तीफे की धमकी उस अस्वीकार्यता का ही प्रकटीकरण था. इसलिए हो सकता है कि तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों पर उसे फायदा हो, पर बाकी राज्य में फैले 25 सीटों पर नुकसान संभव है.
अब तक का सफर
तकरीबन पूरा आंध्र तेलुगुभाषी तो है, लेकिन तेलंगाना और दूसरे इलाकों के बीच कुछ वैसी ही सांस्कृतिक विविधताएं हैं, जैसे भोजपुरी भाषी यूपी और बिहार के इलाकों के बीच है. पर सिर्फ सांस्कृतिक विविधताओं के ही चलते अलग राज्य की मांग नहीं होती रही है. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि तेलंगाना इलाके में खेती पिछड़ी हुई है. आंध्र की कुल खेती योग्य जमीन का 42 फीसदी हिस्सा तेलंगाना के इलाके में आता है. लेकिन उसकी तुलना में न तो नहरों का जाल इस इलाके में है और न ही पानी की दूसरी सहूलियतें. कृषि खर्च का सिर्फ 30 फीसदी ही तेलंगाना के हिस्से में आता है. राज्य सरकार के अफसरों और मंत्रियों में दूसरे इलाके के लोगों के दबदबे की वजह से उन्हें राज्य को मिलनेवाले रासायनिक खाद में से भी सिर्फ 27 फीसदी ही मिल पाता है. यही हालत पनबिजली का भी है. ऐसी असमानताओं की नींव 16वीं सदी में कुतुबशाही के दौरान ही रखी गयी और निजाम के शासन तक बढ़ती रही. आजादी के बाद जिनके हाथ में ताकत आयी, उन्होंने भी तेलंगाना के पिछड़ेपन को अगड़ेपन में बदलने के लिए कारगर कदम नहीं उठाये. यही वजह है कि तेलंगाना राज्य का मसला क्षेत्रीय जनाकांक्षा का प्रबल उभार का प्रतीक रहा है. अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो 1952 में पोट्टि श्रीरामुलू अलग राज्य की मांग करते हुए मद्रास में 56 दिनों की भूख हड़ताल पर नहीं बैठते और नेताओं की उदासीनता की वजह से उनकी मौत नहीं हो जाती.
आंध्र प्रदेश बनने के बाद भी इस मसले पर ध्यान नहीं दिया गया, जिसका नतीजा 1969 में मरिचन्ना रेड्डी की अगुआई में चले जोरदार आंदोलन के तौर में दिखा, जिसमें हैदराबाद विश्वविद्यालय के करीब 360 छात्र शहीद हुए. इसे छोड़ दें तो आठवें दशक तक लगभग वही ढर्रा चलता रहा. नौवें दशक में क्षेत्रीय जनआकांक्षाओं का उबाल बढ़ने लगा. जनआकांक्षाओं का यह उभार ही था कि के चंद्रशेखर राव को अपने इलाके में जनउपेक्षा का डर सताने लगा और 2001 में तेलुगूदेशम से अलग होकर तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन करना पड़ा. तेलंगाना राज्य के आंदोलन के नाम पर गठित इस पार्टी को जनउभार का फायदा 2004 के चुनावों में दिखा भी. टीआरएस से कांग्रेस का गठबंधन बना, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में दोनों को फायदा भी मिला. के चंद्रशेखर राव को तब के कांग्रेस अध्यक्ष वाइएस राजशेखर रेड्डी साथ अपने साथ इसी वादे के जरिये लाने में कामयाब हुए थे कि अलग तेलंगाना राज्य बनाने में वे उनका साथ देंगे. लेकिन सत्ता में आते ही केंद्र में मनमोहन सरकार और राज्य में वाइएसआर को अपने वादे को टालने से परहेज नहीं हुआ. इसे लेकर टीआरएस में भी फूट पड़ी. चंद्रशेखर राव राज्य के लिए अप्रासंगिक होते गये. ऐसे में उन्हें कोई न कोई कदम उठाना ही था. इसका उन्हें मौका तब मिला, जब 2009 में राज्य सरकार ने ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनावों का एलान कर दिया. इसका राव ने फायदा उठाया और आमरण अनशन पर जा बैठे. जिसके आगे केंद्र को झुकना पड़ा और 11 दिसंबर, 2009 को अलग तेलंगाना बनाने की मांग माननी ही पड़ी.
आगे की चुनौतियां
सवाल यह है कि आखिर क्या वजह रही कि केंद्र सरकार को अपनी ही मांग को फलीभूत करने के लिए साढ़े तीन साल का लंबा वक्त लगा. अब सियासी क्षितिज पर के चंद्रशेखर राव की वैसी मौजूदगी नहीं है, जैसी तीन साल पहले तक रही है, लेकिन यह सवाल कांग्रेस से बार-बार पूछा जायेगा. चूंकि राज्य में भाजपा का बड़ा आधार नहीं है, लिहाजा वह भी इस नये राज्य के साथ खड़ी है. उसका तो दबाव यह है कि केंद्र सरकार जल्द से जल्द इस प्रस्ताव को संसद में पेश करे. लेकिन सवाल यह है कि क्या तेलुगुदेशम या कांग्रेस के तेलंगाना विरोधी नेताओं को यह बात पचेगी. इसी सवाल के जवाब में केंद्र में कांग्रेस की वापसी की पटकथा छुपी है. वैसे कुछ मसले राज्य गठन के बाद भी आंध्र और तेलंगाना के बीच कड़वाहट की वजह बनेंगे. इनमें सबसे बड़ा मसला तो हैदराबाद ही बनने वाला है, जिस पर कब्जे को लेकर लड़ाई चलेगी. चंडीगढ़ का उदाहरण हमारे सामने है.
केंद्र के इस फैसले के बाद विदर्भ राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी है. नागपुर में हुए प्रदर्शन और विदर्भ से कांग्रेस के ताकतवर नेता विलासमुत्तेमवार के विदर्भ के समर्थन में उतरने से कांग्रेस के लिए निश्चित तौर पर असहज स्थिति हो जायेगी. इसी तरह पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड की मांग 106 साल से जारी है. उन आंदोलनकारियों को भी नये राज्य बनाने की मांग को पुरजोर तरीके से उठाने का मौका मिल जायेगा. गुजरात में अलग सौराष्ट्र की मांग जारी है. उत्तर प्रदेश के चार हिस्सों में बंटवारे का प्रस्ताव मुख्यमंत्री रहते मायावती भेज ही चुकी हैं. जाहिर है कि कांग्रेस के लिए अलग राज्य की मंजूरी मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा है.
अलग राज्य की मांग के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे विकास की गति मिलेगी, पर ज्यादातर छोटे राज्यों के अनुभव इसकी पुष्टि नहीं करते. असल में हमारे विकास के मॉडल में ही खोट है. इसलिए अपने देश में ऐसी समस्याएं आती रहती हैं. हमारे सामने अमेरिका का उदाहरण है, जिसे बने 200 साल से ज्यादा हो गये. 200 साल पहले भी वहां 50 राज्य थे और आज भी वहां इतने ही राज्य हैं. काश! हमारे राजनेता यह समझते कि नये राज्य बनाने से ज्यादा जरूरी यह है कि विकास की नीतियों और मॉडल में बदलाव लाये जायें.
राज्य पुनर्गठन आयोगों का इतिहास
राज्य पुनर्गठन आयोगों का इतिहास करीब 110 साल पुराना है. सबसे पहले 1903 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार के गृहसचिव हर्बर्ट रिसले की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन समिति गठित की गयी थी. इसी समिति ने भाषाई आधार पर पश्चिम बंगाल के विभाजन की सिफारिश की थी, जिसके चलते 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था. चूंकि यह अंगरेजों की चाल थी और यह विभाजन जन आकांक्षा के खिलाफ था, लिहाजा इसका जोरदार विरोध हुआ.
कांग्रेस ने भी बंगभंग का जोरदार विरोध किया था. इसके आठ साल बाद 1911 में लॉर्ड हॉर्डिग की अध्यक्षता में एक आयोग बना, जिसने बंगाल के विभाजन को खत्म करने का सुझाव दिया. 1918 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमेटी की रिपोर्ट आयी थी. हालांकि इसने विधिवत आयोग की तरह काम नहीं किया था. लेकिन प्रशासनिक सुधारों के बहाने इसने छोटे-छोटे राज्यों के गठन का सुझाव जरूर दिया था, लेकिन उसने भाषाई और जातीय आधार पर इनके गठन को नामंजूर कर दिया था. इसके दस साल बाद मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी, जिसको कांग्रेस का समर्थन था. इस समिति ने भाषा, जनइच्छा, जनसंख्या, भौगोलिक और वित्तीय स्थिति को राज्य के गठन का आधार माना.
इसके दो साल बाद ही ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्टेट्यूटरी कमीशन का गठन किया. तब कांग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था, लिहाजा इस आयोग ने जाति, धर्म, आर्थिक हित, भौगोलिक एकता के साथ-साथ गांवों व शहरों के संतुलन को भी राज्य पुनर्गठन का आधार बनाया था. इसके एक साल बाद ही ओडोनील आयोग ने इसकी ही सिफारिशों को लागू करने का सुझाव दिया. 1936 का साल भारत में सरकारी तौर पर सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत के लिए याद किया जाता है. इसके पीछे भी अंगरेजों की नापाक मंशा थी. मुसलिम लीग ने इसी साल अलग देश का राग अलापना शुरू किया. इसी दबाव में संवैधानिक सुधार संयुक्त समिति गठित की गयी, जिसने सांप्रदायिक आधार पर सिंध प्रांत के गठन का सुझाव दिया. इसे फौरन लागू भी कर दिया गया.
1947 में आजादी मिलते ही भारत के सामने 562 देशी रियासतों के एकीकरण व पुनर्गठन का सवाल मुंह बाये खड़ा था. इसे ध्यान में रखते हुए इसी साल पहले दर आयोग गठित किया गया. फिर जेबीपी (जवाहर लाल नेहरू, बल्लभ भाई पटेल, पट्टाभिसीतारमैया) आयोग का गठन किया गया. दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था. उसका मुख्य जोर प्रशासनिक सुविधाओं को आधार बनाने पर था. हालांकि तत्कालीन जनाकांक्षाओं को देखते हुए ही तत्काल जेबीपी आयोग का गठन किया गया. जिसने प्रभावित जनता की आपसी सहमति, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवहार्यता पर जोर देते हुए भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का सुझाव दिया. जिसके फलस्वरूप सबसे पहले 1953 में आंध्र प्रदेश के तेलुगूभाषी राज्य के तौर पर गठन किया गया. तेलंगाना की मांग तब जोर पर नहीं थी. लेकिन जनाकांक्षाओं और प्रशासनिक सुविधाओं के आधार पर राज्यों के गठन की मांग उठती रही. इसे ध्यान में रखते हुए 1955 में फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया. इस आयोग के सदस्य थे केएम पणिक्कर और हृदयनाथ कुंजरू. इस आयोग ने राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक तथा वित्तीय व्यवहार्यता, आर्थिक विकास, अल्पसंख्यक हितों की रक्षा तथा भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया. सरकार ने इसकी संस्तुतियों को किंचित सुधार के साथ मंजूर कर लिया.
इसके बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम संसद ने पास किया. इसके तहत 14 राज्य तथा 9 केंद्र शासित प्रदेश बनाये गये. इसके बाद ही 1960 में बंबई राज्य को विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात का गठन हुआ. 1963 में नगालैंड गठित हुआ. 1966 में पंजाब का पुनर्गठन हुआ और उसे पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में तोड़ दिया गया. इसमें हिमाचल को केंद्रीय राज्य का दर्जा दिया गया. 1969 में असम के एक हिस्से को तोड़ कर मेघालय राज्य बना. 1971 में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया. 1975 में सिक्किम भारतीय संघ में शामिल हुआ. 1986 में मिजोरम राज्य और 1987 में अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा मिला. इसी साल गोवा को भारतीय संघ का 25वां राज्य होने का दर्जा मिला. 2000 में तीन और नये राज्य बने- छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड. इस समय भारत में 28 राज्य और सात केंद्रशासित प्रदेश हैं. तेलंगाना देश का 29वां राज्य होगा.