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प्रवासी सम्मेलन आज से: एक प्रवासी संन्यासी, खुद को सत्याग्रह में खपाया

आज सात जनवरी से प्रवासी दिवस की शुरुआत हो रही है़ गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के उपलक्ष्य में तीन दिनों तक यह आयोजन होना है़ गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे तो कई और प्रवासी भी अपना सबकुछ वहीं छोड़ कर भारत आ गये थ़े उन्हीं में एक सत्याग्रही भवानी […]

आज सात जनवरी से प्रवासी दिवस की शुरुआत हो रही है़ गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के उपलक्ष्य में तीन दिनों तक यह आयोजन होना है़ गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे तो कई और प्रवासी भी अपना सबकुछ वहीं छोड़ कर भारत आ गये थ़े उन्हीं में एक सत्याग्रही भवानी दयाल संन्यासी थ़े आइए, आज प्रवासी दिवस के पहले दिन दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद बिहार-झारखंड के हिस्से में अपना जीवन गुजारनेवाले एक सत्याग्रही संन्यासी को याद करते हैं, जिनके नाम पर आज भी दक्षिण अफ्रीका में तो कई संस्थान चलते हैं, लेकिन बिहार-झारखंड में कम ही लोग उन्हें जानते हैं.

निराला

यह अलग बात है कि दक्षिण अफ्रीका में संन्यासी के नाम पर कई संस्थान अब भी चलते हैं, लेकिन दक्षिण अफ्रीका को छोड़ कर जिस बिहार में उन्होंने अपना जीवन खपा दिया, वहां उन्हें जाननेवाले बहुत कम हैं. भवानी दयाल संन्यासी़ यही पूरा नाम था उनका़ नाम संन्यासी था लेकिन वे कोई साधु-संन्यासी नहीं थ़े वह एक कर्मयोगी थ़े. सत्याग्रही कर्मयोगी़ गांधी के सच्चे अनुयायी़ लेखक, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, हिंदी के महान सेवक, प्रकाशक, और भी बहुत कुछ़ भवानी दयाल संन्यासी उन चंद भारतीयों में शामिल थे, जिन्होंने महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में चलाये गये सत्याग्रह आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी. उन्होंने भारत ही नहीं दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी़ दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी से पहले सत्याग्रह का इतिहास लिख़े वहीं अपनी अनपढ़ पत्नी के साथ मिल कर ‘जगरानी प्रेस’ स्थापित किया और ‘हिंदी’ नाम से पत्रिका निकाल कर हिंदी का प्रसार-प्रचार करने में लगे रह़े भारत लौटे तो कई महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य किय़े

ऐसी ही कई जानकारियां है संन्यासी के बाऱे एक प्रवासी की आत्मकथा, उनकी जीवनी है जिसकी भूमिका राजेंदर बाबू ने लिखी थी़ वह किताब अब कहीं नहीं मिलती़ तीन साल पहले मोतिहारी के एक गांव कनछेदवा में समाजवादी राजनीतिक कार्यकर्ता प्रभातजी के सौजन्य से उसे देखने का मौका मिला था़ अदभुत आत्मकथा़ ईमानदारी से लिखी हुई आत्मकथा है यह़.

बिहार के कैमूर जिला के कुदरा से 10-12 किलोमीटर की दूरी बसे बहुआरा संन्यासी का पैतृक गांव था़ जन्म दक्षिण अफ्रीका के जर्मिस्टन में हुआ था़ पिता का नाम जयराम सिंह था और मां मोहिनी देवी थी़ पिताजी पहले अपने गांव में ही बनिहारी का काम किया करते थ़े गांव में अपमानित हुए, घर से भागे, दलाल ने फंसा कर दक्षिण अफ्रीका पहुंचा दिया़ गिरमिटिया बना कऱ वहां से लौटे तो जिस गांव में बनिहार थे, उसी गांव में जमींदार हो गय़े. संन्यासी को भी जमींदारी की कमान कुछ दिनों तक थमाने की कोशिश हुई, लेकिन यह उनके बूते की बात नहीं थी, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया था़ जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में अहम भूमिका निभायी़. वहां रोजगार के लिए उन्होंने धोबी का काम किया, फिर सोने की खान में मजदूर बने और रात में मजदूरी का काम करते, दिन में ‘सत्याग्रह का इतिहास’ लिखत़े गांधी से भी पहले दक्षिण अफ्रीका में चले सत्याग्रह का इतिहास उन्होंने ही लिखा़ जब संन्यासी भारत लौटे तो उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका तय की़ पहले तो उन्होंने अपने गांव बहुआरा में रहते हुए मुंबई के ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में पत्रकारिता शुरू की़ फिर प्रदेश के कोने-कोने में घूमने लगे और कोने-कोने में चल रहे आंदोलन को समझने की कोशिश में लगे रहे और उसमें अपना योगदान भी दिया़.

आंदोलनकारी गतिविधियों की वजह से 12 अप्रैल 1940 को संन्यासी को हजारीबाग जेल भेजा गया़ जेल जाने के बाद संन्यासी ने हस्तलिखित मासिक पत्रिका निकालने का विचार किया़ ‘कारागार’ नामक पत्र निकाला गया और उसके संपादन का भार संन्यासी को सौंपा गया़ मुजफ्फरपुर के मथुरा प्रसाद सिंह ‘कारागार’ के व्यवस्थापक बनाये गये और गिद्घौर के कुमार कालिका प्रसाद सिंह चित्रकाऱ महामाया प्रसाद सिंह ने भी दो अंकों के लेखन कार्य में योग दिया था़ हजारीबाग जेल के लिए यह कोई मामूली अखबार नहीं था़ इसमें राजेंद्र प्रसाद से लेकर बिहार के प्राय: सभी नेता लेख देते थ़े. ‘कारागार’ का पहला अंक ‘कृष्णांक’ था जो जन्माष्टमी के समय प्रकाशित हुआ था़ दूसरा अंक ‘दिवाली अंक’ था और तीसरा अंक ‘सत्याग्रह अंक’, जिसे बिहार प्रांत सत्याग्रह का विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास कहना चाहिए़ इस अंक में प्रांत के समस्त जिलों के नेताओं ने अपने-अपने जिले में सत्याग्रह संग्राम के तमाम उद्योगों का वर्णन किया था़ पहले दो अंक दो-दो सौ पन्ने की कापी में समाप्त हुए थे, पर सत्याग्रह अंक में इस प्रकार की चार कापियां लगी थीं.

कुल तीन अंक निकल पाये थे और बारह सौ पृष्ठ की साहित्यिक सामग्री संकलित हो गयी थी़ अंत में हजारीबाग जेल की इस सर्वश्रेष्ठ स्मृति ‘कारागार’ की कापियां बिहार-विद्यापीठ को भेंट कर दी गयीं, लेकिन बाद में वह वहां से गायब कर दी गयी़ संन्यासी जब जेल में बंद थे तो उस समय हजारीबाग जेल में डॉ राजेंद्र प्रसाद (बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति हुए), श्री कृष्ण सिंह, विनोदानंद झा, दीप नारायण सिंह ( ये तीनों नेता बाद में बिहार के मुख्यमंत्री हुए), सर्चलाइट के संपादक मुरली मनोहर प्रसाद, चंपारण के बैरिस्टर विपिन बिहारी वर्मा, मुजफ्फरपुर के श्रीरामदयालु सिंह समेत कई बड़े नेता बंदी थ़े

संन्यासी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘प्रवासी की आत्मकथा’ से मिलती है़ उस पुस्तक को देख कर पता चलता है कि संन्यासी का अंगरेजों के जमाने में क्या प्रभाव था़ जब 1939 में संन्यासी पर प्रेमशंकर अग्रवाल ने ‘भवानी दयाल संन्यासी- ए पब्लिक सर्वेंट ऑफ साउथ अफ्रीका’ नाम से किताब लिखी और उसे इंडियन कोलोनियल एसोसिएशन, इटावा के द्वारा प्रकाशित करवाया गया तो उस पुस्तक ने काफी लोकप्रियता अजिर्त की़ लेकिन तब तक अंगरेजों की नजर इस पर पड़ चुकी थी़ अंगरेजों ने भवानी दयाल संन्यासी पर लिखी हुई इस किताब की सारी प्रतियों को सदा-सदा के लिए जब्त कर लिया़ बाद में देश की आजादी के वर्ष यानी 1947 में संन्यासी ने फिर से अपने अनुभव और संस्मरण को एक आकार दिया. हालांकि जानकारी मिलती है उन्होंने 40 किताबें लिखी थीं, जिनके बारे में अब ठीक से किसी को पता नहीं चल पा रहा़ हालांकि अपनी आत्मकथा के अलावा ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’, ‘वर्ण व्यवस्था या मरण अवस्था’ आदि उनकी चर्चित किताबें रही़ शिवपूजन सहाय ने लिखा है कि संन्यासी की निजी लाइब्रेरी बेहद समृद्घ थी़ संन्यासी ने बाद में अपनी पुस्तकों को लाइब्रेरियों को दान किया और आखिरी समय में अजमेर में रहने लग़े अजमेर के प्रवासी भवन में ही 09 मई 1950 को इनकी मृत्यु हुई़

(लेखक तहलका से संबद्घ हैं)

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