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पत्रकारिता की शालीन शैली

।। रवि दत्त बाजपेयी ।। – प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की तीसरी कड़ी में आज आप रू-ब-रू होंगे पत्रिका ‘मेनस्ट्रीम ’ से. व्यावसायिक मीडिया की चकाचौंध से हट कर, इस पत्रिका की शुरुआत 1962 में निखिल चक्रवर्ती ने की. वर्तमान में पत्रिका के 8000-10,000 नियमित ग्राहक हैं. ये वही निखिल चकवर्ती हैं जिन्होंने 1959 में […]

।। रवि दत्त बाजपेयी ।।

– प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की तीसरी कड़ी में आज आप रू-ब-रू होंगे पत्रिका ‘मेनस्ट्रीम ’ से. व्यावसायिक मीडिया की चकाचौंध से हट कर, इस पत्रिका की शुरुआत 1962 में निखिल चक्रवर्ती ने की. वर्तमान में पत्रिका के 8000-10,000 नियमित ग्राहक हैं. ये वही निखिल चकवर्ती हैं जिन्होंने 1959 में नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई व उनके ट्रस्ट के घोटाले का परदाफाश किया, जिसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को भी अपना पद छोड़ना पड़ा था. –

निखिल चक्रवर्ती (1913-1998), बंगाल पुनर्जागरण से प्रभावित ब्रह्म समाज से संबंधित परिवार से थे और कलकत्ता-ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से अध्ययन के पश्चात वर्ष 1939 में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में इतिहास का अध्यापन का काम शुरू किया. चक्र वर्ती अपने विद्यार्थी जीवन से ही कम्युनिस्ट आंदोलन के समर्थक थे और इंग्लैंड में इनके सहपाठियों में ज्योति बसु और इंद्रजीत गुप्ता जैसे नामी कम्युनिस्ट शामिल थे. वर्ष 1943 में निखिल चक्रवर्ती भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने और अध्यापन का काम छोड़ कर पत्रकारिता में आ गये.

उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र का कलकत्ता (अब कोलकाता) प्रतिनिधि बनाया गया. अपने पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में ही बंगाल के भीषण अकाल ने निखिल चक्रवर्ती को भारत की आम जनता की दुश्वारियों का प्रत्यक्ष अनुभव दिया और इसके बाद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी में राजनीतिक पद-जिम्मेदारी के स्थान पर पत्रकारिता को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया.

वर्ष 1946 में ब्रिटिश सरकार ने निखिल चक्रवर्ती को उनके लेख ‘ऑपरेशन एसाइलम’ के लिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने इस लेख में ब्रिटिश सरकार की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने की एक गुप्त योजना का खुलासा किया था. वर्ष 1952 में जब उनकी पत्नी रेणु चक्रवर्ती भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से भारतीय लोकसभा की सदस्य चुनी गयीं,

तो निखिल चक्रवर्ती भी उनके साथ नयी दिल्ली आ गये. यहां पर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘द न्यू एज’ में योगदान देना जारी रखा और एक समय इसके संपादक भी बनाये गये. नयी दिल्ली में निखिल चक्र वर्ती ने ‘इंडियन न्यूज एजेंसी’ के नाम से एक फीचर समाचार सेवा की शुरु आत की. इस समाचार सेवा से निखिल चक्र वर्ती ने भारत के अनेक युवा पत्रकारों को प्रशिक्षित किया

इसी पत्रिका से उन्होंने वर्ष 1959 में जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई और उनके ट्रस्ट के घोटाले का परदाफाश किया, जिसके बाद उद्योगपति जगमोहन मूंदरा मामले का खुलासा हुआ और वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को भी अपना पद छोड़ना पड़ा. वर्ष 1962 में निखिल चक्र वर्ती ने ‘मेनस्ट्रीम ’ के नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका स्थापित की. अपने संस्थापक के कम्युनिस्ट रुझानों के बावजूद भी इस पत्रिका को अपने आरंभिक दिनों से ही निष्पक्ष, निर्भीक एवं संतुलित विश्‍लेषण के लिए जाना जाता था. भारतीय पत्रकारिता में विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक खेमेबंदियों के बीच निखिल चक्र वर्ती एवं ‘मेनस्ट्रीम ’ को ऐसे संकीर्ण वर्गीकरण से ऊपर रखा जाता था.

चक्रवर्ती, चीन में चेयरमैन माओ की (अ) साम्यवादी नीतियों के बेहद खिलाफ थे और उन्होंने मुखर रूप से अपना विरोध व्यक्त भी किया. 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण पर रूसी समाचार एजेंसी प्रावदा की चुप्पी की निखिल चक्र वर्ती ने कटु आलोचना की थी.

1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब भारत में आंतरिक आपातकाल घोषित करते हुए प्रेस सेंसरशिप लागू की, तो चक्रवर्ती ने ‘मेनस्ट्रीम ’ को विरोध का एक कारगर हथियार बना लिया. आपातकाल के दौर में अपनी पत्रिका के पहले अंक में उन्होंने संपादकीय लेख के स्थान पर रवींद्रनाथ टैगोर की पंक्तियां -‘भय से मुक्ति, हे मातृभूमि मैं तेरे लिए ऐसी मुक्ति मांग रहा हूं’- प्रकाशित की, आपातकाल में ही कांग्रेस नेता पीवी नरसिंह राव (बाद में भारत के प्रधानमंत्री) छद्म नाम से ‘मेनस्ट्रीम ’ में अपनी ही सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में लेख प्रकाशित करते थे.

आपातकाल की आलोचना करने के लिए चक्र वर्ती ने ‘क्या आज हमें नेहरू की आवश्यकता है?’ शीर्षक के अंतर्गत पिता और पुत्री की शासन रीति पर प्रहार किया था, लेकिन आपातकाल में सरकार के दमन के कारण कुछ दिनों के लिए ‘मेनस्ट्रीम ’ का प्रकाशन बंद करना पड़ा. आपातकाल के बाद निखिल चक्र वर्ती का संजय गांधी पर लेख ‘मारु ति टू माफिया: द संजय गांधी स्टोरी’ बेहद लोकप्रिय हुआ था.

1978 में निखिल चक्र वर्ती ने कम्युनिस्ट पार्टी से अपने संबंध समाप्त कर दिये, लेकिन भारत में सामाजिक-आर्थिक सुधारों के लिए वामपंथ के मूल सिद्धांतों में उनकी प्रतिबद्धता हमेशा बनी रही. निखिल चक्रवर्ती के लिए पत्रकारिता जीवन-यापन नहीं जीवन दर्शन थी. उन्होंने ‘मेनस्ट्रीम ’ के जरिये राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक मसलों पर अपने विचार प्रस्तुत किये और अपने लेखन को कभी भी उपदेशात्मक या नैतिक शिक्षाप्रद रूप नहीं दिया.

‘मेनस्ट्रीम ’ में उनके सहयोगियों के अनुसार निखिल दा ने संपादकीय दायित्व प्रत्येक लेखक को प्रदान किया था, यदि उन्हें किसी लेखक के विचारों से असहमति होती, तो वे न तो उस लेख में कांट-छांट करते और न ही उसे छपने से रोकते बल्कि उसका प्रतिवाद-प्रत्युत्तर एक अलग लेख लिख कर देते थे.

सभी प्रकार के विचारों को अपनी पत्रिका में स्थान देने और विरोध व्यक्त करने की शालीन-सविनय शैली के कारण ही निखिल चक्र वर्ती एवं ‘मेनस्ट्रीम ’, हर प्रकार की राजनीतिक विचारधारा को स्वीकार्य थे. आजीवन व्यवस्था विरोधी होने के बावजूद भी निखिल चक्रवर्ती हमेशा ही राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के बेहद आदरणीय बने रहे. वे उन बिरले लोगों में से थे जो राजनीति से पत्रकारिता में आये थे और भारत में निर्भीक-निष्पक्ष-निर्लिप्त पत्रकारिता के प्रतिमान बने रहे.

अपने व्यक्तित्व व कृतित्व के कारण ही निखिल चक्र वर्ती को प्रसार भारती परिषद् का अध्यक्ष भी बनाया गया, जहां उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के लिए बड़ी मशक्कत की.

वर्ष 1998 में निखिल चक्र वर्ती की मृत्यु के बाद इस पत्रिका को चलाने की जिम्मेदारी उनके पुत्र सुमित चक्रवर्ती उठा रहे हैं, ‘मेनस्ट्रीम ’ पत्रिका को बौद्धिक एवं वैचारिक अंतर्दृष्टि के लिए ‘इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के समकक्ष माना जाता है. अभी भारत में इसके 8000-10,000 नियमित ग्राहक हैं, लेकिन ग्राहक संख्या से कहीं ज्यादा यह पत्रिका भारत के व्यावसायिक मीडिया की चकाचौंध से हट कर, भारत की गंभीर, प्रासंगिक एवं अनिवार्य समस्याओं पर विचार एवं विश्‍लेषण का विश्वसनीय मंच प्रदान करती है.

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