दोमिनिक बाड़ा
रूगड़ा या पुटू विदेशों में भी मिलते हैं जैसे यूरोप और अमेरिका में. लेकिन इनका रंग एवं रूप कुछ अलग होता है. वहां के लोग इसे ‘ट्रफल’ के नाम से जानते हैं. वे लोग मानते हैं कि यह कुछ खास किस्म के पेडों के इर्द-गिर्द होता है, जैसे-चेस्टनेट, ओक, हेजेल और बीर्गच. अत: इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए वे लोग इन पेडों को ज्यादा संख्या में लगाते हैं.
यूरोप और अमेरिका का रूगड़ा भी जमीनदोज होता है और ऊपर से देखने पर पता ही नहीं चलता. इसे खोजने के लिए लोग पालतू कुत्तों और सूअरों को प्रशिक्षित करते हैं और उनका इस्तेमाल जगह का पता लगाने में करते हैं. कहा जाता है कि रूगड़ा हजारों सालों से धरती पर पैदा होते रहे हैं.
लेकिन काफी समय तक मनुष्य इससे अनजान था. सिर्फ जंगली जानवर इसको खाते थे. ऐसी किवदंती है कि सबसे पहले एक किसान ने अपने सूअर को इसे खाते देख लिया. किसान को आश्चर्य हुआ कि वह मरा नहीं. उस किसान ने उसे पका कर खाना शुरू किया. संयोग कहिए कि किसान को काफी वर्षों तक बाल-बो नहीं थे. बाद में उसके 13 बच्चे हुए. गांव में लोग मानने लगे कि रूगडे. में जरूर कोई विशेष बात है. तब से सभी इसे खाने लगे. इसका स्वाद सभी व्यंजनों से भित्र था.
अत: इसकी मांग बढ.ने लगी. विशेष कर यह उस वर्ग और धनी व्यक्तियों का खास व्यंजन बना. इसे पकाने की कई विधियां विकसित हुई जैसे तले अंडे और कलेजी के विभित्र व्यंजन, शाकाहारी और अन्य मांसाहारी भोजन आदि. चूंकि रूगड़ा सब समय उपलब्ध नहीं होता, उसका तेल निकाला जाने लगा. इस तेल में रूगड़े के सुगंध के साथ अन्य खूबियां होती हैं. इसे जैतून के तेल के साथ भी मिलाया जाने लगा, जिससे व्यंजन और स्वादिष्ट बने. रूगड़ा या पुटू झारखंड का वरदान है. पर हम इसे बचाये रखने के लिए क्या कर रहे हैं?