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आपदा के ‘पोस्टमार्टम’ में मीडिया का अंदाज

– उत्तराखंड की त्रासदी अभी सबसे ज्यादा चरचा में रहनेवाली खबर है. टेलीविजन पर और अखबारों में इस मुद्दे पर नेता और विशेषज्ञ विश्‍लेषण करने में लगे हैं. इस त्रासदी की जिस तरह से मीडिया में रिपोर्टिग हुई है और हो रही है, इस पर अब सवाल उठ रहे हैं. मीडिया ने सत्यान्वेषण की प्रक्रिया […]

– उत्तराखंड की त्रासदी अभी सबसे ज्यादा चरचा में रहनेवाली खबर है. टेलीविजन पर और अखबारों में इस मुद्दे पर नेता और विशेषज्ञ विश्‍लेषण करने में लगे हैं. इस त्रासदी की जिस तरह से मीडिया में रिपोर्टिग हुई है और हो रही है, इस पर अब सवाल उठ रहे हैं. मीडिया ने सत्यान्वेषण की प्रक्रिया को एक तमाशा बना दिया है. यह मानना है पत्रकारिता के गंभीर अध्येता संतोष झा का. वह अलग ढंग से सोचनेवालों में से हैं. पढ़िए उनकी विचारोत्तेजक टिप्पणी की पहली कड़ी. –

देहरादून : शब्दों के चयन, तार्किकता की सार्थकता एवं इस विवरण के मूल औचित्य को लेकर खुद असमंजस की स्थिति होने के बावजूद कहना पड़ता है-प्राकृतिक आपदा के तुरंत बाद, उसका विश्‍लेषण करना कुछ वैसा ही होता है जैसे लाश का पोस्टमार्टम करना.
यथार्थ की भयावहता, पोस्टमार्टम टेबल पर पड़े लाश की तरह ही होती है.

सब कुछ खुला पड़ा होता है, मुंह फेर लेने की गुंजाइश नहीं होती, सत्य अपनी पराकाष्ठा में, पूरी सृष्टि को समेट कर एक बिंदु पर ले आता है और यह बिंदु ही यथार्थ का अनंत विस्तार बन जाता है. कुछ पलों के बाद, भावनाओं की स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसी उस डॉक्टर की जो लाश को ‘सत्यान्वेषण के औजार’ के अलावा और कुछ देख-समझ नहीं पाता.

यह भावना, परिजनों की भावना से बिल्कुल अलग होती है. सत्यान्वेषण करना उतना ही दुरूह कार्य है, जितना परिजन के लिए सत्य को स्वीकार करना. शायद, पोस्टमार्टम करने वाला डॉक्टर बेहतर स्थिति में होता है, क्योंकि वह इसे नित्य व पेशेवर ‘आब्जेक्टिविटी’ के साथ करता है.

जो पोस्टमार्टम में तथ्य उभर कर सामने आते हैं, उन्हें स्वीकारना हमेशा ही मुश्किल होता है. जो सबसे निष्ठुर मगर शाश्वत यथार्थ है जीवन का, कि मानव काया सांसों का बेहद क्षीण अस्तित्व है और ताश के पत्तों की तरह पलक झपकते बिखर सकता है. प्रकृति का अपना यथार्थ भी ऐसा ही निष्ठुर सत्य है, जो आपदा के वक्त एक ‘बिंदु का विस्तार’ बन कर सामने आता है.

यहां, आपदाओं और उसको लेकर तैयारियों के अलावा जितने भी सत्य हैं या हो सकते हैं, उन पर चर्चा सब जगह हो रही है. कुछ नया नहीं है, पोस्टमार्टम की यही ‘प्रक्रिया’ है. प्रशासन, नेताओं, सरकारों और व्यवस्था के हर तंत्र को लेकर आम असंतोष, गुस्सा एवं विशेषज्ञों द्वारा ‘‘प्रीएम्पटिव व प्रोएक्टिव’’ एक्शन व प्लानिंग की निराशापूर्ण कमी की बातें होना बेहद लाजमी है. एक तरह से यह सब एक सालों-साल दुहराया जाने वाला ‘पोस्टमार्टम रिचुअल’ है.

अपना यह देश बेहद विशाल है और समस्याएं भी उतनी ही विशाल हैं, इसकी तो सबको जानकारी है. मगर, कि वे किस नेचर की हैं, कहां-कहां और किस स्वरूप में हैं, एवं, उनका ‘डायनामिक्स’ क्या व क्यों है, यह न ज्यादातर को पता है न उन्हें जानने-समझने की उत्सुकता है. यह भी बड़ा सत्य है कि आपदा की कौन कहे, सामान्य स्थितियों में भी आम आदमी से लेकर खास तक सब की अपेक्षाएं सिस्टम से बेहद विशाल हैं और निरंतर बढ़ती ही जा रही हैं.

इसलिए, अपने देश में किसी को भी नकारा और भ्रष्ट करार देने के लिए किसी को किसी विशेष ‘विशेषज्ञता’ हासिल करने की जरूरत नहीं पड़ती, आम ‘जेनेरिलिस्टिक गालियां’ देने का ‘प्रजातांत्रिक अधिकार’ सबको जन्म से ही प्राप्त है. यहां, हर इनसान ‘पोस्टमार्टम विशेषज्ञ’ की निष्ठावान हैसियत रखता है, बिना इस जवाबदेही के एहसास के, कि तारीफ करने में शायद न भी हो, मगर दोषारोपण करने के लिए ‘लाजिकल वेलीडिटी’ की शर्त होती है.

जो बात शायद आपदाओं के मलबे में दब जाती हैं, उन्हें अगर पोस्टमार्टम टेबुल तक नहीं लाया जाये तो यह अपने आप में समग्र यथार्थ से मुंह मोड़ने जैसा ही होगा. बात है पोस्टमार्टम करने वाले अति विशिष्ट डॉक्टर, यानी ‘मीडिया’ के भूमिका की. जो ‘परिजन’ हैं, इस तंत्र के पीड़ितों के, उनका भावनाओं में बह कर सत्य से मुंह मोड़ लेना संभवत: क्षम्य है, मगर जो तंत्र के विशेषज्ञ ‘पोस्टमार्टम-कर्ता’ हैं, उनका ‘लाजिकल वैलिडिटी’ से मुंह फेर लेना गुनाह ही कहा जा सकता है.

तो, बात क्या इस बात की हो, कि कैसे, भावनाओं के प्रवाह में बहता, अपनी निजी एवं संस्थागत प्राथमिकताओं की वजह से बंधे हाथों से सत्य को टटोलता एवं ‘पापुलिज्म’ की मांग के आगे अपनी ‘प्रोफेशनल एथिक्स’ को नतमस्तक करता मीडिया पूरे सत्यान्वेषण की प्रक्रिया को एक तमाशा बना रहा है? नहीं, यह बात नहीं.

यह सब भी तो एक तरह से सालों-साल दुहराया जाने वाले ‘पोस्टमार्टम रिचुअल’ का ही हिस्सा है, जिसकी चर्चा भी बेमानी ही लगती है. बात इस बात की, कि इस ‘मीडिया तमाशे’ का कितना भयावह एवं अपने आप में एक आपदा जैसा दुष्प्रभाव आम भारतीय मानसिकता, अवचेतन मन एवं चरित्र पर पड़ रहा है. बात इस बात की कि कैसे, किसी भी तरह से स्वयं को ‘जवाबदेह’ एवं ‘रेगुलेटेड’ न मानने की मीडिया की जिद के कारण, एक ‘अराजक लिबरल’ सोच व मानसिकता आम आदमी की ‘इंसटिंक्टिव फस्र्ट च्वाइस’ बनती जा रही है, जिसका शिकार हो रहा है जनतंत्र.

हालांकि, देखा जाय, तो यह चर्चा भी बेमानी ही होगी. किसी ने कहा, ‘इनसान जब इंटेलेक्चुअल हो जाता है तब सवाल अपनी मासूमियत खो देते हैं. इनसानी ‘इंवेंटिवनेस’, यानी, इनसान का आविष्कारिक दिमाग, हर सवाल का एक ‘स्मार्ट जवाब’ खोज लेता है और फिर ‘किलर इंसटिंक्ट’ के साथ यह जिद करता है कि यही स्मार्ट जवाब, वास्तव में ‘सही जवाब’ भी है.’’ इस ‘नारसिसिज्म’ का कोई काट हो ही नहीं सकता.

फिर भी, जो आपदा आयी है, उसने एक अवसर खड़ा किया है कि उन सवालों के वो जवाब भी चर्चा की कम से कम बाहरी परिधि में टटोले जायें, जो शायद स्मार्ट नहीं, सही होने की कमजोर ही सही, मगर वकालत करते हैं.

कभी, मीडिया की अपनी अंदरूनी व्यापक आचार-संहिता हुआ करती थी. सिखाया जाता था – पत्रकार की हैसियत से जब कर्तव्यपालन कर रहे हों, तब सामने पिता भी खड़े हो जायें तो पैर छूना तो दूर, नमस्कार भी नहीं करना. यानी, निष्ठा सिर्फ कर्तव्य के प्रति हो. कैसी भी विकट स्थिति हो, स्थिति को वैसे ही ‘आब्जेक्टिवली’ देखना जैसे सारथी बने कृष्ण महाभारत की लड़ाई को देखते थे. और, जो भी दिख रहा है, उसे बिना ‘निज’ भाव लाये, सिर्फ जो घटा है, उसे बताना.

सीनियर रिपोर्टर्स अपनी रिपोर्ट डेस्क को देकर स्वयं कहते, ‘‘यार देखना, जरा कड़ाई से एडिट करना, आज हाउस सेशन जरा मारामारी वाला था’’. पत्रकारिता में जो सबसे बड़ा गुनाह था, वह था ‘अतिरंजना’, आज यह बड़ा हुनर है. बाद के दिनों में एडिटर्स ही अपने रिपोर्टर्स को कहते, ‘‘क्या यार वेजिटेरियन टाइप की रिपोर्ट लिख मारे हो, जरा रंगीन बनाओ, नहीं तो सुबह सकरुलेशन वाले मां-बहन एक करेंगे’’.

इस बार मीडिया का जो ‘रंग’ उत्तराखंड आपदा में दिखा, जरा उसकी मिसालें देखिए. एक प्रमुख नेशनल चैनल के रिपोर्टर, जो स्वयं घटना के तीसरे दिन तक भी केदारनाथ से सौ किलोमीटर दूर तक ही पहुंच पाने में कामयाब हो पाये थे, वे इल्जाम लगा रहे थे कि तीन दिन हो गये, पर प्रशासन अभी तक सभी पीड़ितों को निकाल नहीं पा रहा.

हकीकत यह थी कि मीडिया स्वयं आपदा क्षेत्र तक न पहुंच पा रही थी, न ही नेशनल मीडिया के लोगों को यहां की बेहद दुर्गम ‘टोपोग्राफी व टेरेन’ का कोई अंदाज था. लोग न मानें, ऐसी विकट व अप्रत्याशित आपदा तथा बेहद दुर्गम जगहों पर फंसे रहने के बावजूद जिस तरह से प्रशासन, सेना, पुलिस व बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के लोगों ने बचाव व राहत कार्य किया, उसकी मिसाल अब तक भारत में नहीं मिलेगी.
जरा परिस्थितियों की चर्चा करें.

जो उत्तराखंड के चार धाम नहीं गये हैं, उनके लिए नामुमकिन है यह समझ पाना कि न सिर्फ केदारनाथ, बल्कि बद्रीनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री के अलावा 35,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले क्षेत्र में लगभग हर जगह फंसे लगभग 1,00,000 से अधिक तीर्थ यात्रियों के अतिरिक्त लाखों स्थानीय लोगों को 72 घंटों में सुरक्षित निकाल पाना कितनी बड़ी चुनौती थी. ये लाखों लोग किसी एक जगह नहीं फंसे थे. कुछ सैकड़े की तादाद में पूरे 35,000 वर्ग किमी क्षेत्र में थे.

जिन्हें हिमालय के ऊपरी श्रृंखलाओं की ‘टोपोग्राफी एवं टेरेन’ की जानकारी नहीं, वे अंदाजा नहीं लगा सकते कि जब आवाजाही का एकमात्र जरिया, सड़कें व पुल 60 से 70 प्रतिशत तक क्षतिग्रस्त हो चुके थे, हेलीकॉप्टर तक उतर पाने की स्थिति में नहीं थे, आम तौर पर हादसों और आपदाओं में स्थानीय लोग मदद को आगे आते हैं, मगर वे खुद पीड़ित थे, तब किस बहादुरी और दूरअंदेशी से सेना, पुलिस व प्रशासन ने बचाव व राहत कार्य को अंजाम दिया.

मगर ऐसे में भी, मीडिया ने अपने चिरपरिचित अंदाज में वही किया जो सबसे आसान काम है और हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है – चिल्ला-चिल्ला कर शोर मचाना कि पूरा तंत्र नकारा है और कहीं कुछ भी ठीक नहीं हो रहा.

जरा समझने की कोशिश करें कि क्यों होता है हकीकत और मीडिया के नजरिये में बड़ा फर्क. केदारनाथ में, जहां सबसे ज्यादा असर था आपदा का, वहां घटना के कुछ घंटे बाद एक छोटा हेलीकॉप्टर आता है, कुछ देर हवा में उड़ने के बाद बमुश्किल एक जगह लैंड करता है. कुछ लोग उतरते हैं और फिर वापस बैठ कर उड़ जाते हैं.

अगर इस वक्त मीडिया वाले वहां फंसे लोगों से पूछेंगे तो सभी एक सुर में शोर मचायेंगे कि प्रशासन कितना निर्दयी है कि कुछ नहीं किया और अधिकारी ‘तफरीह’ करके चले गये. इसे ही पेश करना अब मीडिया का ‘स्मार्ट च्वाइस’ बन गया है. (जारी)

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