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दवा कंपनियों को राहत आम आदमी पर आफत

बीते सोमवार की रात को, दवाओं की कीमतों के नियामक, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सबको चौंका दिया. उसने उन 108 दवाओं को नियंत्रण से मुक्त कर दिया है, जिन्हें उसने दो महीने पहले ही ‘जनहित’ के आधार पर मूल्य नियंत्रण के तहत लिया था. उसने इसकी कोई […]

बीते सोमवार की रात को, दवाओं की कीमतों के नियामक, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सबको चौंका दिया. उसने उन 108 दवाओं को नियंत्रण से मुक्त कर दिया है, जिन्हें उसने दो महीने पहले ही ‘जनहित’ के आधार पर मूल्य नियंत्रण के तहत लिया था. उसने इसकी कोई वजह नहीं बतायी. सिर्फ इतना कहा कि भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रलय के औषधि विभाग से उसे ऐसा करने का आदेश मिला था. जिन 108 दवाओं को वापस नियंत्रण-मुक्त किया गया, वो दवाएं दिल की बीमारियों, हाइपरटेंशन, शुगर से जुड़ी हैं. इन दवाओं का बहुत सारे लोग नियमित इस्तेमाल करते हैं. यानी, मध्यवर्ग जिन दवाओं के सस्ती होने की उम्मीद लगाये बैठा था, सरकार ने उसे झटका दे दिया. दूसरी तरफ दवा कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो गयी है. वे एनपीपीए के फैसले से काफी नाखुश थीं और अदालत भी गयी थीं.

सेंट्रल डेस्क

18 जुलाई, 2014 : रसायन एवं उर्वरक राज्य मंत्री निहाल चंद ने राज्यसभा में पूछे गये महंगी दवाओं से जुड़े एक सवाल का जो लिखित उत्तर दिया, उस पर गौर करने की जरूरत है. उन्होंने कहा था- ‘‘मधुमेह और हृदय रोग के उपचार से संबंधित गैर-अधिसूचित 108 दवाओं के संदर्भ में अधिकतम खुदरा कीमत की सीमा तय करने के लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की दखल के परिणामस्वरूप इन दवाओं की कीमतों में लगभग 01 प्रतिशत से लेकर 79 प्रतिशत तक कमी आयी है. ये 108 दवाएं आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिल नहीं हैं और औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन इनकी कीमतों में कमी की गयी है.’’

22 सितंबर, 2014 : केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रलय के तहत आने वाले औषधि विभाग ने राष्ट्रीय सूची के बाहर की दवाओं की कीमत पर किसी भी तरह के नियंत्रण पर रोक लगा दी. एनपीपीए को जारी आदेश में कहा गया है कि वह सिर्फ सूचीबद्ध दवाओं की कीमत में ही दखल दे. इसके बाद बीते सोमवार (22 सितंबर) को मंत्रलय के आदेश का पालन करते हुए एनपीपीए ने 29 मई 2014 को, औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन जारी अपना पुराना आंतरिक दिशा-निर्देश वापस ले लिया. यह दिशा-निर्देश गैर-सूचीबद्ध दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण से जुड़ा था. एनपीपीए ने पिछले महीने, 10 जुलाई को ऐसी 108 दवाओं की अधिकतम कीमत तय की थी. ये दवाएं मुख्य रूप से मधुमेह, दिल की बीमारियों, कैंसर व एचआइवी/एड्स की हैं, जिनका भारत में काफी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है.

मंत्री महोदय केजवाब में दो बातें बिल्कुल साफ थीं- 1. एनपीपीए के दखल से गैर-सूचीबद्ध 108 दवाओं के दाम गिरे थे. 2. कीमतों में की गयी कमी कानून के मुताबिक थी. फिर दो महीने में ही ऐसा क्या हुआ कि सरकार बिल्कुल उलटी दिशा में मुड़ गयी.

दवा कंपनियों के दबाव में कतरे गये एनपीपीए के पर

औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 2013 के तहत आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) में शामिल 348 मूल दवाओं और इनके संयोजन (कांबीनेशन) से बनने वाली दवाओं को मिला कर कुल 652 दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाया गया. इस आदेश के तहत दवाओं के दाम तय करने के लिए तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार की अगुवाई में बनी एक समिति ने फामरूला तय किया था. इसी आदेश में यह व्यवस्था भी की गयी थी कि एनपीपीए सूचीबद्ध आवश्यक दवाओं के अलावा जरूरत पड़ने पर अन्य दवाओं के दाम भी तय कर सकता है. बड़ी तादाद में ऐसी दवाएं है जो आवश्यक सूची से बाहर हैं, पर जिनका लोगों को नियमति सेवन करना पड़ता है. एनपीपीए ने उपयरुक्त अधिकार का प्रयोग करते हुए ऐसी 108 दवाओं के दाम कम कर दिये थे. इससे दवा कंपनियां बौखला गयी थीं और वह सरकार पर इस इंतजाम को खत्म करने का दबाव डाल रही थीं. लगता है कि सरकार इसी दबाव में झुक गयी और उसने एनपीपीए के पर कतरने का आदेश दे दिया. अब यह प्राधिकरण एनएलईएम से बाहर की दवाओं के दाम नहीं तय कर पायेगा. दवा कंपनियां इन दवाओं को मनचाही कीमत पर बेच सकेंगी.

क्या एनपीपीए ने अपनी शक्ति को गलत समझा था?

इकनॉमिक टाइम्स के मुताबिक, नौ पेज के एक दस्तावेज में सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने औषधि विभाग को बताया है कि जुलाई में एनपीपीए ने 108 दवाओं की कीमतें नियंत्रित करने का जो आदेश दिया था, वह औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 2013 के मुताबिक नहीं है. कुमार ने कहा है कि एनपीपीए ने जिस शक्ति का इस्तेमाल इस मामले में किया था, उसे महामारी और जीवन रक्षक दवाओं की कम आपूर्ति जैसी खास स्थितियों में ही ‘जनहित’ में इस्तेमाल करना चाहिए. हालांकि एनपीपीए ने अपने बयान में दिशा-निर्देश वापस लिये जाने की कोई वजह नहीं बतायी है. उसने सिर्फ इतना कहा है कि औषधि विभाग के कहने पर ऐसा किया जा रहा है. इस मामले का असर यह हो सकता है कि एनपीपीए आगे चल कर एनएलक्ष्एम से बाहर वाली दवाओं की कीमत शायद ही नियंत्रित करने की कोशिश करे. सरकारी अफसरों का कहना है कि एनपीपीए और औषधि विभाग के बीच ‘जनहित’ में विशेष प्रावधान के इस्तेमाल को लेकर विवाद था. विभाग ने इस मामले में सॉलिसिटर जनरल से कानूनी राय मांगी थी.

किन दवाओं की कीमतों पर है सरकारी नियंत्रण

केवल उन्हीं दवाओं की कीमतों पर सरकारी नियंत्रण है, जो आवश्यक दवाओं की सूची (एनएलईएम) में शामिल हैं. ये सभी जेनरिक दवाएं हैं. अन्य सभी दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे से बाहर रखा गया है, जिनमें पेटेंट दवाएं भी शामिल हैं. फिलहाल 79,000 करोड़ रुपये के घरेलू दवा बाजार का 30 फीसदी हिस्सा सरकारी नियमन के दायरे में है. सूची में शामिल 348 आवश्यक दवाओं के मूल्य में सालाना थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर इजाफा किया जाता है. अन्य दवाओं के मामले में कंपनियां साल में 10 फीसदी तक दाम बढ़ाने के लिए स्वतंत्र हैं.

मूल्य नियंत्रण सूची से कई जरूरी दवाएं बाहर

जानकारों के मुताबिक 80 फीसदी दवाएं दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013 के तहत आती ही नहीं हैं. कैंसर रोधी दवाएं, महंगे एंटीबायोटिक और अंग प्रत्यारोपण के लिए जरूरी दवाओं समेत अनेक जीवन रक्षक दवाएं भी डीपीसीओ 2013 के दायरे में नहीं हैं. एनएलईएम, 2011 में 348 दवाएं शामिल हैं, लेकिन यह सूची बहुत ही अव्यावहारिक है. क्योंकि इन दवाओं के संयोजन से बननेवाली अनेक दवाएं इस सूची शामिल नहीं हैं. उदाहरण के लिए, टीबी की दवाएं मूल्य नियंत्रण सूची में हैं, लेकिन इनके संयोजन को इस सूची से बाहर रखा गया है. बहुत सी दवाएं, जैसे संक्रमण रोधी तत्व अमिकासिन और एंटीबायोटिक सायक्लोसरीन, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की आवश्यक दवा सूची में शामिल हैं लेकिन इन्हें भारत की आवश्यक दवा सूची में स्थान नहीं दिया गया है.

भारत में मधुमेह और हायपरटेंशन के मरीज बहुत अधिक हैं, लेकिन इसकी दवाएं डीपीसीओ से बाहर हैं. दवा बाजार में इन दोनों बीमारियों की दवाओं की हिस्सेदारी तकरीबन 45 फीसदी है.

लागत से नहीं, बाजार से तय होते हैं दवाओं के दाम

कुछ साल पहले तक आवश्यक दवाओं की कीमत का निर्धारण लागत के आधार पर किया जाता था. इसे कॉस्ट बेस्ड प्राइसिंग (सीबीपी) कहा जाता था. अब यह काम बाजार के आधार पर किया जा रहा है. इसे मार्केट बेस्ट प्राइसिंग (एमबीपी) कहा जाता है. सीबीपी के तहत दवा के निर्माण में आयी कुल लागत में एक निश्चित सीमा तक मुनाफा जोड़ कर उसका खुदरा भाव तय किया जाता था. इसके लिए एनपीपीए दवा निर्माताओं की इकाइयों में सीधे जाकर दवा निर्माण में आने वाली लागत के आंकड़े एकत्र करता था. लेकिन दवा कंपनियों का हित साधने के लिए, 2011-12 की शुरु आत में कॉरपोरेट मामलों के मंत्रलय ने सभी कंपनियों, जिनमें दवा निर्माता कंपनियां भी शामिल थीं, को उत्पाद बनाने में आयी लागत के आंकड़े जारी करने का निर्देश दिया. इससे दवा कंपनियां को दावं-पेच कर लागत मूल्य बढ़ा कर बताने का मौका मिल गया. इसके बाद दवा कंपनियों द्वारा लागत के उपलब्ध कराये गये आंकड़ों पर दवाओं के खुदरा दाम तय होने लगे.

नयी औषधि नीति, 2012 के तहत आवश्यक दवाओं के दाम तय करने के लिए एमबीपी प्रणाली अपनायी गयी. नीति लागू करने से पहले हुए विचार-विमर्श में बड़े और मझोले दवा उत्पादक एमबीपी प्रणाली के पक्ष में थे, जबकि छोटे औद्योगिक संस्थान सीबीपी प्रणाली को यथावत रखने के पक्ष में थे. लेकिन, सरकार ने छोटी कंपनियों की नहीं, बड़ी और मझोली कंपनियों के हित वाली बात मानी. एमबीपी को अपनाने के पीछे सरकार का तर्क था कि वर्ष 2015 के अंत तक अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों में लगभग 300 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य की दवाएं पेटेंट से बाहर होंगी. सीबीपी लागू होने से निर्यात की संभावनाओं का लाभ देश नहीं उठा पायेगा. नयी नीति की मदद से कंपनियों को खुद को उचित मूल्य बैंड में रखने का पर्याप्त अवसर मिलेगा, जिससे वे वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा का भी सामना कर सकेंगी.

आज आवश्यक दवाओं की कीमत का निर्धारण निम्न फॉर्मूले के आधार पर हो रहा है :

(बाजार में संबंधित दवा की बिक्री में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाली तीन कंपनियों का भारित औसत मूल्य (डब्लूएपी) + बाजार में एक प्रतिशत या उससे ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाली कंपनियों का डब्लूएपी)/दवा का उत्पादन करने वाले उत्पादकों की कुल संख्या.

दवाओं की कीमत निर्धारण के नये तरीके से जनता को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है. सिप्रोफ्लॉक्सिन नामक एंटीबायोटिक दवा बाजार में एक कंपनी 9.79 रु पये में बेचती है, वही दवा बाजार में सबसे •यादा हिस्सेदारी रखने वाली कंपनी 73.30 रुपये में बेचती है. बाजार में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाली तीन सबसे बड़ी कंपनियों की औसत कीमत 67 रुपये और एक प्रतिशत या उससे ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाली कंपनियों की औसत कीमत 50.40 रुपये है. लागत आधारित व्यवस्था के तहत इस दवा की कीमत 26.57 रुपये होती है, जबकि बाजार आधारित व्यवस्था के तहत यह कीमत 58.70 रुपये है. यानी, सरकार दवा कंपनियों को दुगने से भी ज्यादा मुनाफा बनने की कानूनी छूट दे रही है.

मूल्य निर्धारण के तरीके में कई विसंगतियां

बाजार आधारित मूल्य निर्धारण में कई विसंगतियां हैं. बाजार में ऐसी कई दवाएं हैं जिसकी कीमत दोषपूर्ण है. उदाहरण के तौर पर एमॉक्सीसीलिन 250 एमजी के दस कैपसूलों की कीमत 28.98 रु पये है, जबकि इसी दवा के 500 एमजी के 10 कैपसूलों की कीमत 63.74 रु पये है. अगर, दोनों में साल्ट के वजन की तुलना की जाये, तो 500 एमजी की दवा का दाम अधिक से अधिक दुगना होना चाहिए. पर यह दुगने से ठीकठाक ज्यादा है.

इसी तरह, जेनूविया मेडिसिन-25 एमजी के 7 टेबलेट की संशोधित कीमत 239 रु पये है. यही दवा 50 एमजी में खरीदने पर 269 रु पये में मिलती है. यहां फर्क इतना कम होने का कोई तर्क नहीं है. लेवेसेम की कीमत 250 एमजी में 56 रुपये है. 500 एमजी में इसकी कीमत बढ़ कर 184 रु पये हो जाती है. यहां फर्क इतना ज्यादा होने का कोई तर्क नहीं है.

एक ही साल्ट की दवाओं में ब्रांड का नाम बदलते ही उनके दाम में भारी अंतर आ जाता है. सेफ्टम और सेरोक्सिम में एक ही साल्ट है. 500 एमजी की सेफ्टम की एक गोली जहां 86 रु पये की है, वहीं इसी खुराक की सेरोक्सिम की एक गोली की कीमत महज 25 रुपये है. करीब एक दर्जन दवाओं की कीमतों में ऐसा घालमेल दिखायी देता है.

नियामक को ठेंगा दिखातीं कंपनियां

1997 में अपने गठन से लेकर 31 जुलाई 2014 तक, एनपीपीए ने निजी दवा कंपनियों के खिलाफ दवाओं के लिए तय सीमा से ज्यादा दाम उपभोक्ताओं से लेने के 1043 मामले दर्ज किये. उसने साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की वसूली का नोटिस कंपनियों को दिया. लेकिन, अभी तक मात्र 341 करोड़ रुपये की वसूली हो पायी है. यानी, महज 10 फीसदी. जबकि कंपनियां एनपीपीए को ठेंगा दिखा कर अब भी बाजार में जमी हुई हैं. कंपनियां वसूली के मामले को कानूनी पचड़ों में फंसा कर बरसों लटकाये रहती हैं. कॉरपोरेट मंत्रलय की लागत लेखा शाखा ने पाया है कि कई दवाओं को उनके लागत मूल्य से 1100 फीसदी से ज्यादा के मुनाफे पर बाजार में बेचा जा रहा है.

इंदिरा के दौर के बाद शुरू हुआ बड़ा ‘खेल’

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री की कुरसी संभाली. राजीव गांधी के समय से ही आर्थिक उदारवाद का दौर शुरू हुआ. इसी का असर था कि ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (डीपीसीओ) के तहत आने वाली दवाओं की संख्या में लगातार कमी आने लगी. 1979 में डीपीसीओ के तहत 347 दवाएं आती थीं, जो 1987 में घट कर 142 और 1995 में घट कर केवल 76 तक पहुंच गयीं. 2002 में जो नीति प्रस्तावित थी, उसमें मूल्य नियंत्रण के तहत आनेवाली दवाओं की संख्या सिर्फ 35 रखी गयी थी. लेकिन, जागरूक समाज के लोगों ने इसका विरोध किया. 2003 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने प्रस्तावति नीति पर रोक लगा दी. 2012 में दवाओं के मूल्य को लेकर बनी राष्ट्रीय नीति, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का ही परिणाम है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सभी जीवन रक्षक दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाने का निर्देश दिया. सन 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रलय को आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) जारी करने का निर्देश दिया. सरकार ने एनएलईएम-2011 जारी की. लेकिन, 2012 की नयी दवा नीति में नियंत्रित दवाओं का मूल्य तय करने का ऐसा फारमूला तैयार किया गया, जिससे मूल्य नियंत्रण ज्यादा कारगर साबित नहीं हुआ.

पेटेंट दवाएं

पेटेंट दवाएं वो होती हैं, जिनका कोई कंपनी या संस्था विकास करने के बाद पेटेंट हासिल करती हैं. इस दवा को इसका विकास करने वाली कंपनी के अलावा और कोई नहीं बना सकता. पेटेंट 20 साल के लिए दिया जाता है. विश्व व्यापार संगठन (डब्लयूटीओ) के प्रावधानों के अनुसार, कोई देश अनिवार्य लाइसेंसिंग के नियम का इस्तेमाल करके बहुत जरूरी होने पर पेटेंट दवा को बनाने की अनुमति किसी दूसरी कंपनी को भी दे सकता है. जैसा कि भारत सरकार ने जर्मनी की बायर कंपनी की कैंसर की दवा नैक्सावर के मामले में किया था. इससे नैक्सावर की एक महीने की दो लाख 80 हजार रु पये में मिलने वाली खुराक के दाम अब करीब 33 हजार रु पये हो गये हैं. नैक्सावर को भारत में बनाने का अधिकार हैदराबाद की नैटको कंपनी को दिया गया है. सरकार के इस फैसले का बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने भारी विरोध किया था. पेटेंट दवाएं तुलनात्मक रूप से महंगी होती हैं. इसकी वजह है, इनके शोध में लगने वाली मेहनत और पैसा. किसी-किसी दवा के विकास में 100 अरब डॉलर से भी ज्यादा खर्च हो जाते हैं. दवा उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि यदि ऐसी दवाओं के दाम ज्यादा नहीं रखे जायेंगे, तो लागत भी नहीं निकल पायेगी. वहीं, आम जनता और तमाम स्वयंसेवी संगठन अरसे से पेटेंट दवाओं को भी मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाने की मांग कर रहे हैं.

जेनरिक दवाएं

अनुसंधान करने वाली कंपनी का जब पेटेंट का समय खत्म हो जाता है, तब उस साल्ट की नकल करके जो भी दवाएं बनती हैं उसे जेनेरिक कहा जाता है. पर जेनेरिक का यह मतलब कतई नहीं है कि इसमें ब्रांड का कोई मायने नहीं है. जेनरिक दवाओं में बड़े ब्रांड का बोलबाला रहता है. जितना बड़ा ब्रांड, उतनी महंगी दवा. एक जेनेरिक दवा की कीमत 50 पैसे है, तो उसी फारमूले की दूसरी कंपनी की दवा की कीमत 15 रु पये है. यही वजह है कि जेनरिक दवाओं पर मूल्य नियंत्रण का पूरा लाभ आम जनता को नहीं मिल पा रहा है. अब अगर 15 रु पये वाली दवा पर 50 फीसदी की कटौती भी कर दी जाये, तो भी जनता को यह दवा महंगी ही पड़ेगी. इसलिए सरकार को कोई ठोस व्यवस्था करनी चाहिए. जेनेरिक दवाओं के दाम तय होने चाहिए और दामों की निगरानी करने के लिए टीम बनानी चाहिए, तभी जेनेरिक का फायदा आम जनता को मिल पायेगा.

एनपीपीए

औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 1995 के तहत भारत सरकार ने राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) का गठन सन 1997 में किया. यह मूल दवाओं (बल्क ड्रग्स) और उनसे बननेवाली दवाओं (फारमुलेशन्स) की कीमतें तय करता है. जरूरत पड़ने पर कीमतों में संशोधन करता है. निर्धारित कीमतों को लागू कराना और देश भर में दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी इस प्राधिकरण का काम है. अगर दवा निर्माता उपभोक्ताओं से नियंत्रित दवाओं का तय सीमा से ज्यादा दाम लेते हैं, तो एनपीपीए इसकी वसूली निर्माताओं से करता है. जो दवाएं नियंत्रण से मुक्त हैं, प्राधिकरण उनकी भी निगरानी करता है, ताकि उनकी कीमतों को वाजिब स्तर पर रखा जा सके.

एनएलइएम, 2011

सभी को जीवनरक्षक दवाएं वाजिब कीमत पर मिल सकें, इसके लिए भारत सरकार का स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) तैयार करता है. ऐसी पहली सन 1996 में बनायी गयी थी. इसके बाद इसे 2003 में संशोधित किया गया. कई बैठकों और सलाह-मशविरे के लंबे दौर के बाद इस सूची को तीसरी बार 2011 में संशोधित कर अपडेट किया गया.

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