वैश्विक पर्यावरण के संदर्भ में पिछले दिनों एक अच्छी खबर आयी है कि ओजोन की परत के छेद में कमी आ रही है. हालांकि दूसरी ओर एक निराशाजनक खबर भी आयी है कि भारत समेत एशिया के कई इलाकों में ओजोन प्रदूषण के कारण फसलों का उत्पादन प्रभावित हो रहा है. क्या है ओजोन, कैसे होता है इसका निर्माण और क्षय, कैसे जाना गया ओजोन परत में सुधार के लक्षणों को, भारत में किस तरह हो रहा है फसलों को नुकसान के साथ, वैश्विक ओजोन संकट के संदर्भ में बेहद अहम रहे मान्ट्रियल समझौते के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज…
।। कन्हैया झा ।।
सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोकनेवाली ओजोन परत में पिछले कुछ दशकों के दौरान हुए क्षय (डिप्लेशन) में सुधार के लक्षण पाये जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि 1970 के दशक में अंटार्कटिका के ऊपर आसमान में ओजोन परत में हुए छेद में अब सुधार हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और वर्ल्ड मीटीयोरो-लॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएमओ) के मुताबिक, ओजोन परत में पूर्व में हुई क्षति में निरंतर सुधार हो रहा है और उम्मीद की जा रही है कि 2050 तक यह पूरी तरह से ठीक हो जायेगा. दरअसल, ओजोन परत में निरंतर क्षय का पता चलने पर 1980 के दशक में यह समस्या एक बड़ी पर्यावरणीय चुनौती के रूप में उभर कर सामने आयी थी.
वायुमंडल के ऊपरी स्तरों पर ओजोन एक ह्यस्क्रीनह्ण का निर्माण करता है, जो सूर्य से आनेवाली घातक किरणों को धरती पर आने से रोकता है. ओजोन परत में व्यापक क्षय के कारण ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत दक्षिणी गोलार्ध के अनेक देशों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हो गयी थीं. भौगोलिक रूप से ये देश अंटार्कटिका के नजदीक स्थित हैं. डब्ल्यूएमओ के महासचिव माइकल जेराउड का कहना है कि ओजोन परत में सुधार के लिए शुरू किये गये अंतरराष्ट्रीय प्रयासों ने सफलता की बड़ी इबारत लिखी है. पहली बार ओजोन की परत में वैश्विक स्तर पर कुछ मात्रा में बढ़ोतरी के लक्षण देखे गये हैं. उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2025 तक ओजोन परत की छिद्र कम दायरे में सीमित रह जायेगी.
* क्या है ओजोन
ओजोन एक हल्के नीले रंग की गैस है. यह ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं का यौगिक है. वातावरण के ऊपरी भाग में सूर्य की उच्च घनत्व वाली पराबैंगनी किरणों से क्रिया करके ऑक्सीजन के तीनों परमाणु एक साथ जुड़ जाते हैं. यह गैस एटमॉस्फीयर, ट्रोपोस्फीयर और स्ट्रैटोस्फीयर में एक समान रूप में पायी जाती है. ओजोन परत जमीन से 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की ऊंचाई के बीच स्ट्रैटोस्फीयर (समताप मंडल) में पायी जाती है. इस ऊंचाई पर वायु में ओजोन का अनुपात पृथ्वी के वातावरण में पाये गये अनुपात से काफी ज्यादा होता है. यह गैस सूर्य से आने वाली पराबैंगनी-बी किरणों के लिए एक अच्छे फिल्टर का काम करती है. स्ट्रैटोस्फीयर में स्थित ओजोन परत पराबैंगनी किरणों का अधिकांश भाग रोक देती है और महज दो से तीन फीसदी हिस्सा ही पृथ्वी की सतह तक पहुंच पाता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ओजोन परत के नष्ट होने से सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी किरणों के चलते धरती बंजर और वीरान हो सकती है. इससे त्वचा कैंसर का खतरा भी बढ़ जाता है.
* ओजोन निर्माण और क्षय
ओजोन परमाणुओं के बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सूर्य से आनेवाली विविध प्रकार की अल्ट्रावायलेट किरणों से यह नष्ट होती रहती है. सामान्य तौर पर इसके निर्माण और विघटन का संतुलन बना रहता है, इसलिए अमूमन इसका स्तर स्थिर रहता है. मान लीजिए कि एक बाल्टी में रखी पानी का स्तर ओजोन की मात्रा है, जिसकी तली में छेद है और उसके ऊपर एक टैंक में पानी रखा हुआ है. जब आप उसमें लगे हुए नल से पानी निकालेंगे, तो पायेंगे कि बाल्टी के पानी का स्तर अब भी समान बना हुआ है. यदि पानी निकलने और भरने की मात्रा समान हो तो बाल्टी में पानी का स्तर एकसमान बना रहेगा. अब यहां नोट करनेवाली बात यह है कि बाल्टी के पानी की एकरूपता बरकरार नहीं रहने के कारण अंटार्कटिका का ओजोन छिद्र सामने आया. हालांकि, यह इस उदाहरण की भांति कोई भौतिक छेद नहीं है, जिससे होकर पानी का रिसाव होता हो.
इस मामले में एक मुश्किल यह है कि इसका निर्माण भी सूर्य द्वारा ही होता है. दरअसल, सूर्य से हासिल होनेवाली ऊर्जा से ही ओजोन निर्माण की प्रक्रिया पूरी होती है. इसका निर्माण भी प्राकृतिक रूप से ही होता है और ऐसा कोई तरीका भी नहीं है, जिससे प्राकृतिक ओजोन उत्पादन प्रक्रिया के स्थान पर कृत्रिम तरीके से इसका निर्माण किया जा सके.
क्लोरीन और ब्रोमीन दो ऐसे तत्व हैं, जो इस छेद को बढ़ाने में सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं. चूंकि कृत्रिम तरीके से ओजोन का निर्माण नहीं किया जा सकता, इसलिए इसका समाधान यही है कि इसकी परत को कम से कम नुकसान पहुंचाया जाये. वायुमंडल में क्लोरीन और ब्रोमीन को कम मात्रा में छोड़ने से इस समस्या का बेहतर समाधान किया जा सकता है. और इसका एकमात्र उपाय यही है कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन समेत कुछ अन्य घातक रसायनों का निर्माण बंद किया जाये.
* छिद्र में सुधार का पता कैसे चला
पिछले कुछ वर्षों के दौरान ओजोन के निर्माण में उल्लेखनीय बढ़ोतरी होने जैसी जटिल प्रक्रिया को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने लंबे समय से चली आ रही जटिल वायुमंडलीय मॉडल्स का इस्तेमाल किया है. यूरोपियन स्पेस एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस मॉडल के तहत सांख्यिकी आंकड़ों से प्राप्त नतीजों का लंबी समयसीमा के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है. हालांकि, अनेक उपकरणों के माध्यम से पिछले कई दशकों से ओजोन की निगरानी की जा रही है, लेकिन मौजूदा निगरानी उपकरणों में विविध किस्म के संेसर्स लगाये गये हैं. ये सेंसर्स वैज्ञानिकों को उसी प्रकार के आंकड़े मुहैया कराते हैं, जिनका वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण कर पाना मुमकिन हो सके. दरअसल, पूर्व के निगरानी उपकरणों में आंकड़ों की तादाद ज्यादा होने और गैर-जरूरी आंकड़ों के कारण इसका सटिक मूल्यांकन नहीं हो पाता था.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सटिक आंकड़ों और सूचनाओं से वैज्ञानिक अब ज्यादा बेहतर तरीके से यह आकलन करने में सक्षम हो सकते हैं कि ओजोन परत के नुकसान की भरपाई किस गति से हो रही है और ओजोन छिद्र कब तक पूरी तरह से भर जायेगा. केमिस्ट्री क्लाइमेट मॉडल से यह दर्शाया गया है कि अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन की छेद भर रही है और अगले कुछ दशकों में यह अपने पुराने स्वरूप में आ जायेगी.
* ओजोन परत को बचाने का पहला प्रयास
1970 के दशक के दौरान वैज्ञानिकों को ओजोन परत के पतले होने के प्रमाण मिले थे. इसके बाद इस परत को बचाने की कोशिश 1972 में स्टॉकहोम में प्रथम संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन से हुई थी. ओजोन परत में होने वाले नुकसान के संबंध में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहली बार वर्ष 1977 में वाशिंगटन में 32 देशों की एक बैठक आयोजित की गयी थी. इस बैठक में ओजोन परत की सुरक्षा के लिए एक कार्ययोजना को अपनाया गया. ओजोन परत की भारी क्षति के बारे में 1985 के वियना सम्मेलन में जानकारी दी गयी.
समस्या की गंभीरता को देखते हुए इस सम्मेलन में फैसला लिया गया कि दुनिया के सभी देश ओजोन पर रसायनों का प्रभाव तथा इसके मनुष्य के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की सूचना का आदान-प्रदान करेंगे. इस समस्या से निबटने की दिशा में पूरी दुनिया ने 1985 में वियना में एक बैठक आयोजित की थी. इस ऐतिहासिक पहल को वियना संधि के नाम से भी जाना जाता है. इसके बाद पूरी दुनिया ने इस मसले पर गंभीरता से विचार करना शुरू किया, जिसके फलस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि को अंजाम दिया गया.
* क्षति के कारण
दुनिया में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ ही ओजोन परत में क्षरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के दो रसायनशास्त्रियों ने वर्ष 1970 में क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) नामक रसायन की खोज की थी. उन्होंने पता लगाया कि ओजोन जैसे धरती के रक्षा कवच को सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाला यही पदार्थ है. अमेरिका ने सबसे पहले इस रसायन का प्रयोग एयर कंडीशनरों, रेफ्रीजरेटरों जैसे विलासिता के अत्याधुनिक यंत्रों के निर्माण में किया. इसके अलावा, स्वास्थ्य उत्पादों, फोम के निर्माण में भी इसका इस्तेमाल किया जाने लगा.
इंजन के उच्च तापमान के चलते नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिल कर नाइट्रिक ऑक्साइड बनाते हैं, जो ओजोन परत को हानि पहुंचाता है. होमोफ्लुरो कार्बन (आग बुझाने लिए उपयोगी) और मिथाइल ब्रोमाइड भी ओजोन को भारी नुकसान पहुंचाता है. कार्बन टेट्राक्लोराइड और ट्राइक्लोरेथेन दो अन्य रसायन काफी हद तक निष्क्रिय अवस्था में स्ट्रैटोस्फीयर में पहुंच कर ओजोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं.
* भारत में ओजोन संबंधी पाबंदियां
भारत में अगस्त, 2008 से सीएफसी के उत्पादन पर रोक लगा दी गयी. हालांकि, फार्मा क्षेत्र के लिए कुछ खास दवाओं के उत्पादन के लिए इसमें छूट दी गयी. दवा क्षेत्र में इस्तेमाल किया जानेवाला सीएफसी एक विशेष श्रेणी का है. वर्ष 2010 में देश में इस श्रेणी के 343.6 मेगाटन सीएफसी के उत्पादन की मंजूरी ली गयी. देश में दमा रोगियों के लिए अब ऐसे इन्हेलर भी बनाये जा रहे हैं, जिनमें सीएफसी का इस्तेमाल नहीं हो रहा है.
दवा निर्माताओं ने इसमें बड़ी सफलता हासिल की है. इस तरह के इन्हेलर घरेलू बाजार में बेचे जा रहे हैं. इसलिए अब दवा निमार्ताओं ने विशेष श्रेणी के सीएफसी के वर्ष 2011 से आगे के इस्तेमाल की अनुमति नहीं लेने का फैलसा किया. सीएफसी, सीटीसी और हेलोन जैसे ओडीएस को खत्म करने की दिशा में मॉन्ट्रियल समझौते की सफलता को देखते हुए सितंबर, 2007 में समझौते से जुड़े पक्षों की 19वीं बैठक में अगले 10 वर्षों के भीतर सीएफसी गैसों को पूरी तरह खत्म करने का फैसला लिया गया.
विकासशील देशों के लिए इसकी सीमा क्रमश: वर्ष 2009 और 2010 में उत्पादन और इस्तेमाल के औसत के आधार पर तय की गयी है. देश में एचसीएफसी गैसों का उत्पादन और इस्तेमाल 2013 तक घट कर पहले चरण की सीमा पर आ चुका है. 2015 तक इसमें 10 प्रतिशत की और कटौती का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में प्रयास जारी है.