लोकसभा ने न्यायपालिका नियुक्ति विधेयक को दो-तिहाई बहुमत से पास कर दिया है.
न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर अब तक चल रहे कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता की कमी थी और इसकी वजह से भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है.
कॉलेजियम सिस्टम को बदलना ज़रूरी तो है लेकिन नए विधेयक के प्रावधान और भी कई गुना ख़तरनाक हैं.
नया विधेयक क़ानून मंत्री के ज़रिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की मंज़ूरी या उसके वीटो का रास्ता बनाता है.
हालांकि सरकार ने कहा है कि वह वीटो शक्ति को हटाना चाहती है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.
नए विधेयक से और क्या आशंकाए हैं?
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उच्चतम और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नया क़ानून बनाने को लेकर मोदी सरकार ने जो अनुचित जल्दबाज़ी दिखाई है, उसमें उसे संसद में ज़्यादातर दलों का साथ मिला है.
सवाल उठ रहे हैं कि इससे उच्च न्यायालयों की आज़ादी पर कितना फ़र्क पड़ेगा.
हालांकि मोटे तौर पर इस बात पर सहमति है कि कॉलेजियम व्यवस्था के तहत जिस तरह न्यायाधीशों की नियुक्तियां हो रही हैं, उसमें सुधार किया जाए और इसे ज़्यादा पारदर्शी बनाया जाए.
लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) में एक घातक दोष है. यह न्यायिक नियुक्तियों में सरकार को सीधे तौर पर शामिल करता है और ख़ास परिस्थितियों में उसे वीटो करने का अधिकार देता है.
संविधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक बारीक संतुलन निर्धारित करता है और न्यायपालिका की आज़ादी इसे बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है. इसके लिए ज़रूरी है कि वरिष्ठ न्यायपालिका में आज़ाद मन वाले या आत्मनिर्भर स्त्री-पुरुष हों.
दुर्भाग्य से कॉलेजियम की कार्यशैली में पारदर्शिता की कमी की वजह से हमारी उंची अदालतों में भी कई ऐसे सदस्य हैं जो किसी न किसी वजह से पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं हैं.
बहुत से न्यायाधीश पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं और उन्हें किसी भी सरकारी प्रलोभन से डिगाया नहीं जा सकता. लेकिन कुछ न्यायाधीश ऐसे नहीं हैं, जैसा कि हाल ही में जस्टिस (रिटायर्ड) मार्कंडेय काटजू के दावों से पता चला है.
सरकार का वीटो
जिस रूप में जेएसी की परिकल्पना की गई है वह इसलिए ख़तरनाक है क्योंकि कानून मंत्री को औपचारिक भूमिका देकर यह कार्यपालिका और न्यायपालिका में अलगाव का उल्लंघन करता है.
यह अपराध और भी बड़ा हो जाता है जब सरकार के लिए ऐसे किसी व्यक्ति को छांटना आसान हो जाए जिसकी आत्मनिर्भरता की छवि उसके लिए मुश्किलें पैदा कर सकती हो.
आयोग में छह सदस्य होंगे – भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके बाद उच्चतम न्यायालय के दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जिन्हें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता चुनेंगे.
आदर्श स्थिति तो यह होगी कि ये तीनों एकमत से दो प्रतिष्ठित लोगों को चुन लें, हालांकि कानून इस बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर ख़ामोश है.
किसी वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को नाम भेजने के लिए उसके पक्ष में पांच मत होने ज़रूरी हैं. अगर दो सदस्य किसी नाम का विरोध करते हैं तो उसे हटा दिया जाएगा.
सरकार द्वारा रखे गए प्रस्ताव में, जिसे विपक्ष के दबाव में बदल दिया गया, कानून मंत्री को वीटो का अधिकार दिया गया था.
वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम के तहत, सरकार की सलाह पर काम कर रहे राष्ट्रपति को, न्यायपालिका में नियुक्ति के प्रस्तावित नाम पर मुख्य न्यायाधीश को पुनर्विचार करने के लिए कहने का अधिकार है.
लेकिन अगर कॉलेजियम अपनी बात पर अड़ जाता है, पारंपरिक रूप से ऐसा एकमत से होना चाहिए, तब सरकार और राष्ट्रपति के पास उस व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता.
इसमें एकमत होना एक महत्वपूर्ण सुरक्षात्मक कदम है क्योंकि सरकार को मना करना एक गंभीर काम है और कॉलेजियम के सदस्यों को इस मामले पर एकजुटता दिखानी होती है.
सदन में रखे गए सरकारी प्रस्ताव के अनुसार जेएसी सिस्टम के तहत, एक बार सरकार फ़ाइल को पुनर्विचार के लिए भेज देती है तो एकमत होने पर आयोग राष्ट्रपति के फ़ैसले को पलट सकता है. लेकिन जेएसी का एक सदस्य होने के नाते कानून मंत्री को भी वीटो हासिल होता है.
वह अपने मत के ज़रिए नियुक्ति को रोक सकता है क्योंकि उसके विरोध के चलते आयोग एकमत नहीं हो सकता.
पारदर्शिता
ग़लत हाथों में वीटो की यह शक्ति न्यायपालिका की आज़ादी को ख़त्म कर सकती है, क्योंकि कानून मंत्री के पास ऐसे सभी प्रस्तावित नामों को रोकने की सीधी शक्ति होगी जो सरकार को पसंद नहीं हैं.
विपक्षी दलों के विरोध का जवाब देते हुए केंद्रीय कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने बुधवार को लोकसभा में कहा कि सरकार एकमत होने की शर्त हटा रही है.
लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. कानून मंत्री के जेएसी का एक पदेन सदस्य होने भर से चयन प्रक्रिया दूषित होती है. इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका को अलग-अलग करने के सिद्धांत का उल्लंघन होता है.
यह सच है कि जेएसी विधेयक को मनमोहन सिंह सरकार लाई थी और उसमें भी कानून मंत्री के सदस्य होने का प्रावधान था, लेकिन कम से कम उसे वीटो शक्ति नहीं थी.
कॉलेजियम सिस्टम का समय पूरा हो गया है और इसे किसी अधिक पारदर्शी प्रक्रिया से बदले जाने की बेहद ज़रूरत है. लेकिन जेएसी विधेयक पारदर्शिता लाने के नाम पर चुपके से सरकार के लिए जगह बना रहा है.
अगर जेएसी में सिर्फ़ न्यायाधीश और प्रतिष्ठित व्यक्ति होते, जिन्हें एकमत से मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता की समिति चुनती, तो न तो यह किसी भी तरह से कम पारदर्शी होता और न ही कम स्वतंत्र.
और वक्त दें
कानून मंत्री को जेएसी के पदेन सदस्य से हटाए जाने पर बीजेपी और कांग्रेस का सहमत होना मुश्किल ही है, लेकिन एक संशोधन तो अवश्य ही किया जाना चाहिए.
कानून मंत्री को अकेले का किसी के साथ मिलकर किसी भी नामित व्यक्ति को वीटो करने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
इसलिए आखिरी समय में कानून मंत्री के किए वायदे से इतर कानून में यह लिखा जाना चाहिए कि आयोग "ऐसे किसी व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव नहीं करेगा… जिसके नाम पर, कानून मंत्री के अलावा, आयोग के दो सदस्य सहमत न हों."
यह भी बिल्कुल साफ़ होना चाहिए कि दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन किस प्रकार होगा और इसमें एकमत होने का प्रावधान भी शामिल होना चाहिए.
साल 2010 में पूर्व केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस के मामले में फ़ैसला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने सीवीसी का चुनाव करने वाली उच्चाधिकार समिति के सदस्यों के बीच एकमत होने का ज़िक्र नहीं किया था, क्योंकि 2003 के कानून में इसका अलग से उल्लेख नहीं है.
इसमें कहा गया था कि अगर मतभेद सामने आएं तो ‘वह कार्रवाई में सच्चाई को प्रदर्शित करेंगे’. यह भी कहा गया था कि इस मामले में न्यायिक समीक्षा का फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि इसमें कोई भी विवाद उठने पर उसमें मुख्य न्यायाधीश खुद भी एक पक्षकार होंगे.
हालांकि पिछले हफ़्ते इससे संबंधित कुछ और मुद्दे उठे हैं, जैसे क्या जेएसी उच्च न्यायपालिका में सभी नियुक्तियां करेगी या सिर्फ़ उच्चतम न्यायालय की.
और यह अच्छा रहेगा कि सरकार कानून और इससे जुड़े संवैधानिक बदलावों पर व्यापक चर्चा के लिए और वक्त दे.
जो बदलाव अपेक्षित हैं वह भारतीय न्यायपालिका, राज्य व्यवस्था और समाज को आने वाले सालों में प्रभावित करेंगे.
अच्छा रहेगा कि यह सही ही हों.
(ये लेखक के निजी विचार हैं. सिद्धार्थ वरदराजन सेंटर फ़ॉर पब्लिक अफ़ेयर्स एंड क्रिटिकल थ्योरी, शिव नादर विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सीनियर फ़ैलो हैं.)
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