इस रंग बदलती दुनिया में किसका रुतबा हमेशा बरकरार रहता है. एक दिल की तरह मुर्ग के भी टुकड़े हजार हुए, कुछ इधर गये कुछ उधर गये. जाने कब पूरे या आधे तंदूरी मुर्ग के तख्त पर इन टुकड़ों ने यानी टिक्कों ने कब्जा कर लिया. बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
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नाजुक-नफीस चटखारेदार जायके
इस रंग बदलती दुनिया में किसका रुतबा हमेशा बरकरार रहता है. एक दिल की तरह मुर्ग के भी टुकड़े हजार हुए, कुछ इधर गये कुछ उधर गये. जाने कब पूरे या आधे तंदूरी मुर्ग के तख्त पर इन टुकड़ों ने यानी टिक्कों ने कब्जा कर लिया. बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत… […]
पुष्पेश पंत
गुजरे जमाने में मुर्ग का सबसे नायाब व्यंजन मुर्ग मुसल्लम समझा जाता था- देखने में शानदार, बनाने में असाधारण कौशल की दरकार वाला. मुर्ग तो लिफाफा भर होता था, लेकिन इसके भीतर भरा माल मुंह में अनायास पानी भर देता था, मेवों से समृद्ध बिरयानी के बीच बिराजता साबुत अंडा.
पुराने किस्सागो मजमा जमाते थे कि अरब देशों में मुर्ग को रखा जाता था पूरे बकरे के अंदर और बकरा भरा जाता था छोटे ऊंट के पेट में. फिर अचानक मुसल्लम मुर्ग को अनायास पछाड़ दिया पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के साथ पहुंचे तंदूरी मुर्ग ने. इसका रूप रंग कम आकर्षक नहीं था और जायका नाजुक-नफीस मुसल्लम की तुलना में चटपटा लोकलुभावन था. दशकों तक मुर्ग का यही व्यंजन कबाबों की दुनिया का शाहंशाह बना रहा.
राजधानी दिल्ली के मोती महल रेस्त्रां की शोहरत इसी बुनियाद पर टिकी थी कि यहीं का तंदूरी मुर्ग प्रधानमंत्री नेहरू के निवास में लाडले नातियों और शाही मेहमानों को परोसा जाता है. तंदूरी मुर्ग तला नहीं सेका जाता है, इसीलिए विदेशियों की जबान पर आसानी से चढ़ सका. याद रहे, आरंभ में इसके ऊपर न तो बेहिसाब लाल रंग पोता जाता था और न ही ऊपर से खुले हाथ से तंदूरी मसाला या चाट मसाला छिड़का जाता था. लेकिन, आज इस रंग बदलती दुनिया में किसका रुतबा हमेशा बरकरार रहता है.
एक दिल की तरह इस मुर्ग के भी टुकड़े हजार हुए, कुछ इधर गये कुछ उधर गये. जाने कब पूरे या आधे तंदूरी मुर्ग के तख्त पर इन टुकड़ों ने यानी टिक्कों ने कब्जा कर लिया. एक दिन ऐसा भी आया, जब ‘मुर्ग टिक्का मसाला’ इंग्लैंड की राष्ट्रीय ‘डिश’ बन बैठी. दिलचस्प बात यह है कि इस नाम का कोई टिक्का भारत की ईजाद नहीं है.
मुर्ग टिक्का अपने आप में तेज मिर्च-मसाले वाला होता है और जो लोग हल्का मसाला पसंद करते हैं, वे मुर्ग-मलाई टिक्का की फरमाइश करते हैं. अब तक दर्जनों किस्म के टिक्के ईजाद किये जा चुके हैं- पुदीने, हरे धनिये, हरी मिर्च की चटनी की चादर ओढ़े ‘हरियाली टिक्का’ और अपने पक्के रंग पर गुरूर करता ‘टिक्का काली मिर्च’ आम हैं.
कभी-कभार लहसुनी टिक्का और तिल वाला मुर्ग टिक्का भी चखने को मिल जाता है. अक्सर बनानेवाले इन्हें नये-नये नाम देते हैं- शराबी कबाबों टिक्का जैसे. लेकिन, वास्तव में विदेशी लोगों के पनीर को कद्दूकस कर उसकी मालिश से टिक्के की मलाइयत बढ़ानेवाले प्रयोग के आगे किसी तंदूरिये की कल्पना ने पंख नहीं पसारे हैं .
तंदूरी मुर्ग से प्रेरित अन्य कबाब ‘मुर्ग बर्रा’, ‘चिकन चाप’ तथा ‘टंगड़ी कबाब’ हैं. टंगड़ी कबाब अकसर मुर्ग के कीमे से भर कर भी बनाया जाता है. जिस खंडित मुर्ग कबाब की कहानी हमें सबसे ज्यादा भाती है, वह ‘मुर्ग शिकस्ता हरी-पसंद’ है, जिसे एक किंवदंती के अनुसार मशहूर गजल गायिका बेगम अख्तर ने कश्मीर नरेश महाराज हरि सिंह के सम्मान में पेश किया था. इस व्यंजन में मुर्ग के सीने के दो टुकड़े तश्तरी में विभाजन के बाद शिकस्त कबूल तो करते हैं, परंतु अपना दिलकश आकर्षण बनाये रखते हैं.
जाहिर है कि अवध की राजधानी रहे फैजाबाद में इसे तंदूर की तेज आंच का सामना नहीं करना पड़ा होगा और लखनवी मुसल्लम की तरह मंदी आंच पर माही तवे यानी लगन पर तैयार किया होगा. हमारे शाही बावर्ची दोस्त मुहम्मद फारूक ने हमारा परिचय अवधी मुर्ग पारचों से करवाया था, जिन्हें आप मुर्ग के पसंदें कह सकते हैं. इन्हें भी तंदूर की अग्नि परीक्षा नहीं झेलनी पड़ती.
सार संक्षेप यह है कि मुर्ग के जितने भी टुकड़े कर डालें, उसकी लज्जत कम नहीं होती. कुछ वैसे ही, जैसे आईना कई टुकड़ा हो जाने के बाद भी दिलफरेब अक्स दिखलाता रहता है!
रोचक तथ्य
तंदूरी मुर्ग तला नहीं सेका जाता है, इसीलिए विदेशियों की जबान पर यह आसानी से चढ़ सका.
अब तक दर्जनों किस्म के टिक्के ईजाद किये जा चुके हैं- पुदीने, हरे धनिये, हरी मिर्च की चटनी की चादर ओढ़े ‘हरियाली टिक्का’ और अपने पक्के रंग पर गुरूर करता ‘टिक्का काली मिर्च’ आम हैं.
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