महाराष्ट्र सदन में एक रोज़ेदार कर्मचारी के मुंह में शिवसेना सांसदों के जबरन रोटी ठूंसने की घटना राजनीतिक बवाल का सबब बनी हुई है.
शिवसेना इसे विपक्षियों द्वारा सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश बता रही है तो बीजेपी बग़ले झांक रही है.
क्या इतनी सनसनीखेज़ ख़बर या वीडियो फ़ुटेज को कोई संपादक रोककर रख सकता था? यह संभव नहीं लगता.
तो फिर किसके आदेश पर इस फ़ुटेज को पांच दिन रोका गया और फिर जारी किया गया?
क्या यह नई तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, बारीक हिंदुत्व, का इस्तेमाल है?
इस घटनाक्रम में, एक बेहद मामूली सवाल यह है कि अगर सांसद उस कर्मचारी का नाम अफ़रा-तफ़री में पढ़ नहीं पाए तो वे उसे सुन क्यों नहीं पाए कि वह रोज़े से है, जो वह बार-बार कह रहा था.
पढ़िए मधुकर उपाध्याय का पूरा लेख
17 जुलाई को दिल्ली के नवमहाराष्ट्र सदन में हुई घटना असामाजिक, असत्य और ग़ैरक़ानूनी है क्योंकि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि राजन विचारे ने एक सरकारी कर्मचारी के मुंह में जबरन रोटी ठूंसने की कोशिश की, जैसा टीवी चैनलों ने दिखाया.
यह घटना निंदनीय और घृणित हो जाती है जब उस कर्मचारी का नाम अरशद ज़ुबैर होता है, और चल रहे रमज़ान के महीने में वह रोज़ा रखे हुए होता है.
उसका नाम सरकारी वर्दी पर लिखा होता है लेकिन वहां मौजूद 11 सांसदों में से एक भी उसे पढ़ नहीं पाता, पढ़ना नहीं चाहता.
इसे ख़राब खाने और घटिया व्यवस्था के विरोध का सामान्य मामला मानने और एक सतही माफ़ी के साथ रफ़ा-दफ़ा करने का तर्क सहज नज़र नहीं आता, जैसा शिवसेना के सांसद और बग़ले झांकते भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता उसे बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
यह पूरी घटना इतनी सीधी होती तो विपक्षी दलों पर लगाए गए आरोप लग और चिपक गए होते कि वे इसे सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं, जबरन इसे हिंदु-मुस्लिम मामला बनाया जा रहा है.
सवाल
इस घटनाक्रम में, एक बेहद मामूली सवाल यह है कि अगर सांसद उस कर्मचारी का नाम अफ़रा-तफ़री में पढ़ नहीं पाए तो वे उसे सुन क्यों नहीं पाए कि वह रोज़े से है, जो वह बार-बार कह रहा था?
इन सवालों के जवाब भी आने होंगे कि यदि इस घटना को तूल नहीं देना होता तो टेलीविज़न कैमरे वहां क्यों बुलाए गए थे या फिर यह कि किसने बुलाए थे?
एक सवाल यह भी होगा कि वह कौन था जिसके कहने पर फ़ुटेज को पांच दिन तक रोक कर रखा गया?
यह भी कि पांच दिन बाद उसे दिखाने का निर्णय कैसे लिया गया और किसने लिया?
कथित सामान्य घटना की सामान्य रिपोर्टिंग का यह मामला पत्रकारिता के सबसे सहज और पहले सिद्धांत को अनदेखा करता है और पहली नज़र में ही लगता है कि बात संपादकीय उत्तरदायित्व के दायरे से बाहर चली गई है.
घटना राजधानी दिल्ली की थी किसी दूरदराज़ इलाक़े की नहीं कि तस्वीरें मुख्यालय पहुंचने में वक़्त लग गया हो.
फ़ुटेज सामग्री भी इतनी विस्फ़ोटक कि उसे समाचारों की अहमियत समझने वाला कोई भी व्यक्ति कभी न रोकता.
यह तथ्य भी इसी ओर इशारा करते हैं कि मामला ग़ैर संपादकीय हस्तक्षेप का हो सकता है.
केवल इसी आधार पर इसकी पृष्ठभूमि में राजनीति ढूंढना उचित न होता अगर शिवसेना की ओर से लीपापोती न शुरू हो गई होती.
पहले पूरी तरह खंडन, फिर रोटी ठूंसने को केवल शाब्दिक क़रार देना, उसे सांसदों की सुविधा की अनदेखी से जोड़ना और अंत में यह कहना कि महाराष्ट्र सदन की घटना गोधरा जैसी है. मतलब यह कि लोगों को गुजरात के दंगे याद हैं, गोधरा की रेल नहीं.
परोक्ष रूप से ही सही, यह शिवसेना की ओर से घटना को सांप्रदायिक रंग देना ही लगता है. वरना उनके शब्दों में रोटी ठूंसने की मामूली घटना को समझाने के लिए उसे दंगों और हत्याओं से क्यों जोड़ा जाता?
बारीक हिंदुत्व
महाराष्ट्र की घटना को शिवसेना का षड्यंत्र, राजनीतिक ध्रुवीकरण का प्रयास और उसे राज्य विधानसभा के चुनावों से जोड़ने वाले, हो सकता है कि हड़बड़ी में कूदकर नतीजे तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हों.
लेकिन इसे पूरी तरह ख़ारिज करने के पर्याप्त आधार भी उपलब्ध नहीं हैं.
यह यक़ीनन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का महीन खेल है जो पहले के कट्टर हिंदुत्व से सर्वथा अलग है. यह अयोध्या के सीधे टकराव और बाबरी मस्जिद के ध्वंस से अलग बारीक हिंदुत्व का खेल बन गया है.
गुजरात और उत्तर प्रदेश इस प्रयोग और उसकी कामयाबी के नमूने हैं.
कांग्रेस पर नरम हिंदुत्व का आरोप लगाने वाली सियासी जमातों ने पुराने तौर तरीक़ों की विफलता को देखते हुए शायद यह महीन खेल उसी से सीखा है.
कांग्रेस अब बहुत पीछे छूट गई है जबकि भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने इसमें महारथ हासिल कर ली है. उनका जादू मुंह में रोटी ठूंस कर बोलता है.
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