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गांव-देहात व किसान से वास्ता नहीं

केसी त्यागी राष्ट्रीय महासचिव सह प्रवक्ता, जदयू सस्ती लोकप्रियता की भूखी है सरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने आम बजट पेश करके देश के सामने विकास का रोडमैप रखा है. इस बजट पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और विशेषज्ञ क्या सोचते हैं. ‘बजट के पीछे की राजनीति’ पर ‘प्रभात खबर’ की सीरीज में आज पढ़ें […]

केसी त्यागी

राष्ट्रीय महासचिव सह प्रवक्ता, जदयू

सस्ती लोकप्रियता की भूखी है सरकार

नरेंद्र मोदी सरकार ने आम बजट पेश करके देश के सामने विकास का रोडमैप रखा है. इस बजट पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और विशेषज्ञ क्या सोचते हैं. ‘बजट के पीछे की राजनीति’ पर ‘प्रभात खबर’ की सीरीज में आज पढ़ें दूसरी कड़ी..

आम बजट और रेल बजट को देख कर यह सहज रूप से कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार बजट के पीछे राजनीति कर रही है. राजनीति इस अर्थ में कि जो भाजपा कहती है, वह करती नहीं है. जो वादा करती है, उसके पीछे उसकी मंशा क्या है, तथा आम आदमी के प्रति वह कितनी हमदर्द है, वह आम बजट और रेल बजट से साबित हो गया है. सरकार अपनी लोकप्रियता भुनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.

इसी का नतीजा है कि जो सरकारी उपक्रम हैं, उन सभी से धन जुटाने की तैयारी है. एफडीआइ को बड़े पैमाने पर आमंत्रित करेंगे और पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट, पार्टनरशिप) मॉडल के तहत पैसा जुटाने की ओर सरकार कदम बढ़ा चुकी है. इसमें अकेले पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग से ढाई से तीन लाख करोड़ रुपये इकट्ठा होंगे. आखिर पैसा कहां से आयेगा?

तो इन्हीं चीजों से सरकार पैसा इकट्ठा कर अपनी पीठ थपथपाना चाह रही है. सरकार के दिमागी दिवालियापन को इसी से समझा जा सकता है कि जिस देश में बहुत बड़ी संख्या में लोग भूखे मर रहे हैं, जिन्हें भोजन उपलब्ध कराने की जरूरत है, उसे छोड़ कर सरकार बुलेट ट्रेन चलाने की घोषणा कर रही है. अहमदाबाद से मुंबई तक बुलेट ट्रेन का बजट 60 हजार करोड़ रुपये है, जबकि सूखे की चपेट में आये पूरे देश में सिंचाई के लिए मात्र 1000 हजार करोड़ रुपये की मंजूरी दी गयी है. जबकि आज देश की कृषि भूमि का मात्र 40 फीसदी ही सिंचित है, जबकि 60 फीसदी भूमि असिंचित है. तो क्या इतने बड़े देश के लिए सिर्फ एक हजार करोड़ रुपये की ही जरूरत है.

सरकार यह नहीं जानती है कि किसानों को राहत देनेवाले मद में ज्यादा पैसे की जरूरत है या फिर कुछ विशेष लोगों के लिए चलने वाली ट्रेन के लिए. मनमोहन सिंह और अरुण जेटली की जो पॉलिसी है, उसमें ज्यादा अंतर नहीं है. क्योंकि भाजपा और कांग्रेस एक तरह से ही सोचती हैं. मनमोहन की नीति को ही यह लोग आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इंदिरा गांधी ने 1971 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. लेकिन यह सरकार इसे भी बेचना चाहती है. सरकार सभी प्राइवेट सेक्टर को जिसमें उसका हिस्सा है, बेचना चाहती है. जिस भूमि अधिग्रहण कानून को संसद को मंजूरी मिल गयी है उसे निजी सेक्टर के हितों के लिए बदलना चाहती है.

जबकि भूमि अधिग्रहण कानून में यह साफ कहा गया है कि किसी भी भूमि के अधिग्रहण से पूर्व 80 प्रतिशत लोगों की सहमति जरूरी है. यानी जिनकी जमीन का अधिग्रहण किया जायेगा, उसमें से 80 फीसदी भूमालिकों की सहमति के बाद ही अधिग्रहण किया जा सकता है. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो भूमि अधिग्रहण नहीं होगा. लेकिन वर्तमान सरकार उस क्लॉज को ही हटाना चाह रही है. कुछ शहरों को स्मॉर्ट शहर बनाना चाह रहे हैं, जबकि देश को खुशहाल बनाने के लिए किसानों के ऊपर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है.

आम बजट के साथ ही रेल बजट भी उतना ही निराशाजनक रहा है. कुशल मंत्री का काम होता है कि जो पुरानी योजनाएं पहले से घोषित हैं, उन्हें पहले पूरा किया जाये. लेकिन इस बजट में तो ऐसा कुछ है ही नहीं. वाह-वाही लूटने के लिए नयी रेल योजनाएं बना दी हैं. अभी आधा दर्जन योजनाएं बिहार की हैं, जो लंबित पड़ी है. ट्रैक की स्थिति खराब है. खुले फाटक पर दुर्घटनाएं हो रही हैं. रेल ओवरब्रिज की हालत खराब है, रैक की स्थिति चिंताजनक है, फिर भी सरकार राजनीति कर रही है. अबतक के काम-काज को देख कर यह साफ पता चलता है कि इस सरकार को गरीब, किसान, गांव, देहात तथा आम आदमी से कोई वास्ता नहीं है.

कई जगहों पर सूखे के हालात पैदा हो गये हैं. मवेशी को चारा तक नहीं मिल रहा है, फिर भी सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर रही है. ऐसे मामले से निपटने में जो संस्थान (डिजास्टर मैनेजमेंट सिस्टम) सबसे कारगर भूमिका निभाता रहा है, उसके सदस्यों से इस्तीफा लेकर नये सदस्यों की नियुक्ति तक नहीं की गयी है. इन सूखा ग्रस्त जिलों में किसानों को राहते देने के बनिस्पत केंद्र सरकार किसानों के विरुद्ध काम करने में लगी है. केंद्रीय उपभोक्ता और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने चीनी मिल मालिकों के लिए 6000 हजार करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की है साथ ही किसानों को यह धमकी दी है कि गóो का दाम दिल्ली से तय होगा. इसके अलावा अतिरिक्त बोनस दिया जाता है, तो उसके लिए राज्य सरकार जिम्मेवार होगी. ऐसा पिछले 60 साल में नहीं हुआ है.

राज्य सरकारों को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है. इतना ही नहीं तिलहन और दलहन के जो दाम तय हुए हैं, उन पर बोनस न देने की बात भी इस विभाग के मंत्री ने कही है. 500 जिलों में सूखा पड़ा है, लेकिन केंद्र सरकार ने राज्यों से मिल कर अब तक यह तय नहीं किया है कि कौन-कौन से जिले में सूखा पड़ा है. कितने किसान पीड़ित हैं. सरकार जानबूझ कर सूखा पीड़ित जिला घोषित नहीं कर रही है, क्योंकि उसे पता है कि यदि सूखा पीड़ित घोषित कर दिया, तो उन जिलों को राहत सामग्री देनी पड़ेगी. इसीलिए उन जिलों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है.

इसीलिए हमारी मांग है कि जहां- जहां पर सूखे पड़े हैं, वहां के किसानों के कृषि ऋण माफ किये जायें. पोखर-तालाबो ंको सिंचित करने की योजनाएं बनायी जायें. छात्रों की फीस माफ की जाये. सस्ते बीज और चारे की व्यवस्था की जाये. जिस तरह से नेशनल हाइवे बनाया परियोजना है उसी तरह सिंचाई के लिए नेशनल हाइवे सिंचाई परियोजना बनायी जाये.

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