भारत सरकार ने जून 2010 में 235 करोड़ रुपये की लागत से नेशनल मिशन ऑन एनरिच्ड एनर्जी इफिशिएंसी (एनएमइइइ) की स्थापना की है , जिसका प्रमुख उद्देश्य भूमिगत संसाधनों पर निर्भरता कम करना है.
सन् 2015 तक एनएमइइइ का लक्ष्य कोयला, गैस और पेट्रोलियम उत्पादों का 2 करोड़ तीस लाख टन बचाना है और इसकी भरपाई वैकल्पिक ऊर्जा स्नेतों से की जानी है. मार्केट ट्रांसफॉरमेशन फॉर एनर्जी इफिशिएंसी योजना के तहत ऐसे उपकरण और संसाधन विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, जो ऊर्जा की खपत काफी कम करेंगे और ये देश के विविध क्षेत्रों में उपयोग के लिए निर्धारित किये जायेंगे. सारी कवायदें यह बताती हैं कि देश में ऊर्जा की बचत और वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन को लेकर गंभीर प्रयास शुरू किये जा चुके हैं.
बढ़ती जनसंख्या और बढ़ती जरूरतों के हिसाब से जिस एक चीज का संकट आज सबसे भारी है, वह है ऊर्जा. आधुनिक जीवन में हम ऊर्जा पर इतनी शिद्दत से निर्भर हो गये हैं कि अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा जरूरतों को कम करना भी हमें असहज बना देता है. लेकिन यह सच है कि ऊर्जा की एक सीमा है. लगभग एक दशक पूर्व जर्मनी के वैज्ञानिक समुदाय ने विश्व की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों के समाधान के लिए सूर्य से धरती पर कुछ ऊर्जा लाने की वैज्ञानिक कवायद शुरू की थी, लेकिन उसका हश्र वही हुआ, जिसका अंदेशा था. वैज्ञानिक अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य की सकल ऊर्जा या उसके कुछ अंश को भी धरती पर संरक्षित करना एक नामुमकिन सा काम है. लिहाजा, धरती पर उपलब्ध संसाधनों के बीच से ही ऊर्जा की जरूरतों का विकल्प खोजने की तैयारी चल रही है.
भारत जैसे विकसित होते शहर में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों में आर्थिक विकास और संपन्नता, शहरीकरण की बढ़ती रफ्तार, प्रतिव्यक्ति लगातार बढ़ता जा रहा ऊर्जा उपभोग और देश की विविध प्रक्रियाओं के संचालन में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों ने हमें इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां उपलब्ध ऊर्जा का विस्तार वैकल्पिक तरीकों में ढूंढ़ना समय की आवश्यकता हो गयी है. लगभग डेढ़ दशक पहले भारत विश्व का सातवां सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता देश था और आज हालात यह है कि यह विश्व का चौथा सबसे ज्यादा ऊर्जा उपभोक्ता देश बन गया है. जाहिर है, हमारी ऊर्जा जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं और इसके मुकाबले हमारे पास संसाधन बहुत सीमित हैं. यही कारण है कि देश में वैकल्पिक ऊर्जा की हर तरफ बात हो रही है.
भारत में मूलत: वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत के रूप में पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, बायोमास और लघु जल विद्युत ऊर्जा का अब ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है. ये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते और अपने आंतरिक संसाधनों के उपयोग से ही लघु जरूरतें पूरी हो जाती है. ताप, जल-विद्युत और नाभिकीय ऊर्जा पहले से ही स्थापित है, लेकिन इन ऊर्जास्नेतों के खतरे अब सामने आने लगे हैं. ताप ऊर्जा के उपयोग में कोयले की जरूरत होती है, जिसका सीमित भंडार ही देश पास है. लगातार अनियमित मॉनसून और घटते जल-स्तर की वजह से जल विद्युत परियोजनाओं का विकल्प ढूंढ़ना भी देश की मजबूरी है. इससे विस्थापन की भी समस्या अकसर खड़ी होती रहती है. जहां तक नाभिकीय ऊर्जा का सवाल है, इसका बहुत ही सीमित उपयोग देश में हो रहा है. जापान स्थित फुकुशिमा संयंत्र में रिसाव के बाद दुनियाभर की चिंता इस बात को लेकर है कि अगर नाभिकीय ऊर्जा के लिए संयंत्र स्थापित किये जाते हैं तो इसके खतरों के प्रति सचेत रहने की लगातार जरूरत पड़ेगी. किसी भी लोक कल्याणकारी देश में नागरिकों की सुरक्षा की बिना पर ऐसे संयंत्र लगाना काफी जोखिम भरा होता है. इन सबसे एक बात सामने आती है कि हमें ज्यादा से ज्यादा मात्र में वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत को ढूंढ़ना ही होगा.
भारत में पिछले कुछ सालों में नवीकृत ऊर्जा के संसाधन काफी बढ़े हैं. वित्तीय वर्ष 2008 से 2013 के बीच देश के सकल नवीकृत ऊर्जा उत्पादन में क्रमश: 7.8 से 12.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है. इसमें पवन ऊर्जा का योगदान लगभग 68 फीसदी है और यह सकल स्थापित क्षमता में 19.2 गीगावाट का योगदान करती है. पवन ऊर्जा का प्रचलन दिनोंदिन बढ़ रहा है और आज स्थिति यह है कि भारत पवन ऊर्जा उत्पादन में विश्व में पांचवा स्थान रखता है. जहां तक लघु जल विद्युत परियोजनाओं का सवाल है, इनका सकल उत्पादन 3.6 गीगावाट, जैव ऊर्जा का भी 3.5 गीगावाट और सौर ऊर्जा से 1.7 गीगावाट ऊर्जा हमें प्राप्त हो रही है.
तेल, पेट्रोल और लिक्किाइट पेट्रोलियम गैस भारत में ऊर्जा की खपत के सबसे प्रमुख संसाधन हैं. इन तीनों ही संसाधनों का बहुलता से आयात करना देश की मजबूरी है, क्योंकि ये ऊर्जा भंडार अपने यहां काफी सीमित मात्र में हैं. असम से लेकर कावेरी-गोदावरी बेसिन तक जितना तेल निकाला जाता है, उसके प्रसंस्करण में इतना खर्च आता है कि सरकार को सब्सिडी देने में ही काफी राजस्व जाया हो जाता है. इन कठिनाइयों के देखते हुए सरकार अपनी तरफ से काफी कोशिशें करती हैं. ऊर्जा खपत कम करने के लिए जीबीआई और टैक्स हॉलिडे समेत अन्य कई उपायों पर लगातार अमल किया है. बावजूद इसके ऊर्जा की जरूरतें लगातार बढ़ती जा रही है. देश में स्थापित नेशनल सोलर एनर्जी मिशन सौर ऊर्जा के अधिकाधिक उपयोग और उत्पादन की कोशिश कर रही है, ताकि फॉसिल आधारित तेल के लगातार दोहन को कम किया जा सके. नवीनीकृत ऊर्जा का एक अच्छा पहलू यह है कि यह फॉसिल आधारित ऊर्जा संसाधनों से सस्ते होते हैं और पर्यावरण पर भी इनका प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है. इन्हें दूरदराज के उन इलाकों में स्थापित और वितरित किया जा सकता है, जो दुर्गम है और जहां की अधिकांश आबादी को सामान्य ऊर्जा जरूरतें जैसे – रोशनी, खाना बनाने और आटा चक्की चलाने जैसी जरूरतों से रोज जूझना पड़ता है. भारत में बायोमास ऊर्जा की भी वृहद संभावनाएं हैं. कृषि उत्पादों और मवेशियों को गोबर से ऊर्जा उत्पादन पिछले एक दशक में काफी बढ़ा है और गांवों में लोग इन वैकल्पिक ऊर्जा से काफी लाभान्वित भी हुए हैं.
भारत सरकार ने जून 2010 में 235 करोड़ रुपये की लागत से नेशनल मिशन ऑन एनरिच्ड एनर्जी इफिशिएंसी (एनएमइइइ) की स्थापना की है, जिसका प्रमुख उद्देश्य भूमिगत संसाधनों पर निर्भरता कम करना है. सन् 2015 तक एनएमइइइ का लक्ष्य कोयला, गैस और पेट्रोलियम उत्पादों का 2 करोड़ तीस लाख टन बचाना है और इसकी भरपाई वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत से की जानी है. इस कार्यक्रम के तहत एक पैट योजना बनायी गयी है, जिसमें प्रमुख भागीदारों को वैकल्पिक ऊर्जा के संसाधनों को बढ़ाने का लक्ष्य दिया गया है. मार्केट ट्रांसफॉरमेशन फॉर एनर्जी इफिशिएंसी योजना के तहत ऐसे उपकरण और संसाधन विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, जो ऊर्जा की खपत काफी कम करेंगे और ये देश के विविध क्षेत्रों में उपयोग के लिए निर्धारित किये जायेंगे. दूसरी ओर, द एनर्जी इफिशिएंसी फाइनेंसिंग प्लेटफॉर्म भी बनाया गया है, जो ऊर्जा की खपत कम करने की प्रक्रिया में लगे कार्यक्रमों को मांग आधारित समुचित राशि मुहैया करायेगा. जाहिर है, सारी कवायदें यह बताती हैं कि देश में ऊर्जा की बचत और वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन को लेकर गंभीर प्रयास शुरू किये जा चुके हैं.
अपने देश में बहुतायत से उपलब्ध वैकल्पिक ऊर्जा संसाधन जैसे पवन,सौर, लघु जल, बायोमास और अपशिष्ट ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने में अपनी वृहद भूमिका निभा सकते हैं. भारत के समुद्री तट पर पवन चक्कियां लगाकर पवन ऊर्जा उत्पादित हो सकती है. इसके लिए ओडिसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, केरल आदि शहरों में काफी संभावनाएं हैं. यहां पवन चक्कियां लगाना पारंपरिक संसाधनों पर खर्च की तुलना में काफी सस्ता पड़ेगा. ग्रामीण जरूरतें जैसे पानी गर्म करने, खाना बनाने और कुछ छोटे शहरों में उद्योगों के लिए बिजली मुहैया कराने में सौर ऊर्जा की उपयोगिता प्रमाणित हो चुकी है. इसके लिए सोलर वॉल्टेइक पॉवर की आवश्यकता होती है, जो हालांकि फिलहाल थोड़ा महंगा है, लेकिन इस प्रविधि में सुधार करते हुए इसे भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के मुताबिक ढाला जा सकता है. अभी देश के कई शहरों में ताप ऊर्जा के रूप में उच्च तापमान संग्राहक, दर्पण, लेंस और वाष्प टरबाईन का काम चल रहा है जो भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को काफी हद तक पूरी करने में अपनी अहम भूमिका निभायेंगे.
दिसंबर 2013 तक भारत में नवीनीकृत ऊर्जा विकल्पों की स्थापित क्षमता कुल 29,989 मेगावाट के आसपास है. इनमें पवन ऊर्जा 20149.50, सौर ऊर्जा 2180, लघु जल विद्युत ऊर्जा 3783.15, बायोमास ऊर्जा 1284.60, बायोगैस कोजेनेशन 2512.88, अपशिष्ट ऊर्जा से 99.08 मेगावाट की स्थापित क्षमता है. ये आंकड़े देश की ऊर्जा जरूरतों की तुलना में भले ही कम लगे लेकिन यही वे सारे संसाधन हैं जहां भरपूर संभावनाएं भी छिपी हुई है. सन् 1990 में भारत में पवन ऊर्जा के विकास पर ध्यान दिया गया और देखते ही देखते इस वैकल्पिक ऊर्जा का योगदान काफी बढ़ गया . दिसंबर 2013 तक के आंकड़ों की बात करें तो पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता अपने देश में 20149.50 मेगावाट है. इनमें से ज्यादातर तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल में हैं. भारत की स्थापित ऊर्जा क्षमता में पवन ऊर्जा का योगदान 1.6 फीसदी पहुंच गया है.
बढ़ती जनसंख्या और बढ़ती जरूरतों के हिसाब से जिस एक चीज का संकट आज सबसे भारी है, वह है ऊर्जा. आधुनिक जीवन में हम ऊर्जा पर इतनी शिद्दत से निर्भर हो गये हैं कि अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा जरूरतों को कम करना भी हमें असहज बना देता है. लेकिन यह सच है कि ऊर्जा की एक सीमा है. हमारी ऊर्जा जरूरतें लगातार बढ़ रहीं हैं और इसके मुकाबले हमारे पास संसाधन बहुत सीमित हैं. यही कारण है कि देश में वैकल्पिक ऊर्जा की हर तरफ बात हो रही है.
घनश्याम श्रीवास्तव
लेखक एक पाक्षिक पत्रिका में समन्वय संपादक हैं.