ब्रजेश कुमार सिंह
संपादक, गुजरात, एबीपी न्यूज
अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले तीन दशक से वो विश्वस्त सहयोगी रहे हैं. शाह का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना बहुत सारे राजनीतिक विशेषज्ञों के लिए पार्टी और सरकार दोनों पर ही मोदी की पूरी तरह से पकड़ हो जाने का सबूत है. लेकिन अमित शाह की कामयाबी को सिर्फ मोदी के करीबी होने के तौर पर ही आंकना भूल होगी.
इस बात का ध्यान रखना होगा कि आज से ठीक चार साल पहले जब सोहराबुद्दीन शेख फरजी मुठभेड़ मामले का आरोपी बन जाने के कारण शाह को गुजरात में मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था और फिर सीबीआइ के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था, तो ज्यादातर राजनीतिक पंडितों ने इसे शाह के राजनीतिक कैरियर का खत्म हो जाना बताया था. रही सही कसर तब पूरी हुई, जब हत्या और अपहरण के इस मामले में सीबीआइ की तरफ से शाह को मुख्य साजिशकर्ता ठहराये जाने के बाद उन्हें तत्काल जमानत नहीं मिली थी और अहमदाबाद के साबरमती सेंट्रल जेल जाना पड़ा था. शाह करीब तीन महीने तक जेल में रहे.
इस दौरान एक बार फिर से ज्यादातर राजनीतिक भविष्यवेत्ताओं ने मान लिया कि मोदी के इस करीबी शख्स के लिए आगे का राजनीतिक सफर खत्म हो गया है. लेकिन शाह ने इन तमाम भविष्यवाणियों को झूठा ठहरा दिया. करीब तीन महीने के जेलवास के बाद उन्हें जमानत मिली. हालांकि इसके तुरंत बाद सीबीआइ की याचिका के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात आने पर प्रतिबंध लगा दिया. ये सिलिसला 2012 के गुजरात विस चुनावों के पहले तक जारी रहा.
राष्ट्रीय फलक पर अमित शाह
अमित शाह गुजरात नहीं जा सके थे. सो दिल्ली में पड़े रहने की जगह डेढ़ साल तक देश भर में घूमे. ज्यादातर धार्मिक स्थलों का दौरा किया. पूर्व में कामाख्या से दक्षिण में कन्याकुमारी और रामेश्वरम तक. उत्तर में गंगोत्री से कोलकाता में कालीघाट तक. कई जगहों पर शाह बड़े ही साधारण ढंग से गये. ट्रेन के स्लीपर क्लास में पत्नी के साथ यात्र की. हालांकि, अमित शाह आतंकवादी संगठनों के निशाने पर थे, पर वह बेखौफ घूमते रहे. इस दौरान शाह ने देश को करीब से समझा. इससे पहले उन्हें गुजरात से बाहर के राज्यों को करीब से जानने का मौका नहीं मिला था.
सामान्य लोगों के साथ यात्र की और सामान्य धर्मशालाओं में रुके, तो देश के सामाजिक-राजनीतिक ताना-बाना को समझा. मध्यप्रदेश के दतिया में भाजपा के एक कार्यकर्ता को तब गहरा धक्का लगा, जब शाह पीतांबरा पीठ और मां बगलामुखी के दर्शन के दौरान एक सामान्य से धर्मशाला में ठहरे.
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शाह ने लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी क्या सोच कर संभाली थी. पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनके सामने यह प्रस्ताव रखा था. शाह ने प्रस्ताव को स्वीकार करने में ज्यादा वक्त नहीं लिया.
उनकी सोच साफ थी. अगर यूपी में भाजपा को बड़ी कामयाबी मिली, तो उन्हें अपने ऊपर लगे उस ठप्पे से मुक्ति मिल जायेगी, जो सीबीआइ ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले के मुख्य साजिशकर्ता के तौर पर उन पर चस्पां कर दिया था. विपक्षी दलों ने इसी केस को सामने रख कर शाह को ‘हत्यारा’ तक कहा. जाहिर है, ऐसी परिस्थिति में यूपी में भाजपा को मिलनेवाली बड़ी जीत, उन्हें सियासत में काफी आगे ले जा सकती थी, तो हार अंतिम तौर पर सियासी बियावान में ढकेल सकती थी. लेकिन, शतरंज के इस कुशल खिलाड़ी ने सियासत की बिसात पर भी अपने मोहरे ऐसे सजाये कि यूपी में रिकॉर्ड बन गया. 80 में 71 सीटें भाजपा की झोली में और दो सीटें सहयोगी अपना दल के खाते में डाल कर शाह ने ऐसा रिकॉर्ड बनाया, जो यूपी में कभी नहीं हुआ.
16 मई, 2014 को आये चुनाव परिणामों के बाद से ही अमित का सितारा बुलंद था. 26 मई को नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा सरकार ने शपथ ली, तब भी सरकार बनाने की प्रक्रि या के केंद्र में मोदी के अलावा कोई और था, तो वो थे अमित शाह. शाह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली, तो कई राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी कर डाली कि जब तक शाह सोहराबुद्दीन शेख-तुलसी प्रजापति मुठभेड़ मामले से बरी नहीं हो जाते, न केंद्र में मंत्री बन सकते हैं, न पार्टी अध्यक्ष. लेकिन, तमाम भविष्यवाणियां धरी की धरी रह गयीं.
शाह चाहते, तो मंत्री बन सकते थे. लेकिन, उनकी सोच कुछ और थी. उन्हें लग रहा था कि जब पार्टी के तमाम बड़े नेता सरकार में जा रहे हैं, वे पार्टी में रह कर अपने लिए ज्यादा बड़ी जमीन तैयार कर सकते थे. केंद्र में पांच साल तक मोदी सरकार स्थिर रहेगी. इस दौरान अगर भाजपा को मजबूत किया जाये, तो उनका सियासी कद और बढ़ सकता है. उन्हें यह भी पता था कि उम्र उनके हक में है. महज 50 साल के अमित शाह सियासत की परिभाषा के मुताबिक युवा हैं. अगले कुछ वर्षो में पार्टी को कुछ बड़ी कामयाबी दिला दी, तो मोदी के उत्तराधिकारी भी बन सकते हैं. एक बड़ा फायदा यह भी है कि वे आरएसएस के प्रमुख नेताओं के करीब हैं. संघ प्रमुख मोहन भागवत से नियमित संपर्क में रहते हैं, तो सरकार और संघ के बीच समन्वय करनेवाले सुरेश सोनी से एकदम सहज.
भाजपा और संघ में जब बहस चल रही थी कि प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों एक ही राज्य से कैसे हो सकते हैं, तो शाह की संघ नेताओं से घनिष्ठता काम आयी. जिन लोगों के नाम पार्टी अध्यक्ष के दावेदारों के तौर पर उभर रहे थे, उन सबके मुकाबले अमित शाह का ट्रैक रिकॉर्ड काफी अच्छा था. बात जेपी नड्डा की हो या ओम माथुर की. आखिरकार संघ और भाजपा दोनों के बीच शाह के नाम पर सहमति बन गयी और शाह बन गये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
पहली बार नहीं दिखा आडवाणी का विरोध
पिछले दो वर्षो में यह पहला मौका है, जब आडवाणी ने पार्टी के किसी फैसले का विरोध नहीं किया. आखिर आडवाणी ये कैसे भूल सकते थे कि गांधीनगर से पिछले ढाई दशक के दौरान जो तमाम चुनाव वे लड़े हैं, उसमें से ज्यादातर में जीत की भूमिका तैयार करने में अमित शाह की अहम भूमिका रही है चुनाव प्रभारी के तौर पर. ऐसे में जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर शाह के नाम का एलान हुआ, तो मोदी, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे नेताओं के साथ आडवाणी भी मंच पर मौजूद रहे.
बढ़ रही हैं शाह की चुनौतियां
भाजपा को शुरु आती दौर में खड़ा करनेवाले आडवाणी का सियासी कैरियर अब रिटायरमेंट की ओर अग्रसर है. शाह की चमक बढ़ रही है. अध्यक्ष की कुरसी संभालने के बाद शाह की चुनौतियां भी बढ़ गयी हैं. आनेवाले महीनों में महाराष्ट्र, झारखंड व जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. इन राज्यों में पार्टी की सरकार बनी या ज्यादा सीटें जीतती है, तो शाह का कद बढ़ता चला जायेगा. शाह के सामने चुनौती उन राज्यों में भाजपा का जनाधार बढ़ाने की भी है, जहां अभी तक पार्टी कुछ खास नहीं कर पायी है. इसके अलावा केंद्र में मोदी की अगुआई में एनडीए की सरकार है, उसकी सिद्धियां लोगों तक ढंग से पहुंच पाये, यह भी उन्हें सुनिश्चित करना होगा.
शाह के अध्यक्ष बनने से पार्टी नेता, कार्यकर्ताओं में उत्साह
अमित शाह में मेहनत करने का माद्दा है. चुनावी रणनीति के वे मास्टर हैं. लगातार सीखते हैं. बहुत कम लोगों को ध्यान में होगा कि शाह फिलहाल बांग्ला, मराठी और तेलुगू जैसी भाषाएं सीख रहे हैं. देश के गैर हिंदी इलाकों में वो स्थानीय भाषा में संपर्क करने की तैयारी कर रहे हैं. उनके इन्हीं गुणों के कारण भाजपा के तमाम नेता और जमीनी कार्यकर्ता उत्साह में हैं. शाह का समय शुरू हो गया है. अगले कुछ महीनों में कामयाबी के कुछ बड़े कदम तय कर लेते हैं, तो इसे पार्टी में अटल-आडवाणी युग के बाद मोदी-शाह युग की मजबूत नींव पड़ने के तौर पर देखा जायेगा. पार्टी के बाकी नेताओं के साथ मोदी को भी यही उम्मीद होगी अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी से.