शेरपाओं की हृदयस्थली में लोग अब भी अप्रैल में आए उस हिमस्खलन को नहीं भूले हैं जिसने माउंट एवरेस्ट में उनके 16 आदमियों को छीन लिया था.
विश्व की सबसे ऊंची चोटी के इतिहास का यह सबसे भयंकर हादसा था- और इसकी वजह से शेरपा इस काम से दूर जाने लगे हैं, बेहतर पैसे और स्थितियों की मांग करने लगे हैं.
लेकिन उस हादसे के बावजूद खुंबू क्षेत्र के गांवों में लोग कहते हैं कि उनके पास हेमंत में वापस पहाड़ पर जाने के सिवा कोई और चारा नहीं है.
पेमा छेपाल शेरपा के भाई तेनज़िन उन तीन लोगों में से हैं हादसे के बाद जिनका शव नहीं मिल सका है. वह कहते हैं, "मैंने अपनी आंखों के सामने ही अपने भाई को हिमस्खलन का शिकार होते देखा था. मैं अब तक हिला हुआ हूं."
शोषण
पेमा अपने भाई से आगे, दूसरे नंबर के कैंप में थे, जब एवरेस्ट बेस कैंप के नज़दीक, ख़तरनाक खुंबू आइसफ़ॉल एरिया पर यह प्रकृति का क़हर टूटा था.
पुजारिनों के उनके भाई की आत्मा की शांति के लिए पूजा के दौरान अपने आंसू रोकने की कोशिश करते हुए वह कहते हैं, "लेकिन अगले चढ़ाई के मौसम में मुझे फिर पहाड़ पर लौटना होगा क्योंकि मेरे पास कोई और नौकरी नहीं है और एवरेस्ट का मतलब है पैसा."
पेमा जैसा धर्मसंकट और भी कई शेरपा क्लाइंबर का है.

लेकिन उनकी ज़्यादा बड़ी चिंता यह है कि अप्रैल के बाद सैकड़ों शेरपाओं के चढ़ाई अभियानों का बहिष्कार करने के बाद वस्तुतः बदलाव की गुंजाइश वास्तव में बहुत कम है.
उनका कहना है कि पर्वतारोहण के फ़ायदेमंद धंधे में मुख्यतः सबसे अग्रिम पंक्ति पर रहने वाले शेरपा क्लाइंबर का ही शोषण होता है.
हिमस्खलन में मारे गए हर शेरपा के परिवार को 400 डॉलर मुआवज़ा देने के फ़ैसले की चहुंओर आलोचना होने के बाद नेपाल सरकार ने इस राशि को 10 गुना से ज़्यादा बढ़ा दिया. इसने यह भी ऐलान किया कि अभियान संचालकों को शेरपाओं के जीवन बीमा की राशि को 10,000 डॉलर से बढ़ाकर 15,000 डॉलर करना होगा.
नेपाल सरकार ने 2012 में पर्वतारोहण से करीब 35 लाख डॉलर की कमाई की थी, जिसमें से करीब 80 फ़ीसदी एवरेस्ट पर चलाए गए अभियानों से आया था.
हालांकि सरकार पर इस संकट को गंभीरता से न लेने का आरोप लगाया गया था लेकिन शेरपा समुदाय का कहना है कि संचालकों को भी कुछ आक्षेप झेलने चाहिए.
एवरेस्ट बेस कैंप के प्रवेशद्वार नामचे में दावा सोन्जू शेरपा ने मुझे बताया, "इन शेरपाओं में से ज़्यादा युवा और अशिक्षित लड़के हैं जिनका अक्सर पर्वतारोहण एजेंसियां शोषण करती हैं."
"यह एजेंसियां 70 फ़ीसदी से ज़्यादा काम इनसे करवाती हैं जबकि इन्हें ग्राहक से मिलने वाली राशि का 10 फ़ीसदी हिस्सा भी नहीं दिया जाता."
गलाकाट प्रतियोगिता
शेरपा क्लाइंबर मिन्गमा, जो 18 अप्रैल के हिमस्खलन से बाल-बाल बचे थे, कहते हैं कि उनके जैसे कर्मचारी नहीं जानते के जो सेवा वह ग्राहक को प्रदान करते हैं उसके लिए अभियान संचालक कितना पैसा लेते हैं.
"हमें ऐसी जानकारी कभी नहीं मिलती लेकिन एक पर्वतारोहण के मौसम में हमें जो राशि मिलती है वह बहुत कम होती है और उससे कुछ महीने का काम भी नहीं चल पाता."

उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक शेरपा क्लाइंबर एक पर्वतारोहण के मौसम में औसतन 5,000 डॉलर कमा लेता है. और यह मौसम दो होते हैं- वसंत और हेमंत. यह नेपाल की प्रति व्यक्ति आम 650 डॉलर के मुक़ाबले काफ़ी अधिक है.
इसके विपरीत कुछ संचालक सिर्फ़ एक ग्राहक से 80,000 डॉलर तक कमा सकते हैं, और ऐसे ग्राहक उनके पास दर्जनों आ सकते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय संचालक कंपनियों का कहना है कि वह शेरपाओं को अच्छा पैसा देते हैं लेकिन हाल ही में इस धंधे में उतरने वाली नेपाली कंपनियां दाम गिरा रही हैं और इसी की वजह से शेरपा क्लाइंबर की आमदनी पर प्रभाव पड़ा है.
नेपाल पर्वतारोहण एसोसिएशन के अध्यक्ष आंग शेरिंग शेरपा भी यही बात कहते हैं, "सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको नेपाल की अभियान संचालकों की एसोसिएशन से कहना चाहिए कि वह भी अंतर्राष्ट्रीय संचालकों जैसे मानदंड अपनाए."
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने दावा किया कि उनकी अपनी कंपनी पहले ही ऐसा कर रही है.
अभियान संचालकों के अध्यक्ष, दमबर परजुली, मानते हैं कि यह गलाकाट प्रतियोगिता है और न्यूनतम मानदंडों को कायम रखना चाहिए.
वह कहते हैं, "लेकिन विदेशी संचालक कंपनियां भी सब-कुछ सही नहीं कर रही हैं. हमें नहीं पता कि हमारे हिमालय में वह जिन अभियान दलों को लेकर आती हैं उनसे कितना पैसा लेती हैं और उसमे से कितना नेपाल के पास आता है."
रोती हुई मां
हिमस्खलन के दो महीने बाद भी सरकार और संचालक संस्थाएं अब भी शेरपाओं का बीमा बढ़ाने के प्रस्ताव पर सहमत नहीं हो सके हैं और सभी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं.
सरकार इस पर सहमत है कि "पुराने" पर्वतारोहण के नियमों की समीक्षा की जानी चाहिए.
वित्त मंत्री राम शरण महत का तर्क है, "लेकिन शेरपा क्लाइंबर को पर्वतारोहण समुदाय नौकरी पर रखता है, जिनमें विदेशों के लोग भी शामिल हैं- तो उनकी ज़िम्मेदारी भी उन्हीं को लेनी चाहिए."
इसलिए हिमस्खलन में गंभीर रूप से घायल हुए, दावा शेरपा, जैसे लोगों को उम्मीद नहीं है कि कोई बड़ा परिवर्तन होगा.
उस दुर्घटना में टूटी अपनी पसलियां दिखाते हुए वह कहते हैं, "हम रस्सियां तैयार करते हैं, रास्ते बनाते हैं, वजन लेकर हम चलते हैं. क्लाइंबर को चोटी तक पहुंचाने की राह हम दिखाते हैं और फिर आखिर में बचाव कार्य भी हमीं को करने होते हैं."
"मैं चाहता हूं कि हमारी काम करने की स्थितियों में सुधार हो लेकिन जानता हूं कि ऐसा नहीं होगा."
इंटरनेशनल क्लाइंबिंग एंड माउंटेनीयरिंग फ़ेडरेशन के अध्यक्ष फ़्रिट्ज़ व्रिजलैंट को लगता है कि मुख्य समस्या शेरपाओं द्वारा विदेशी क्लाइंबर की शेरपाओं के लिए की जा रही अंतहीन मांग है, जिनमें से कई अनुभवहीन होते हैं.
"हर कोई चाहता है कि वह चोटी पर चढ़े और शेरपा उनकी सारा काम करें और वह बस ऊपर पहुंच जाएं."
"सभी अनुभवहीन विदेशी क्लाइंबर के लिए शेरपाओं का भारी सहयोग ज़रूरी है ताकि वह एवरेस्ट पर पहुंच सकें."
"इन लोगों को बहुत कम ऊंचाई से ही ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ जाती है, लेकिन वह अपने साथ कुछ नहीं ले जाते. शेरपा उनका सारा सामान ले जाते हैं और उनमें से बहुत सारी एकदम अनावश्यक चीज़ें होती हैं."
औसतन हर साल तीस से भी ज़्यादा अभियान दल एवरेस्ट पर जाते हैं. पिछले साल 562 लोग चोटी पर पहुंचे थे.
पर्वतारोहण के विशेषज्ञों का मानना है कि हर संख्या बढ़ना तय है क्योंकि दुनिया भर से ज़्यादा से ज़्यादा लोग धरती की सबसे ऊंची जगह पर पहुंचना चाहते हैं.
शेरपा जानते हैं कि यह वैश्विक उद्योग उन पर टिका है लेकिन उनके पास ताकत बहुत कम है.
हालांकि पिछले क्लाइंबिंग सीज़न पर उन्होंने विराम लगा दिया था लेकिन उनका कहना है कि उन्हें फिर से काम पर जाना पड़ेगा.
खुंबू की एक एक छोटी सी बस्ती, फ़ुर्टे में, मिंग्मा ल्हामू शेरपा अपने दरवाज़े पर बैठी हैं और पिछले तीन साल में अपने दो बेटों को एवरेस्ट में खोने के दर्द से पार पाने की कोशिश कर रही हैं. उनमें से एक अप्रैल की दुर्घटना में ही मारा गया था.
वह कहती हैं, "एवरेस्ट अभियानों पर काम करना और ख़तरनाक हो गया है. लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं?"
"पैसे के लिए, बेटे जाते रहेंगे और मरते रहेंगे जबकि उनकी माएं पीछे जाएंगी- रोती हुईं."
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