पिछले महीने केंद्र में भाजपानीत राजग गंठबंधन की सरकार के काबिज होने के बाद से अनेक राज्यों में राज्यपालों को बदले जाने की चर्चा हो रही है. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल क्रमश: बीएल जोशी व शेखर दत्ता ने अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया है. हालांकि, कई राज्यपालों का कार्यकाल अगले कुछ माह में खत्म होने वाला है और उनमें से ज्यादातर ने इस्तीफा देने का मन बना लिया है, लेकिन जरूरी नहीं कि सभी राज्यपाल इस्तीफा दे ही दें.
दरअसल, पिछले कुछ वर्षो से यह देखने में आ रहा है कि केंद्र की सत्ता में आयी नयी सरकार पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाकर नयी नियुक्ति करती है. हालांकि, राज्यपालों की नियुक्ति और उन्हें हटाये जाने को लेकर विवाद भी हैं और यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है. कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया था कि राज्यपाल किसी भी सरकार या पार्टी की विचारधारा से प्रभावित नहीं होते, वे राज्य में राष्ट्रपति के संवैधानिक प्रतिनिधि होते हैं, इसलिए उन्हें नहीं हटाया जाना चाहिए. 2004 में भी जब यूपीए सत्ता में आयी थी तब भी गुजरात, गोवा, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के राज्यपालों को हटाया गया था. उस वक्त कैलाशपति मिश्र गुजरात, विष्णुकांत शास्त्री उत्तर प्रदेश और बाबू परमानंद हरियाणा के राज्यपाल थे.
वैसे कई जानकारों का यह भी मानना है कि राज्यपाल का राज्य सरकार में कोई सीधा दखल नहीं है, इसलिए इस पद की जरूरत ही नहीं है. लेकिन संविधान में परंपरा को आधार माने जाने के विकल्पों के चलते राज्यपाल का पद अस्तित्व में बना हुआ है. ब्रिटिश राज में वायसराय की जो भूमिका थी, कमोबेश उसे ही संवैधानिक दर्जा देते हुए राज्यपाल के पद में रूपांतरित किया गया है.
राज्यपाल की भूमिका
राज्यपाल की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है. वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और केंद्र में राष्ट्रपति की तरह राज्यों में कार्यपालिका की शक्ति उसके अंदर निहित होती है. राज्यपाल राज्य का प्रमुख जरूर होता है, लेकिन वास्तविक शक्तियां मुख्यमंत्री के पास होती है. यानी राज्य की सारी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती है और सभी कार्य उन्हीं के नाम से होते हैं. राज्यपाल विभिन्न कार्यकारी कार्यो के लिए महज अपनी सहमति देता है. भारतीय संविधान के मुताबिक, राज्यपाल स्वतंत्र रूप से कोई भी बड़ा निर्णय नहीं ले सकता है. राज्य की कार्यकारी शक्तियां मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के अधीन होती है.
राज्यपाल की कार्य अवधि
राज्यपाल की कार्य अवधि उसके पद ग्रहण की तिथि से पांच वर्ष तक होती है, लेकिन इस पांच वर्ष की अवधि के पूरा होने के बाद वह तब तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक उसका उत्तराधिकारी पद नहीं ग्रहण कर लेता. जब राज्यपाल पांच वर्ष की अवधि की समाप्ति के बाद पद पर रहता है, तब वह प्रतिदिन के वेतन के आधार पर पद पर बना रहता है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब राज्यपाल अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति न किये जाने के कारण अपने पद पर बने रहे हैं. हरियाणा के एक पूर्व राज्यपाल बी एन चक्रवर्ती का उदाहरण इस मामले में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वे अपनी पदावधि के समाप्त होने के बाद उत्तराधिकारी की नियुक्ति न होने के कारण तीन वर्ष तक प्रतिदिन के वेतन के आधार पर पद पर बने रहे थे.
राज्यपाल की शक्ति व कार्य
केंद्र में जिस प्रकार कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है, उसी प्रकार राज्य में कार्यपालिका की शक्ति राज्यपाल में निहित है. राज्यपाल की शक्तियां तथा इसके कार्य निम्नलिखित हैं:
कार्यपालिका संबंधी कार्य: राज्यपाल राज्य सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष है तथा राज्य की कार्यपालिका संबंधी शक्ति का इस्तेमाल वह अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से कराता है. वह सरकार की कार्यवाही संबंधी नियम बनाता है और मंत्रियों में कार्यो का विभाजन करता है. साथ ही राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा मुख्यमंत्री की सलाह से उसके मंत्रिपरिषद के सदस्यों को नियुक्त करता है तथा उन्हें पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है. राज्यपाल, राज्य के उच्च अधिकारियों, जैसे- महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है और राज्य के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति को परामर्श देता है. राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य के प्रशासन के संबंध में मुख्यमंत्री से सूचना प्राप्त करे.
जब राज्य का प्रशासन संवैधानिक तंत्र के अनुसार न चलाया जा सके, तो राज्यपाल राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करता है. जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है, तब राज्यपाल केंद्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में राज्य का प्रशासन चलाता है.
भारत के राष्ट्रपति की तरह, राज्य के राज्यपालों के पास कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियां निहित होती हैं. राज्यपालों के पास विवेकाधीन और आपातकालीन अधिकार हैं.
कार्यकारी शक्तियां
– राज्यपाल के पास मुख्यमंत्री सहित, मंत्रिपरिषद, एडवोकेट जनरल और राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार है. मंत्रिपरिषद और एडवोकेट जनरल राज्यपाल की इच्छा पर अपने पद पर बने रह सकते हैं.
– हालांकि, राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल के द्वारा हटाया नहीं जा सकता है.
– राज्यपाल हाइकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को सलाह देते हैं.
– राज्यपाल जिला अदालतों के जजों की नियुक्ति करते हैं.
– अगर राज्यपाल को ऐसा लगता है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व विधानसभा में नहीं है, तो वे विधानसभा में उनके एक प्रतिनिधि को नामांकित कर सकते हैं.
– जिस राज्य में विधानसभा और विधान परिषद है, वहां राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और सामाजिक कार्यो से संबंधित लोगों को विधान परिषद में नामांकित कर सकते हैं.
विधायिका शक्तियां : राज्यपाल को राज्य विधानमंडल का हिस्सा माना जाता है. वह राज्य विधानसभा को संबोधित करने के साथ-साथ विधानसभा को मैसेज देता है. राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल के पास विधानसभा की बैठक बुलाने और उसे भंग या स्थगित करने का अधिकार है. हालांकि, ये सारी शक्तियां औपचारिक हैं और किसी भी निर्णय लेने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के द्वारा सलाह दी जाती है.
आपातकालीन शक्तियां : विधानसभा में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति में अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करे. राज्यपाल विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति को राज्य की स्थिति के बारे में रिपोर्ट करते हैं और राष्ट्रपति को राज्य में राष्ट्रपति शासन का अनुमोदन करते हैं. ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास सारी शक्तियां होती हैं और वे राज्य के कार्यो के लिए निर्देश जारी करते हैं.
वेतन एवं भत्ते : राज्यपाल का वेतन 1.10 लाख रुपये प्रतिमाह है. यह वेतनमान जनवरी, 2006 से प्रभावी माना गया है. राज्यपाल ऐसे भत्ते का भी हकदार है, जिसे संसद द्वारा तय किया जाये. इसके अलावा, उसे रहने के लिए शुल्क मुक्त सरकारी आवास मिलता है.
कब हटाये जा सकते हैं राज्यपाल
राज्यपाल का कार्यकाल पांच साल का होता है, लेकिन अगर सरकार की मंशा के अनुरूप वे इस्तीफा नहीं देते, तो इन परिस्थितियों में उन्हें बरखास्त किया जा सकता है. हालांकि, प्रचलित परंपरा के मुताबिक, प्रधानमंत्री अगर राष्ट्रपति से किसी राज्यपाल को बदलने की अनुशंसा करते हैं और इसके लिए राज्यपाल के भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और संविधान के विरुद्ध कार्यो (यदि ऐसा किया गया हो तो) का कारण देते हैं, तो राष्ट्रपति, राज्यपाल को तुरंत पद से इस्तीफा देने के आदेश देते हैं.
– राज्यपाल की भूमिका को राजनीतिक रंग देना दुर्भाग्यपूर्ण
प्रो विवेक कुमार राजनीतिक विश्लेषक
हमारे देश में संघीय व्यवस्था है. केंद्र में एक स्वायत्त सरकार है और सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत सभी राज्यों में राज्य सरकारें हैं. इन सरकारों के बीच कार्यो और अधिकारों का बंटवारा तय है. इसके लिए तीन सूचियां निर्धारित हैं- संघीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची. भारत में राष्ट्र की स्वायत्तता और संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने के लिए पूरी व्यवस्था बनायी गयी है. बाहरी और आंतरिक गड़बड़ियों, संघर्षो या किसी तरह के विपरीत हालात से निपटने के लिए राष्ट्रीय सरकार का स्थिर होना जरूरी है.
किसी राज्य में हालात बेकाबू होने या राज्य सरकार के असफल होने की दशा में केंद्र को यह पूरा हक है कि वह स्थिति पर नियंत्रण के लिए कार्रवाई करे. राज्यों के भीतर अस्थिरता होने पर विभिन्न कानूनों को लागू कराने के लिए राष्ट्रपति राज्यपाल से संपर्क में रहते हैं. ठीक इसी तरह से राज्यपाल राज्य के हालातों के बारे में राष्ट्रपति को जानकारी मुहैया कराते हैं. हालांकि, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत कोई सरकार इन मामलों में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती है, इसलिए राज्यपाल की नियुक्ति इसी संदर्भ में की जाती है कि वे राष्ट्रपति से सीधे संवाद करते हुए स्थिति पर नजर रखें.
एक दौर वह भी था, जब निपुण लोग राज्यपाल बनाये जाते थे. उनकी नियुक्ति के समय यह नहीं देखा जाता था कि वे किस राजनीतिक दल से संबद्ध हैं. कालांतर में राजनीति ने इस पद के महत्व को कम कर दिया और राज्यपालों पर ये आरोप लगाये जाने लगे कि वे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं. दरअसल, सत्ता का केंद्रीकरण करने के चलते ऐसा हो रहा है. उसके तहत केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल को देखा जाने लगा है.
जहां तक राज्यपालों की प्रासंगिकता का सवाल है तो शक्ति के विकेंद्रीकरण के लिए इस पद का रहना बहुत जरूरी कहा जा सकता है. यदि राज्यपाल नहीं रहेगा, तो राष्ट्रपति राज्य के बारे में किससे कहेगा. राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है. लेकिन हाल के वर्षो में देखा जा रहा है कि सत्ता पक्ष की ओर से उसमें दखलंदाजी की जाने लगी है. मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए चुनाव हारने के उपरांत तुरंत उस राजनेता को राज्यपाल बना दिया जाता है.
गैर-राजनीतिक छवि के लोगों को राज्यपाल नियुक्त किये जाने के संबंध में कहा जा सकता है कि राज्यपाल किसी दल का नहीं होता. उसे संवैधानिक पद की मर्यादा का ख्याल रखते हुए कार्य करना चाहिए. उसे इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि वह राष्ट्रपति का प्रतिनिधि है, न कि केंद्र सरकार का. राजनीतिक छवि के लोगों को इस पद पर नियुक्त करके इस पद की गरिमा कम की जा रही है.
राज्यपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया के संबंध में अक्सर विवाद होते रहे हैं. इसमें पारदर्शिता और संवैधानिक प्रक्रिया अपनाये जाने की बात होती है. इस पद पर नियुक्ति के लिए एक संस्थागत व्यवस्था की आवश्यकता है. देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में एक तय प्रक्रिया है. न्यूनतम अर्हताएं हैं, जिसका पालन किया जाता है. राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में भी ऐसी ही संस्थागत संरचना होनी चाहिए, जिसके तहत न्यूनतम अर्हता, परिपक्वता यानी अनुभव आदि का स्पष्ट जिक्र होना चाहिए. इसके लिए स्पष्ट दिशानिर्देश होना चाहिए. राज्यपाल और उनकी भूमिका को राजनीतिक रंग दिया जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. सरकारी अधिकारियों पर भी भेदभाव के आरोप लगाये जा रहे हैं.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
– राज्यपाल को हटाते वक्त समग्र चर्चा जरूर हो
मनीषा प्रियम
राजनीतिक विश्लेषक
हमारा संविधान राज्यपाल को एक खास दर्जा मुहैया कराता है, क्योंकि हमारा देश ‘राज्यों का संघ’ है. एकल संघीय प्रणाली भले नहीं है, लेकिन संघवाद भी है. केंद्रीय शासन पर ज्यादा बल है. राज्यपाल केंद्र द्वारा राज्यों में नियुक्त मानद अधिकारी हैं. राज्यपाल के कार्य या इनकी भूमिका का जिक्र तो संविधान में किया गया है, लेकिन इनकी नियुक्ति और हटाने की प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है.
संविधान में राष्ट्रपति की निुयक्ति की प्रक्रिया निर्धारित है. पर, राज्यपाल के संबंध में ऐसा वर्णन संविधान में नहीं है. संविधान के प्रावधान में यह स्पष्ट है कि राज्यों में राज्यपाल का पद होना जरूरी है. हालांकि, कई बार देखा जाता है कि राज्यों में कई मामलों को लेकर मुख्यमंत्री और राज्यपाल में रस्साकशी चलती रहती है.
दरअसल, राज्यपाल केंद्र द्वारा नियुक्त एक पदाधिकारी है. एक पदाधिकारी के नाते वे तब तक अपने पद पर रह सकते हैं, जब तक राष्ट्रपति की रजामंदी हो. आमतौर पर उनका कार्यकाल पांच वर्षो का होता है. लेकिन इस बीच यदि रजामंदी खत्म हो जाये, तब वे पद पर नहीं रह सकते. सामान्य रूप से इस पद पर राजनीतिक व्यक्ति की ही नियुक्ति होती है. केंद्र की बननेवाली नयी सरकार राज्यपालों की समीक्षा करती है. यदि उसे लगता है कि मौजूदा राज्यपाल बदला जाना चाहिए, तो वे इस दिशा में पहल करते हैं.
हालांकि, संविधान में राज्यपाल को बदलने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन यदि आप ऐसा कर रहे हैं, तो उसका उचित कारण भी होना चाहिए. बिना वजह ऐसा करना सही नहीं माना जा सकता है.
यह कहना सही नहीं होगा कि यह पद जरूरी नहीं है. वैसे यह भी बहस का विषय है. पर ऐसा भी नहीं है कि यह पद आज अप्रासंगिक हो गया है. अप्रासंगिक इसलिए भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आने की स्थिति में तत्काल राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की जा सकती और राज्य के हालात की जानकारी भी राज्यपाल ही राष्ट्रपति को मुहैया कराते हैं, जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन का फैसला लिया जाता है. राज्य में किसी तरह की अराजक स्थिति में हस्तक्षेप करने के लिए राज्यपाल का होना जरूरी है. इस मामले में सबसे जरूरी तथ्य यह है कि राज्यपाल को अपने पद पर रहते हुए मर्यादित रहना होगा, जो उनके कार्य-कलापों से झलकना चाहिए. उनका कार्य-कलाप किसी तरह के भय या पक्षपात पर आधारित नहीं होना चाहिए.
यह कहना गलत होगा कि गैर-राजनीतिक छवि के लोग ही मर्यादित आचरण अपनायेंगे. कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि गैर-राजनीतिक छवि के लोग भी अपने कार्य-कलापों में स्पष्टता नहीं रख पाते. ऐसे लोग राजनीति से ऊपर रहेंगे, यह कहना सही नहीं होगा. नियुक्ति तो राजनीतिक ही होगी. जरूरी नहीं कि राजनीतिक व्यक्ति बतौर राज्यपाल बुरा ही होगा और गैर-राजनीतिक छवि का व्यक्ति ही इस पद के लिए अच्छा होगा.
राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में बहुत कम ही विवाद देखने को मिलता है. असली विवाद उनके राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर देखने में आता है. खासकर उन राज्यों में जहां गैर-कांग्रेसी सरकारें आती थीं, वहां यह विवाद ज्यादा देखने में आता था. केंद्र की कांग्रेस सरकार द्वारा उन राज्यों को धौंस दिया जाता था. सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बाद ये सब खत्म हो गया और राज्यपाल द्वारा राज्य शासन में अनावश्यक हस्तक्षेप को बहुत कम हुआ है.
जहां तक मौजूदा विवाद का विषय है तो यह नियुक्ति को लेकर नहीं, राज्यपाल के हटाने के संदर्भ में हो रहा है. नियुक्ति पर विवाद होता, तो चुनाव से चंद दिनों पहले बतौर केरल के राज्यपाल शीला दीक्षित की नियुक्ति के समय ही सवाल खड़े किये गये होते. हटाने की प्रक्रिया पर बहस नहीं होती.
आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से एक बार नारायण दत्त तिवारी को आखिर क्यों निष्कासित किया गया, इसकी आज तक कोई चर्चा नहीं हुई. ऐसा कई अन्य राज्यपालों के साथ हो चुका है. बिहार में देवानंद कुंवर को राज्यपाल पद से हटाया गया था. लेकिन उस समय इस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई, लेकिन आज जब कांग्रेस की ओर से नियुक्त राज्यपालों को हटाने की बातें हो रही हैं, तब इस मामले को उठाया जा रह है. यदि नियुक्ति राजनीतिक है, तो हटाया जाना भी राजनीतिक होगा.
नियुक्ति यदि प्रक्रिया के तहत होती है, तो हटाना भी एक प्रक्रिया के तहत ही होना चाहिए. यह नहीं कि नियुक्ति तो राजनीतिक कर दें, लेकिन हटाते समय कहें कि यह गलत है. इसलिए इस संबंध में समग्र और समेकित चर्चा होनी चाहिए, ताकि मामले में असंतुलन नहीं झलके. (बातचीत : कन्हैया झा)