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रामकुमार : उत्पत्ति की अवधारणा के विपरीत

मनीष पुष्कले पेंटर रामकुमार (1924-2018) को हमसे विदा हुए कुछ माह हो गये हैं, ऐसे में उनके चित्रों में पुनरावलोकन करके हम चित्रकला में उनके योगदान को समझने का प्रयास कर सकते हैं. किसी भी कलाकार के मरणोपरांत उसकी समूची कला-यात्रा को देखकर उसके रचनात्मक संघर्ष को ठीक से देखा-समझा जा सकता है. आज से […]

मनीष पुष्कले पेंटर
रामकुमार (1924-2018) को हमसे विदा हुए कुछ माह हो गये हैं, ऐसे में उनके चित्रों में पुनरावलोकन करके हम चित्रकला में उनके योगदान को समझने का प्रयास कर सकते हैं. किसी भी कलाकार के मरणोपरांत उसकी समूची कला-यात्रा को देखकर उसके रचनात्मक संघर्ष को ठीक से देखा-समझा जा सकता है. आज से लगभग दस वर्ष पहले पेरिस के बड़े महल (घ्रा पाले) की दीर्घाओं में इस प्रकार की दो प्रदर्शनियों को देखने का सौभाग्य मुझे मिला था. एक दीर्घा में पॉल गोगां और दूसरी दीर्घा में क्लौड मोने के चित्रों को प्रदर्शित किया गया था.
सुखद संयोग से इस प्रदर्शनी को देखने के लिए मेरे पास अशोक वाजपेयी का साथ था. दोनों प्रदर्शनियों के निमित्त से मुझे बहुत-कुछ सीखने को मिला. संभवतः उन्हीं से मिली दृष्टि से मैंने रामकुमार को देखने-समझने कि कोशिश भी की.
मैं सोचता हूं कि रामकुमार के पुनरावलोकन की एक प्रदर्शनी का आयोजन और संयोजन कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है, जिससे हम उनके चित्रों के माध्यम से अपने आधुनिक समय और उसकी अराजकता पर एक करार व्यंग्य तैयार कर सकते हैं.
उनके चित्रकर्म की वास्तविक क्रमिकता को देखने पर मेरी यह बात सटीकता के साथ सिद्ध हो सकती है. रामकुमार के चित्रों का शुरुआती दौर उनमें मानवाकृतियों की उपस्थिति का था. मौदिग्लिआनि की आकृतियों से प्रभावित उनके इस दौर की मानव आकृतियां 50 के दशक के पूरे होते-होते, अपनी केंद्रीयता से हाशिये पर आते हुए धीमे-धीमे पूर्णतः तिरोहित हो जाती हैं और 60 के दशक की शुरुआत उनके चित्र-पटल पर लैंडस्केप से होती है.
लैंडस्केप या दृश्यचित्रण, जो बाद में उनके चित्रों की मूल पहचान बना, जिसमें दृश्य ही शैली बन गया. साठ के दशक से अपने अंतिम पड़ाव तक रामकुमार के चित्रों में विभिन्न पड़ावों से गुजरते दृश्य की उपस्थिति बनी रही. हां, यह जरूर है कि उसको बनाने के तरीके समय के साथ बदले. उनके चित्रों में यह बदलाव कभी विषय तो कभी माध्यम के कारण से बड़ी खूबसूरती के साथ आये. महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने पहले मनुष्याकृति बनायी और बाद में मनुष्य-कृत विषयों को चित्रित किया.
बाद में उनके उन चित्रों में घर, घाटों की छवियां प्रकट होती हैं, जिनमें किसी स्थान का भाव और स्मृति निहित है. उनके इन चित्रों को मात्र वाराणसी के दृश्य के रूप के देखना रामकुमार जैसे कलाकार को बौना करके देखना है. उनके वे चित्र लगभग वैसे हैं, जिनके रूपक जैसे किसी पूर्व सभ्यता के बचे हुए चिह्न या अवशेष हों. जिनमें से अतीत का वैभव तो प्रगट होता है, लेकिन उसकी निर्मिती करनेवाला मनुष्य नदारद है.
इस प्रकार से मनुष्य की अनुपस्थिति के रूप में हमारे सामाजिक ढांचे की अनुपस्थिति उनके चित्रों में एक तरह की गहरी उदासी या अवसाद को प्रगट करती है. उन्होंने इस दौर में धूसर रंग का प्रयोग भी खूब किया है और बहुत खूबी से किया है, जो मुझे इस विचार पर आने के लिए अलग मार्ग देता है. उनके इन चित्रों को देखकर हड़प्पा या मोहनजोदड़ो जैसे स्थल सहसा याद आ जाते हैं. अस्सी के दशक तक आते-आते रामकुमार के चित्रों से इस प्रकार के सांकेतिक चिह्न भी धीमे-धीमे ओझल हो सकने की तैयारी में आते दिखने लगते हैं.
इसी समय से उनकी रंग-वर्णिका में भी बड़े अंतर पैदा होते हैं और धीमे-धीमे वे तेल रंगों से ऐक्रेलिक रंगों की ओर आ जाते हैं. माध्यम में यह परिवर्तन उनकी शैली, चित्र बनाने के उनके अंदाज में रोचक परिवर्तन लाता है. इसी दौरान उनका दृश्यचित्र प्रकृति केंद्रित भी हो जाता है, जो अंत तक बना रहा.
रामकुमार के पुनरावलोकन से दरअसल हम यह साफ तौर पर समझ सकते हैं कि कैसे उन्होंने उत्पत्ति की अवधारणा और इसकी क्रमिकता के विपरीत जाकर विलुप्तीकरण के चित्र बनाये, जिनके पुनरावलोकन से उनमें छिपी क्रमिकता को साफ तौर पर देखा जा सकता है.
अगर उन्हें जीवन के कुछ वर्ष और मिल पाते, तो संभवतः हमें उनके चित्रों से उस प्रकृति के विलोप का रूपक भी देखने को मिलता, जिसे वे अंत तक चित्रित कर रहे थे. इस क्रम में संभवतः वे खाली कैनवास के उस मुकाम पर आ सकते थे, जहां से कोई भी कलाकर अपनी यात्रा शुरू करता है. आखिर चक्र-पूर्ति की ऐसी गुंजाइश हर बड़ा कलाकार पैदा करता है, जिसमें उसका प्रस्थान बिंदु ही गंतव्य भी बन जाता हो.

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