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सवा सौ करोड़ के देश में पेले-मारडोना क्यों नहीं!

।। अनुज सिन्हा।। (वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर) 12 जून से दुनिया के 32 देशों के खिलाड़ी जब फुटबाल वर्ल्ड कप में अपना जादू दिखायेंगे तो भारतीय दर्शक भी रोमांचित होंगे, तालियां बजायेंगे, लेकिन अपने नहीं, दूसरे देशों के खिलाड़ियों के लिए. सवा सौ करोड़ की आबादीवाले देश भारत का दुनिया के इस सबसे बड़े फुटबाल […]

।। अनुज सिन्हा।।

(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)

12 जून से दुनिया के 32 देशों के खिलाड़ी जब फुटबाल वर्ल्ड कप में अपना जादू दिखायेंगे तो भारतीय दर्शक भी रोमांचित होंगे, तालियां बजायेंगे, लेकिन अपने नहीं, दूसरे देशों के खिलाड़ियों के लिए. सवा सौ करोड़ की आबादीवाले देश भारत का दुनिया के इस सबसे बड़े फुटबाल मुकाबले में कोई खिलाड़ी नहीं होगा. यह अफसोस की बात है. फुटबाल झारखंड, बंगाल समेत भारत के कई राज्यों में गांव-गांव में खेला जाता है, लोकप्रिय है, फिर भी हमारी टीम वर्ल्ड कप नहीं खेल सकती, ओलिंपिक नहीं खेल सकती. क्योंकि वह क्वालीफाई ही नहीं कर पाती. दुनिया के कई छोटे-छोटे देश फुटबाल में करिश्मा कर रहे हैं, पर भारत जैसा विशाल देश पेले-माराडोना जैसे खिलाड़ी पैदा नहीं कर सका. दरअसल, मामला आबादी या क्षेत्रफल का नहीं, किसी खेल को लेकर जुनून का है.

उरुग्वे (आबादी : 33 लाख), बोस्निया-हजर्गोविना (38 लाख), क्रोएशिया (42 लाख), कोस्टारिक (48 लाख) और होंडूरास (79 लाख) जैसे छोटे देश इस बार वर्ल्ड कप खेल रहे हैं, पर भारत-चीन इसमें नहीं हैं. उरुग्वे ने 1930 में न सिर्फ वर्ल्ड कप की मेजबानी की थी, बल्कि चैंपियन भी बना था. ऊपर वर्णित पांच देशों की आबादी को जोड़ भी लें, तो ये झारखंड जैसे छोटे राज्य (आबादी 3.29 करोड़) से काफी कम है. फिर भी इन देशों में इतनी प्रतिभा है कि वे वर्ल्ड कप में खेल रहे हैं और हम तालियां बजा कर ही खुश रहेंगे. आखिर क्यों?

भारतीय टीम को सिर्फ एक बार, 1950 में फुटबाल वर्ल्ड कप खेलने का मौका मिला था. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार वर्ल्ड कप हो रहा था और अचानक कई देशों ने नाम वापस ले लिया. इनमें एशिया से फिलिपींस, इंडोनेशिया और बर्मा थे. इसके चलते भारत को खेलने का मौका मिला. भारत को ग्रुप तीन में इटली, पराग्वे और स्वीडन के साथ रखा गया. लेकिन, अंत समय में भारत ने यह कहते हुए नाम वापस ले लिया कि उसके खिलाड़ियों के पास खेलने जाने के लिए पैसे नहीं हैं. आयोजन समिति कुछ पैसे देने को तैयार भी हुई, लेकिन टीम नहीं गयी. एक और कारण था. 1948 के ओलिंपिक में भारतीय खिलाड़ी नंगे पैर (बगैर जूतों के) खेले थे. भारतीय टीम इसी में सहज थी. पर, बाद में नियम बन गया कि नंगे पैर नहीं खेल सकते.

1950 से 1964 का दौर भारतीय फुटबाल के लिए बेहतर था. 1951 में भारत एशियन गेम्स में चैंपियन बना था. उसने अफगानिस्तान, बर्मा, इंडोनेशिया, जापान, ईरान को हराया था. भारत से उस समय हारी जापान की टीम 1998 से ही वर्ल्ड कप खेल रही है, जबकि भारत इस बार भी क्वालीफाई नहीं कर सका. 1956 में भारत ने ओलिंपिक में सेमीफाइनल खेला था. युगोस्लाविया ने भारत की चुनौती खत्म की थी. टीम में अच्छे खिलाड़ी थे, इसका उदाहरण है कि आस्ट्रेलिया को भारत ने 4-2 से हराया था जिसमें नेविली डीसूजा की हैट्रिक थी. वे ओलिंपिक में हैट्रिक लगानेवाले पहले एशियाई खिलाड़ी बने थे. एशियन गेम्स में भारत ने दक्षिण कोरिया को भी हराया था. अब कोरिया, जापान, ईरान जैसी टीमें मजबूत हो गयी हैं और भारत पीछे चला गया है.

भारतीय फुटबाल के इतिहास में बाइचुंग भूटिया, सुनील क्षेत्री, पीटर थंगराज, शैलेन मन्ना, जरनैल सिंह ढिल्लों, गोस्था पाल, पीके बनर्जी, चुन्नी गोस्वामी जैसे महान खिलाड़ी हुए हैं, लेकिन ये खिलाड़ी भी भारत को ओलिंपिक या वर्ल्ड कप नहीं जिता सके.फुटबाल में टीम खेलती है, अकेले कोई खिलाड़ी टीम को चैंपियन नहीं बना सकता. इन बेहतरीन खिलाड़ियों को अन्य खिलाड़ियों का साथ नहीं मिला. पेले इसलिए पेले बने क्योंकि पूरी ब्राजीलियाई टीम ने उनका साथ दिया. ऐसी ही माराडोना के साथ हुआ. भारतीय टीम 1986 से लगातार प्रयास के बावजूद वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी है (इससे पूर्व वह क्वालीफाइंग राउंड में भी नहीं जा पायी है). जब तक क्रिकेट जैसी सुविधाएं नहीं मिलेंगी, भारतीय फुटबाल को आगे ले जाना मुश्किल है.

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