जंगल, जमीन हवा आदि प्रदूषित होते जा रहे हैं. धरती से लेकर आकाश तक कचरों को ढेर लगता जा रहा है. इसे लेकर दुनिया भर में चिंता व्यक्त की जा रही है. यह परिस्थिति कितनी गंभीर है और इससे कैसे निबटा जा सकता है, इन विषयों पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद डॉ अरविंद कुमार से संदीप कुमार ने बातचीत की. डॉ कुमार मगध विश्वविद्यालय, बोध गया व विनोवा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग के पूर्व कुलपति, सिदो-कान्हू मुमरू विश्वविद्यालय दुमका के पूर्व प्रतिकुलपति तथा कई साइंस जनरल के लेखक-संपादक हैं. वे इन दिनों एसकेएम विश्वविद्यालय दुमका के जंतु विज्ञान विभाग के अध्यक्ष व डीन हैं.
पर्यावरण के सामने जो खतरे हैं, उससे गांव व गांव के लोग किस तरह प्रभावित हो रहे हैं?
भारत गांव में बसता है और गरीबी गांव में बसती है. गरीबी और पर्यावरण में अनुश्रय संबंध है. सुंदर पर्यावरण होने से गरीबी कम होगी, लेकिन प्रदूषित पर्यावरण होने से गरीबी का घनत्व बढ़ेगा. अर्थात गांव को लोगों के सामाने जो पर्यावरण के खतरे हैं उससे बहुत दूर-दूर तक प्रभावित हो रह रहे हैं. दूसरी बात है कि आज जलवायु का जो आना-जाना है वह अनियंत्रित हो गया है. जिससे कृषि पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. गांव में कृषि ही अर्थव्यवस्था की जननी है. अगर कृषि पर पर्यावरण का कुप्रभाव होगा तो स्वाभाविक है कि गांव के लोग आर्थिक तंगी से जुङोंगे. उतना ही नहीं यह पर्यावरण के सामने जो खतरे हैं उससे सूखा, बाढ़ इत्यादि का तो कहना ही नहीं खासकर बिहार के गांव के लोग तो प्रकृति पर ही निर्भर हो गये हैं. हमारी कृषि 70-85 प्रतिशत जल पर निर्भर है. जल स्नेत ही गंदे हो चुके हैं. इसका नतीजा है जो कृषि का उत्पादन होता है. उसका प्राकृतिक बनावट बिगड़ जाता है. उनमें खनिज विटामिन होना चाहिए. उसकी जगह प्रदूषक तत्व ले लेते हैं. जो फल व सब्जियां खा रहे हैं वे कई रोगों के वाहक होते हैं. कुछ गांव तो ऐसे हैं, जहां पेयजल में सल्फर की मात्र इतनी अधिक होती है बच्चों की हड्डियां तथा दांत को कमजोर कर देते हैं. कल-कारखानों का भी असर शहर के बजाय गांव-गांव में दिखने लगा है. सुबह गांव के लोग ही कल-कारखानों में मजदूर का काम करते हैं और शाम को बहुत सारे बीमारियों को लेकर घर आते हैं. जिससे उनके परिवार में संक्रामक रोग होने का भय सताता है. इससे बचने का भी उपाय है, जैसे लोगों के बीच पर्यावरण प्रदूषण के कुप्रभाव का जन जागरण करना होगा साथ ही पॉलिसी बदलनी होगी. गांव में पौराणिक जल संसाधनों को पुन: जीवित करना होगा. जैसे नहर ,पोखर, बड़े-बड़े जलाशय साथ ही साथ प्रशासनिक विकेंद्रीकरण करना होगा. जिला से लेकर गांव के सरपंच तक को पर्यावरण संरक्षण के लिए पावर देना होगा.
बढ़ते प्रदूषण के कारण कृषि अर्थव्यवस्था किस तरह प्रभावित होगी, हाल में एक खबर आयी थीं, जिसमें कहा गया गया था कि बदलते मौसम के कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयेगी. इससे किस तरह की चुनौतियां उत्पन्न होगी ?
बढ़ते प्रदूषण के सिलसिले में इंटरनेशनल राइस इंस्टीट्यूट ने प्रयोग किया है. इसमें कहा गया है कि बरसात के दिनों में अगर वायुमंडलीय तापमान 35 डिग्री से ऊपर हो जाये तो धान की खेती बरबाद हो जायेगी. उसके फूल-सूख जायेंगे और उसमें बांझपन आ जायेगा. सोचने की बात है कि भारत एक धान कृषि प्रधान देश है, अगर बढ़ते प्रदूषण के कारण ग्लोबल वार्मिग अपना रंग दिखाना शुरू करें तो बरसात में 40 डिग्री से ऊपर तापमान हो जाये तो चावल की खेती का अस्तित्व मिट जायेगा और कृषि अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा जायेगी. यह एक उदाहरण हुआ. दूसरी बात आज जो हम हरी सब्जियां व पीले-पीले फल खा रहे हैं. वह मृत्यु कर बीमारियों का संवाहक होता है. जितने भी पौधे हैं वे सिंचित हो रहे हैं प्रदूषित होगा ही ऊपर से पेस्टीसाइड का बौछार. इसका नतीजा यह होता है कि जो हम फल, सब्जियां खाते हैं उसमें सिर्फ न्यूट्रेशन की कमी होती है और इसका कारण होता है कि जो लोग बीमार पड़ते हैं उनकी अर्थव्यवस्था खराब हो जाती है. इतना ही नहीं बढ़ते प्रदूषण के कारण कृषि अर्थव्यवस्था पर तरह-तरह के प्रभाव पड़े हैं. इससे भुखमरी का सामना करना होगा. साथ ही साथ महंगाई तो है ही. इससे निपटने के लिये हमें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा .
वर्तमान में विकास का जो मॉडल है, वह पर्यावरण की क्षति पर आधारित है. क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि पर्यावरण को न्यूनतम क्षति पहुंचा कर अधिकतम विकास हासिल किया जाये. इसके लिये किस तरह की पहल होनी चाहिए?
हां, क्यों नहीं. पर्यावरण को कम से कम क्षति पहुंचाकर अधिकतम विकास किया जा सकता है. बशर्ते हर विकास की नींव इको फ्रेडली हो. अर्थात सरकार बिल्डर तथा एनजीओ सभी मिलकर उस जगह के खास इकोलॉजी कलाइमेट को देते हुए आपस में कॉमन नियम बनाना होगा. जिससे विकास भी हो और प्रदूषण का खतरा भी न हो. आज होता क्या है कि समाज के हर वर्ग स्वच्छंद है जैसे पूंजीपति कल- कारखाने लगा रहे हैं. वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं. सामाजिक संगठन नारे लगा रहे हैं लेकिन ये सभी समाज के अंग एक जगह बैठ कर बिगड़ते पर्यावरण तथा उससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने से बच रहे हैं. हम सुखी तभी रह सकते हैं जब विकास का मॉडल पर्यावरण से दोस्ती रखता हो, पर्यावरण संरक्षण का पूरा भरोसा दिलाता हो और समग्र रूप से तभी किया जा सकता है, जब भारत सरकार इसे प्राथमिकता दें. केवल शोध व संवेदनों से नहीं होगा. आज जरूरत है प्रयोगशाला से भूमि की अर्थात शोध पत्रों में नहीं छपे अपितु जन-जन में जाकर जागरूकता का शंखनाद करें तो तो बढ़ते विकास के खतरे को कम किया जा सकता है. सोचने की बात यह है कि भारत 1947 में एक सूई भी नहीं बना पाता था और आज हमारा देश मिसाइल से लेकर कल-कारखाने के होते हुए सॉफ्टवेयर में आकर दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती बन रहा है, दूसरी ओर जंगल का घनत्व उस अनुपात में बढ़ नहीं पा रहा है नदियां छोटी होती जा रही है. जलाशयों का सतह ऊपर होता जा रहा है. जलवायु का आना-जाना रहस्यमय होता जा रहा है. इन सबों से बचने के हमें जमीनी स्तर से लेकर ऊपरी स्तर तक पर्यावरण प्रबंधन को लेकर जन जागरण को चलाना होगा.
बढ़ते प्रदूषण से स्वास्थ्य के स्तर पर किस तरह के खतरे उत्पन्न हो रहे हैं?
बढ़ते प्रदूषण कई प्रकार के होते हैं. सभी तरह के प्रदूषण मानव शास्त्र पर कई तरह के खतरे उत्पन्न कर रहे हैं. जैसे वायु प्रदूषण से खांसी, दमा, अस्थमा और फेफड़े से संबंधित बीमारियां उत्पन्न हो रही है. साथ ही साथ वायु प्रदूषण से कैंसर कलस्टर भी उत्पन्न हो रहे हैं. वहीं कार्बन मोनो ऑक्साइड से संबंधित कई तरह की बीमारियों से लोग ग्रसित हो रहे हैं. दूसरी ओर अगर जल प्रदूषण की चर्चा की जाये तो कहना ही क्या? इस प्रदूषण से कई तरह की बीमारियों से लोग ग्रसित हैं जैसे चर्म रोग, ग्रेस्ट्रो इनथाराइटीस, जांडीस, डायरिया व बुखार प्रमुख है. एक होता है परमाणु प्रदूषण, उससे हड्डियां कमजोर हो जाती है तथा रक्त प्लेट की संख्या कम हो जाती है. साथ-ही साथ नर्व कोशिकाएं तथा मांसपेशियां ढीली होने लगती हैं. परमाणु प्रदूषण से पुरुषों में चालीस वर्ष के बाद प्रजनन की क्षमता घट जाती है. गठिया बीमारी होते देखा गया है साथ ही साथ आज शहरीकरण के चलते ध्वनि प्रदूषण की वजह से लोगों में रोजाना सिर दर्द होता है. नींद कम आने लगती है. बैचेनी बढ़ जाती है तथा सुनने की क्षमता घट जाती है और 60-70 वर्ष में मनुष्य ध्वनि प्रदूषण से काफी प्रभावित हो जाता है.
बड़ी नदियों पर तो खतरे हैं ही, लेकिन वैसी छोटी नदियां जो दो तीन जिलों में गुजरती हैं. वे सूख रही हैं. बल्कि अब उनकी पहचान मिट रही है. वे लुप्त प्राय हो रही हैं. इसके क्या कारण हैं. इसे कैसा बचाया जाये. राज्य सरकारें व स्थानीय लोग इसके लिये क्या कर सकते हैं?
छोटी नदियां सभी मौसमी होती है. जो 50-100 किलोमीटर लंबी होती है. वर्षा होने पर इसमें पानी होता है नहीं तो सूखी रहती है. इसमें क्षरण का कई मुख्य कारण हैं. सबसे बड़ा कारण है कि मानव मूल्यों का क्षरण. आजकल एक आदमी दूसरे आदमी का बिना पैसे दिये जमीन लेने के आतुर है. शहर या गांव में घर बनाता है तो अपने अगल-बगल सड़क को काटकर छोटा कर अपने काम में लाना बहादुरी समझते हैं. ठीक उसी प्रकार सभी छोटी-छोटी नदियां बड़े-बड़े बाहुबलियों के द्वारा कब्जा की जा रही हैं. नदियों में ही शहर बस गये हैं. उदाहरण के तौर पर नवादा एक शहर है जिसके किनारे से कई वर्षो पहले एक छोटी नदी बहा करती थी. लेकिन आज वह नदी एक लकीर बनकर रह गयी है. उस नदी के सारे जमीन पर बिना पैसा दिये बाहुबलियों ने बड़े-बड़े भवन बना लिये. जिला प्रशासन राजनीतिज्ञ मुकदर्शक बने रहे . कई उदाहरण हैं कि आज छोटी-छोटी नदियां, खेत बागान व फार्म हाउस में परिवर्तित हो रहे है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो छोटी नदियां जल चक्र के द्वारा जमीन के भीतर जलस्तर को बरकरार रखेंगे. अत: समय आ गया है कि राज्य सरकार व स्थानीय लोग की चिंता करने की जरूरत है.
हमारी सरकारें पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिये किस हद तक सचेत व संवेदनशील दिखती हैं. इसके संरक्षण में स्थानीय निकायों की भूमिका कैसी बढ़ायी जाये?
सचेत रही है इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन फायदा उपेक्षित नहीं हो पाया है. इसके अनेक पहलू हैं. केवल सरकारें दोषी नही है पर्यावरण संरक्षण के नाम पर विश्वविद्यालयों में तथा बड़े-बड़े इंटरनेशनल एनजीओ के द्वारा करोड़ों के प्रोजेक्ट लिये थे, लेकिन कार्य कुछ भी नहीं हुआ. इसके संरक्षण के लिये जरूरत है स्थानीय निकायों के साथ-साथ हर मानव को आगे आने की. जैसे एक परिवार में किसी व्यक्ति को बुखार आ जाता है उसी प्रकार आज जरूरत है एक आदमी पर्यावरण को गंदा कर रहा है तो दूसरा मूकदर्शक बना नहीं रहे. अपितु इसकी चिंता करें पर्यावरण के डॉक्टर के पास जाये. धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति जन-जन तक फैलेगी और पर्यावरण हमारा असली घर होगा. केंद्र में नवगठित मोदी सरकार धन्यवाद की पात्र हैं, जो गंगा संरक्षण व जल से संबंधित नया विभाग बनायी है. फिर भी मेरी राय है कि जल से काम नहीं चलेगा . पर्यावरण को समग्रता के रूप में देखा जाये और जितना जरूरी सुंदर परिवार के साथ सुंदर अपना जीवन है उतना ही जरूरी सुंदर पर्यावरण है.
आवासीय भवनों के तेजी से बढ़ते निर्माण के कारण पत्थरों की मांग बढ़ी है. इसके लिये हर क्षेत्रों में पहाड़ों को नष्ट किया जा रहा है . गांव के छोटे-छोटे पहाड़ी नुमा टीले भी तोड़े जा रहे हैं. इससे किस प्रकार की समस्या उत्पन्न हो रही है या होगी ?
पहाड़ों को तोड़ना पर्यावरण के हृदय को तोड़ने जैसा होता है. पहाड़ों का जलवायु पर बहुत बड़ा नियंत्रण होता है. पहाड़ को तोड़ देने से जलवायु का चक्र कुप्रभाव पड़ेगा. ऐसे इस पृथ्वी पर जितनी भी अजैविक पदार्थ है जैसे नदी, पहाड़, जंगल ,समुद्र इन सबों का अपना महत्व है. इसको इस रूप में समझा जा सकता है. एक दीवार घड़ी पच्चीस पुर्जो से बना है सभी पुर्जे आपस में एक-दूसरे से सुचारू रूप से संबंधित हैं. जब तक वह सुचारू रूप से लगा है तभी तक वो समय दे रहा है अगर एक भी पुर्जे ढीला व खराब हो जाये तो उतनी बड़ी घड़ी होते हुए भी समय देना बंद कर देगी. ठीक उसी प्रकार पहाड़ या नदी, जंगल हो या समुद्र सभी इस जैवमंडल के कल पूर्जे हैं. एक भी पुर्जे को क्षति पहुंचती है यानी पहाड़ों को नष्ट किया जाता है तो इससे पर्यावरण की अधिक क्षति होगी.
पर्यावरण के संरक्षण को लेकर किस तरह जागरूकता लायी जाये? कितने व्यापक पैमाने पर इस तरह के जागरूकता कार्यक्रम चलाये जायें, ताकि उसके परिणाम दिखे?
पर्यावरण संरक्षण के लिये दो बाते निहायत जरूरी हैं. जनजागरण व पर्यावरण प्रबंधन. पर्यावरण संरक्षण के लिए कई सरकारी नियम बने हैं. राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण कंट्रोल बोर्ड बना दिये गये हैं. हजारों एनजीओ हैं, लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं मिला. जरूरत है जनजागरण कार्यक्रम चलाने की ताकि पर्यावरण को लोग अपने शरीर का एक अंग मानें.
डॉ अरविंद कुमार
पूर्व कुलपति
मगध विश्वविद्यालय, बोध गया
व विनोवा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग