किसानों को हर साल खेती में भारी क्षति का सामना करना पड़ता है. समय पर बारिश नहीं होने से किसानों की मेहनत तो बेकार हो ही जाती है साथ ही खेतों में डाले गये बीज तथा खाद भी बरबाद हो जाते हैं. किसानों को अब यह सलाह दी जाती है कि वे वैकल्पिक खेती की ओर ध्यान दें. इसी सिलसिले में पंचायतनामा संवाददाता ने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में मौसम विज्ञान विभाग के अध्यक्ष अब्दुल वदूद से बातचीत की और किसानों के लिए उनकी समस्याओं का समाधान जानने की कोशिश की.
राज्य में किसानों के सामने मॉनसून पूर्व किस प्रकार की चुनौतियां है? कृषि के क्षेत्र में किस प्रकार की मूलभूत समस्याएं हैं?
देखिये, झारखंड में खेती के क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां हैं. दूसरे प्रदेश के मुकाबले यहां पर मिट्टी और जलवायु से संबंधित बहुत सारी चुनौतियां हैं, जिससे जूझते हुए यहां के किसान खेती करते हैं. एक चुनौती तो यह है कि यहां की मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम है. अधिकतर क्षेत्र में अम्लीय मिट्टी है. मिट्टी की जलधारण क्षमता कम है और जो सतह है वो काफी ऊंचा-नीचा है. यानी कहीं ढलान है तो कहीं समतल है. झारखंड में मॉनसून की बारिश अच्छी होती है, लेकिन इसके वितरण में हाल के वर्षो में काफी अनियमितता भी देखी गयी है. इस वजह से अकसर कृषि सुखाड़ जैसी परिस्थिति उत्पन्न होती है. यह कह सकते हैं कि झारखंड में मौसमी सुखाड़ सामान्यत: तो कम ही आता है, लेकिन कृषि सुखाड़ अकसर यहां आता है. गढ़वा, पलामू का क्षेत्र रेन शैडो क्षेत्र होने के कारण वहां बारिश कम होती है. साथ ही सुखाड़ की भी अधिक संभावना बनी रहती है. मिट्टी से संबंधित या खेती से संबंधित जो अड़चने हैं, उनको वैज्ञानिक पद्धति से मैनेज किया जा सकता है, लेकिन बारिश और वितरण की अनिश्चितता को मैनेज करने में किसानों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.
झारखंड प्रदेश को प्राकृतिक वरदान प्राप्त है कि वार्षिक वर्षा जो लगभग 1400 मिली मीटर है, हर साल कमोबेश होती है. लेकिन इसके वितरण में अनियमितता के कारण किसानों को बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है.
जल से संबंधित जो समस्याएं हैं, उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है. पहला, समर रेन या मॉनसून आगमन से पहले मार्च, अप्रैल, मई तथा जून माह में स्थानीय स्तर की बारिश में काफी कमी पायी गयी है. स्थानीय स्तर की बारिश वह होती है, जिसमें बादल का निर्माण अरब सागर में नहीं बनता. यह बादल स्थानीय स्तर पर बनता है और बारिश होती है. इन तीन से चार महीनों में 120 से 125 मिली मीटर बारिश सामान्य तौर पर प्राप्त होती थी, जो हाल के वर्षो में घट कर 40 से 50 मिमी हो गयी है. इस बारिश का झारखंड के कृषि खास कर खरीफ खेती के लिए बहुत ही महत्व है. यहां मिट्टी की संरचना कुछ ऐसी है कि नमी के अभाव में इसको जोतना कठिन है. बारिश सामान्य यदि हो तो किसान फायदा उठा कर समर प्लानिंग (ग्रीष्मकालीन योजना) करते हैं, जो कि एक अनुशंसित तकनीक है. जिससे खेती की तैयारी के साथ खेती में मौजूद कीड़े-मकोड़े का नाश होता है. और साथ ही खेती में जल संरक्षण भी होता है. खेत तैयार रहने पर 10 जून के आसपास मॉनसून के आते ही किसान अपनी फसलों का बुआई समय पर प्रारंभ कर सकते हैं. लेकिन समर रेन या मॉनसून पूर्व बारिश के अभाव में किसान अपने खेतों को तैयार नहीं कर पाते हैं. और मॉनसून के सही समय पर आने के बावजूद फसलों की बुआई आच्छादन में विलंब हो जाता है, जिससे उपज में काफी कमी होती है.
दूसरी परिस्थिति शुरुआती कृषि सुखाड़ अर्थात मध्य जून से मध्य जुलाई के दरम्यान बारिश का कम होने से कृषि सुखाड़ जैसी परिस्थिति बनती है जिससे फसलों का आच्छादन काफी कम हो जाता है. विशेष कर धान का. झारखंड में धान की फसल लगभग 18 लाख हेक्टेयर में होती है, लेकिन इस तरह की परिस्थिति हो जाने पर गत कई वर्षो में इसका आच्छादन घट कर लगभग आधा हो जा रहा है. ऐसी परिस्थिति से निबटने के लिए किसानों के पास एकमात्र विकल्प यह है कि आगे बारिश होने की स्थिति में परती पड़े खेतों में कम अवधि और कम पानी की आवश्यकता वाले फसल जैसे मक्का, मडुवा, उड़द, कुरथी आदि लगाये जा सकते हैं. तीसरी परिस्थिति है मध्य अवधि कृषि सुखाड़ अर्थात मध्य जुलाई से मध्य अगस्त के बीच कम बारिश होना. ऐसी परिस्थिति होने पर किसानों को ज्यादा नुकसान होता है. झारखंड में या तो शुरुआती सुखाड़ होता है या मध्यावधि सुखाड़ होता है. किसी एक वर्ष में दोनों परिस्थितियां नहीं होती हैं. इसका मतलब यह हुआ कि जब मध्यावधि सुखाड़ की स्थिति हो तो किसान अपने खेतों का पूर्ण आच्छादन कर चुके होते हैं. कीमती कृषि इनपुट और मेहनत लगा चुके होते हैं. फसल लहलहा रही हो तो ऐसे में सुखाड़ हो जाये तो यह सुखाड़ शुरुआती सुखाड़ की तुलना में ज्यादा कमर तोड़ देने वाली होती है. शुरुआती सुखाड़ होने पर किसानों का कम से कम खाद, बीज, मेहनत बच जाता है. लेकिन मध्यावधि सुखाड़ होने पर किसानों के पास कोई विकल्प नहीं बच जाता है. सिवाय इसके कि अगर शुरुआती दिनों में जब फसल लगायी जा रही थी और जब अच्छी बारिश हो रही थी उसी समय किसान अपने खेतों के आसपास छोटे-छोटे गड्ढों में या बनाये गये वॉटर हारवेस्टिंग तालाबों में वर्षा जल जमा किया हो तो दूसरी वाली परिस्थिति यानी मध्यावधि सुखाड़ के कारण जो फसल नष्ट हो रही है, उसे सिंचाई देकर बचाया जा सकता है.
सिंचाई की समस्या को कैसे आसान तरीकों से दूर किया जा सकता है?
ऐसी परिस्थिति में झारखंड के किसानों के लिए एक मात्र विकल्प यह है कि वो वर्षा जल का संग्रहण तथा संरक्षण करें. सुखाड़ की स्थिति में फसलों को जमा किये पानी से सिंचाई कर उसे बचायें. झारखंड में सिंचाई साधन की कमी है. लेकिन सिंचाई की दूसरी तकनीक जैसे ड्रिप इरिगेशन या इसी तरह की दूसरी तकनीक का इस्तेमाल करें. साथ ही कम पानी में ज्यादा से ज्यादा फसल को जीवनदान दिया जा सकता है.
किसान किस प्रकार पानी की कमी के बावजूद फसल की उत्पादकता बढ़ा सकते हैं? वैकल्पिक खेती के विषय में आपकी क्या राय है?
खेती के लिए सबसे मूल जरूरत पानी है. वर्तमान स्थिति को देखते हुए आमतौर पर किसानों को यह सलाह दी जाती है कि वर्षा जल के संग्रहण व संचयन करने के साथ बदल रहे परिवेश में फसलों का विविधिकरण करें. अर्थात दूसरी फसलों को लगायें. राज्य में 24 लाख हेक्टेयर खेती योग्य जमीन है, जिसमें 18 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है. खरीफ फसल में धान एक ऐसी फसल है, जिसे सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है. मानसून की अनियमितता देखते हुए किसान धान की खेती के मोह को कम करें. खासकर ऊपरी और मध्यम जमीन, जहां उनके पास खेती के लिए विकल्प मौजूद हैं. मक्का, मडुवा, दलहन तथा तेलहन फसल लगायें. इन फसलों को जल की कम आवश्यकता पड़ती है. साथ साथ इन फसलों में सुखाड़ रोधी क्षमता भी है. आनेवाले दिनों में परिस्थिति क्या होगी, इसका मात्र अनुमान लगाया जा सकता है. चूंकि मौसम जटिल प्रक्रिया है. मेरी यह राय है कि किसान मौसम आधारित खेती करें. किसान वैकल्पिक कृषि प्रणाली का उपयोग करें. जैसे निचली जमीन के लिए 31 जुलाई तक किसान रोपा कर सकते हैं. 15 अगस्त के बाद धान का रोपा बिल्कुल नहीं करना चाहिए. अगर मध्य सितंबर तक ज्यादा बारिश नहीं हुई हो और जल जमाव की संभावना नहीं हो तो कम अवधि वाली मौसमी सब्जियां की पैदावार की जा सकती है. कोई भी सीधी बुआई वाली फसल चाहे वो अल्पावधि वाली ही क्यों न हो, निचली जमीन में नहीं लगाना चाहिए. क्योंकि मध्यम से भारी बारिश होने पर ये फसल बरबाद हो जायेंगी. ऊपरी जमीन पर 25 जून से 31 जुलाई तक जो भी फसल का किसान आच्छादन करते हैं, ध्यान रखें कि वह कम अवधि वाली हो. 31 जुलाई के बाद ऊपरी जमीन में कोई भी फसल लगाने का औचित्य नहीं है, क्योंकि जलधारण क्षमता कम होती है. बीच में बारिश होने के बावजूद नमी का अभाव होती है. इसलिए उसमें शकरकंद लगाया जा सकता है. मध्यम जमीन की जलधारण क्षमता ऊपरी जमीन से अधिक होती है. आकास्मिक वैकल्पिक फसल योजना के लिए मध्यम जमीन काफी उपयुक्त है. एक अगस्त से 31 अगस्त तक अगर खेत खाली पड़ा है, तो किसान वहां पर कुरथी, मक्का, मडुवा, अरहर, उड़द, मूंग, आलू, टमाटर या दूसरी मौसमी सब्जियां और अंतर फसल जैसे चारा, मक्का तथा चारा लोबिया लगा सकते हैं. यदि किसान शहर के नजदीक हों तो गेंदा फूल के विभिन्न किस्म की खेती कर अच्छी कमाई कर सकते हैं.
सरकार किसानों को किस रूप में सहायता कर रही है? मौसम की जानकारी उन्हें कैसे मिल सकती है?
भारत सरकार की ओर से किसानों को मौसम के हिसाब से सटीक सलाह हर रोज देने की व्यवस्था की गयी है. भारत मौसम विज्ञान विभाग द्वारा संपोषित मौसम कृषि परामर्श सेवा दी जाती है, जिसके अंतर्गत झारखंड के सभी 24 जिलों के लिए सप्ताह में दो दिन, प्रत्येक शुक्रवार तथा मंगलवार को अगले पांच दिनों का मौसम पूर्वानुमान के साथ कृषि परामर्श एक बुलेटिन के रूप में दी जाती है. जिसे कृषि विभाग के अधिकारी जैसे जिला कृषि पदाधिकारी, प्रखंड कृषि पदाधिकारी, प्रज्ञा केंद्र तथा इंडियन मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट से प्राप्त किया जा सकता है. झारखंड में रांची, दुमका तथा पूर्वी सिंहभूम में ये केंद्र संचालित हैं. ये केंद्र नजदीक के किसानों को बुलेटिन की छपी कॉपी भेजते हैं. सुदूर गांवों के जागरूक किसान यह बुलेटिन प्रज्ञा केंद्र से अनुरोध कर प्राप्त कर सकते हैं. इसके अलावा जागरूक किसान खास कर खरीफ फसल के विषय पर किसी जानकारी पाने के लिए इन नंबरों पर फोन कर सकते हैं.
रांची तथा आसपास के क्षेत्रों के किसानों के लिए यह नंबर है – 9431371693 व 9431354072.
पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम तथा सरायकेला खरसावां जिला के किसानों के लिए यह नंबर है – 933729740. दुमका-राजमहल के किसान 9661143150 पर खेती के विषय में परामर्श ले सकते हैं. भारत सरकार के किसान पोर्टल पर झारखंड के 68,000 किसानों ने निबंधन कराया है. इन किसानों को मोबाइल पर मैसेज भेज कर मॉनसून की स्थिति तथा कृषि परामर्श दी जा रही है.
कहा जा रहा है कि बारिश कम हो सकती है. इस वर्ष मॉनसून की क्या स्थिति होगी?
इस बार मॉनसून के बारे में कहा जा रहा है कि एलिनो का प्रभाव देखा जा रहा है. एलिनो ऐसी प्रक्रिया है जो प्रशांत महासागर में पानी की सतह का तापमान सामान्य से ऊपर हो जाये तो ये एलिनो की स्थिति हो जाती है. ऐसी स्थिति में भारत तथा दूसरे एशियाई देशों में मॉनसून की बारिश कम होती है. एलिनो की परिस्थिति बनी नहीं है, लेकिन 60 प्रतिशत संभावना है कि इस वर्ष एलिनो का असर पड़ेगा. एलिनो तथा इसके दूसरे मापदंडों के आधार पर भारत मौसम विज्ञान विभाग ने भारत में सामान्य से पांच प्रतिशत कम बारिश होने की आशंका जतायी है. लेकिन इससे किसानों को विचलित होने की जरूरत नहीं है. यह लगभग सामान्य है. अगर एलिनो का असर हुआ तो ज्यादा संभावना है कि मॉनसून के दूसरे भाग में यानी जुलाई, अगस्त के महीने में बारिश कम हो सकती है. इसलिए शुरुआती दिनों में ही जब अच्छी बारिश हो तो किसान वर्षा जल का संग्रहण अवश्य कर लें.
डॉ अब्दुल वदूद
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में मौसम विज्ञान विभाग के विभागध्यक्ष