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रंगमंच और हाशिये के सवालों का कोरस

आजादी के मोहभंग और बढ़ते सामाजिक अंतर्विरोधों के प्रभाव से रंगमंच समाज के नजदीक आया और उसने जनता के बुनियादी मुद्दों और सरोकारों से जुड़ने की कोशिश शुरू की. लेकिन, उदारीकरण के बाद से बाजार और पूंजी के कुचक्र से रंगमंच भी नहीं बचा और उसमें एक किस्म का उपभोक्तावाद पसर गया. देश के महानगरों […]

आजादी के मोहभंग और बढ़ते सामाजिक अंतर्विरोधों के प्रभाव से रंगमंच समाज के नजदीक आया और उसने जनता के बुनियादी मुद्दों और सरोकारों से जुड़ने की कोशिश शुरू की. लेकिन, उदारीकरण के बाद से बाजार और पूंजी के कुचक्र से रंगमंच भी नहीं बचा और उसमें एक किस्म का उपभोक्तावाद पसर गया.

देश के महानगरों में होनेवाले रंगमंच का बहुलांश सरकार द्वारा दिये जानेवाले अनुदान पर और कुछ हिस्सा काॅरपोरेट्स के प्रायोजन पर निर्भर है. सरकार से अनुदान पानेवाले और रंगमंच के सत्ता-संस्थानों से संबद्ध रंगकर्मियों की पहुंच में ही ज्यादातर संसाधन हैं. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि रंगमंच के समस्त संसाधन दिल्ली में ही केंद्रित हैं. इससे इतर जो देश के सुदूर शहरों, कस्बों और गांवों का रंगमंच है, उसके पास न तो कोई संसाधन है और न ही प्रदर्शन, पूर्वाभ्यास, प्रशिक्षण या रोजगार जैसी कोई बुनियादी संरचना ही उपलब्ध है. वह अधिकांशतः रंगकर्मियों के जुनून, उत्साह और सामाजिक-राजनीतिक दायित्वबोध से संचालित होता है.
यह एक बड़ी विसंगति है कि जिनके पास संसाधन हैं, उनके पास कहने को कुछ नहीं है, और जिनके पास नया कथ्य और रचनात्मक ऊर्जा है, नये-नये प्रयोगों के लिए साहस है, उनकी संसाधनों तक पहुंच नहीं है! वे ही लोग भारतीय रंगमंच को समाज और दर्शक से जोड़ने की, उसे सामुदायिक जीवन का हिस्सा बनाने की बड़ी भूमिका निभाते और इस तरह रंगमंच को एक प्रासंगिक कला माध्यम के तौर पर जीवित रखते आ रहे हैं. दुर्भाग्य से यह जो संसाधनहीन तबका है, बहुसंख्यक होते हुए भी हाशिये पर जी रहा है. मुट्ठी भर लोग, जिन्होंने संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाये रखा है, वे खुद को मुख्यधारा मानते हैं. उनके लिए रंगमंच सामान्यतः विशिष्ट वर्गों के दिल बहलाव का माध्यम है. इसलिए उनका अधिक जोर तड़क-भड़क, तकनीक और प्रचार पर रहता है. रंगमंच को जरिया बनाकर वे आर्थिक संपन्नता, प्रसिद्धि और दबदबा हासिल करने में जुटे रहते हैं. इस प्रक्रिया में संसाधन कुछ हाथों में सिमटते जाते हैं और हाशिया बढ़ता ही जाता है.
सत्तर-अस्सी के दशक में साहित्य और जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह रंगमंच में भी एक नयी प्रवृत्ति आयी. आजादी के मोहभंग और बढ़ते सामाजिक अंतर्विरोधों के प्रभाव से रंगमंच समाज के नजदीक आया और उसने जनता के बुनियादी मुद्दों और सरोकारों से जुड़ने की कोशिश शुरू की. प्रगतिशील और वामपंथी संगठन इस दौर में प्रमुखता से उभरे और रंगकर्म एक राजनीतिक गतिविधि के तौर पर समाज में जगह बनाने लगा. हालांकि यह रंगमंच जिन मुद्दों और सवालों को उठा रहा था,
वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की जीवन स्थितियों से सीधे जुड़ते थे. भ्रष्टाचार, मूल्यों का क्षरण, रोजगार, सांप्रदायिकता जैसे विषय ही केंद्र में रहे. स्त्रियों की अस्मिता के प्रश्नों को जरूर शामिल किया गया, पर इसी दौर के मराठी और कन्नड़ रंगमंच से उलट हिंदी रंगमंच में समाज के वास्तविक हाशिये यानी दलितों, आदिवासियों और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक शोषण-उत्पीड़न को प्रमुखता नहीं मिल पायी.
महाराष्ट्र में यही वह दौर था, जब अांबेडकर के प्रभाव में अस्पृश्यता और सामाजिक श्रेणीबद्धता के खिलाफ दलित रंगमंच ने आकार लेना शुरू किया और देखते-देखते वह एक सशक्त आंदोलन में परिणत हो गया.
हिंदी में वैसा कोई आंदोलन विकसित ही नहीं हो सका, इसलिए प्रगतिशील-वामपंथी और कलावादी- दोनों ही धाराओं में समाज के अंतिम व्यक्ति और मानवीय गरिमा से रहित समुदायों के न सवाल आये और न उनको जगह मिल सकी. वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक उत्पीड़न को लेकर हिंदी रंगमंच में एक उदासीनता या निषेधात्मकता बरकरार ही रही. उदारीकरण के बाद से बाजार और पूंजी के कुचक्र से रंगमंच भी नहीं बचा और उसमें एक किस्म का उपभोक्तावाद पसर गया. यह रंगमंच के विकास की एक उलटी प्रक्रिया साबित हुई, जहां तमाम संसाधनों पर, मंचीय स्पेस पर कुछ ताकतवर लोगों का प्रभुत्व बढ़ता गया और वह अपनी स्वाभाविक दिशा से भटक गया.
राजेंश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी

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