<p>सरकारें आमतौर पर संवेदनाओं के लिए नहीं जानी जाती और न ही ये उनकी कोई योग्यता होती है. लेकिन भारत सरकार ने मूसल में मारे गए 39 भारतीयों के मामले में जैसा रुख अपनाया वो तो संवेदनाओं से परे चला गया. </p><p>आंकड़े बताते हैं कि काम के लिए देश के बाहर जाने वाले मजदूर भारत की अर्थव्यवस्था में सालाना क़रीब 45 अरब डॉलर का योगदान करते हैं. लेकिन क्या सरकार का रुख उनके लिए संवेदनशील दिखता है?</p><p>जून 2014 में इस्लामिक स्टेट ने इराक़ के मूसल शहर में 39 भारतीयों का अपहरण कर लिया था. 18 जून को भारतीय विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने प्रेस कान्फ्रेंस कर ये जानकारी दी कि मूसल में इस्लामिक स्टेट ने 40 भारतीयों का अपहरण कर लिया है.</p><p>लगभग दो साल से ज़्यादा वक्त गुज़र जाने के बाद भारत सरकार अपने सूत्रों के हवाले से ये दावा करती रही कि सभी भारतीय जीवित हैं. सात महीने पहले इन भारतीयों की लाशें मिली और उनकी पहचान डीएनए टेस्ट के ज़रिए की गई, तब यह सच्चाई देश के सामने आई कि वे सभी भारतीय अब जिंदा नहीं है, उनकी मौत हो चुकी है. </p><p>लेकिन इतना सब हो जाने के बाद भी सरकार ने चुप रहना ही बेहतर समझा. आखिरकार जब इराक़ी अधिकारियों ने ये कह दिया कि वे अपनी जांच के नतीजों की घोषणा करने वाले हैं, तब भारत सरकार को इस दुखद सच से पर्दा उठाना ही पड़ा.</p><h1>ये कैसा संसदीय प्रोटोकॉल?</h1><p>इस पूरे घटनाक्रम में सबसे ज़्यादा बुरा और परेशान करने वाला पल वो था जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने 39 भारतीयों के मारे जाने की सूचना उनके परिजनों को देने से पहले संसद के ज़रिए पूरे देश को सुना दी. </p><p>सुषमा स्वराज ने कहा कि उन्होंने ये जानकारी साझा करने के लिए सबसे पहले संसद को इसलिए चुना क्योंकि यह संसदीय प्रोटोकॉल का मसला था. </p><p>ये अपने आप में एक अजीब तरह का तर्क है क्योंकि ये बात तो पूरी दुनिया में समझी जा सकती है कि किसी की भी मौत की ख़बर सबसे पहले उसके परिजन को ही दी जाती है उसके बाद उसे आम जनमानस से साझा किया जाता है. </p><p>ये कोई बहुत अलग सा मामला नहीं था कि भारत सरकार ने इसमें कुछ नया या अनोखा किया हो. मारे गए 39 भारतीय उन्हीं 40 युवाओं में से हैं जो इराक़ में नौकरी की तलाश में गए थे और जिन्हें इस्लामिक स्टेट ने मूसल पर कब्जा करने के साथ ही पकड़ लिया था. </p><p>उस इलाके में इराक़ी सेना की पकड़ कमजोर हो गई थी और ये सभी युवा वहां फंस चुके थे. आखिरकार सेना को मूसल में अपना कब्जा जमाने में चार साल लग गए.</p><h1>क्या सरकार को पहले से भारतीयों की मौत का पता था?</h1><p>संसद में जवाब देते हुए सुषमा स्वराज ने कहा कि वे तब तक उन भारतीयों को मृत घोषित नहीं करना चाहती थीं जब तक वे खुद इस बात की पुख्ता जानकारी न जुटा लेतीं. </p><p>इसी सिलसिले में जब पिछले साल जुलाई की शुरुआत में इराक़ी सेना ने मूसल में अपनी पकड़ दोबारा बनाई तब विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह को पहले जुलाई और फिर अक्टूबर में इराक़ भेजा गया, जिससे वे वहां फंसे भारतीयों की तलाश कर सकें. </p><p>जनरल सिंह ने वहां बनी कब्रों में भारतीयों की कब्रों को खोजा और फिर उनके परिजन के डीएनए सैम्पल से इनकी जांच कर ये बात सुनिश्चित की कि सभी भारतीयों की मौत हो चुकी है. </p><p>लेकिन खुद सुषमा स्वराज के बयान से ये महसूस होता है कि डीएनए जांच करने से पहले भी ऐसी कई चीजें उन मृतकों के पास मिली थीं जिनसे उनके भारतीय होने की पहचान कर ली जाती. </p><p>जैसे किसी के लंबे बाल थे, किसी के पास पहचान पत्र थे तो किसी के पास हाथ में पहना जाने वाले कड़ा था. मृतकों के परिजन से पिछले साल अक्टूबर मे डीएनए सैम्पल ले लिए गए थे, इसका मतलब है कि सरकार को उसी वक्त आभास हो गया था कि उन सभी भारतीयों की मौत हो चुकी है, ऐसे में सरकार को कोई रास्ता निकालना चाहिए था जिससे वे उनके परिजनों को ये दुखद समाचार सुना पातीं.</p><p>स्थिति को संभालने का यह सबसे तर्कसंगत तरीका होता लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया.</p><p><strong>सबूतों को </strong><strong>नकारती</strong><strong> रही सरकार</strong></p><p>इराक़ गए 40 भारतीयों में से एक हरजीत मसीह किसी तरह बचते हुए साल 2015 में ही भारत लौट आए थे और उन्होंने उस समय ये जानकारी दी थी कि इस्लामिक स्टेट ने मूसल में कामगारों को बंधक बनाया हुआ है, साथ ही बंधकों में से 53 बांग्लादेशी मुसलमानों को उन्होंने अलग कर दिया है जबकि भारतीय बंधक जो कि हिंदू थे उन्हें अलग रखा हुआ है. </p><p>बांग्लादेशी बंधकों को बाद में छोड़ दिया गया था, उन्हीं बांग्लादेशी बंधकों के साथ हरजीत भी भाग निकलने में कामयाब रहे थे. लेकिन बाकी भारतीयों को बंधक बनाए जाने के कुछ दिन बाद ही मार दिया गया.</p><p>इस्लामिक स्टेट की बर्बरता देखते हुए, ये बेहतर होता कि सुषमा स्वराज पहले ही उन भारतीयों की मौत की संभावनाओं को मान लेतीं. </p><p>ऐसा करने की जगह सुषमा स्वराज ने हरजीत मसीह से फोन पर बात की और उनकी बातों को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि मूसल में सभी भारतीय ज़िंदा हैं और सरकार उन्हें तलाशने का काम कर रही है. इतना ही नहीं सरकार ने हरजीत मसीह को ही नौ महीने के लिए हिरासत में ले लिया और इसका भी स्पष्ट कारण भी नहीं बताया. </p><h1>अनदेखे किए गए दावे</h1><p>साल 2014 में मोदी सरकार को बने एक महीने से भी कम वक्त गुजरा था जब 18 जून को ‘द वायर’ की पत्रकार देवीरूपा मित्रा (उस समय वे द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में थीं) ने कुर्दिस्तान के इरबिल में बांग्लादेशी सूत्रों के हवाले से एक रिपोर्ट जारी की थी. </p><p>इस रिपोर्ट में उन्होंने बताया था कि कुछ दिन पहले मूसल में पकड़े गए भारतीयों में से एक की मौत हो चुकी है. उनकी रिपोर्ट उस कंपनी के साथ बातचीत पर आधारित थी जिसने इराक़ में उन कामगारों को नौकरी के लिए भेजा था, साथ ही देवीरूपा ने अपनी रिपोर्ट के लिए मोसुल से रिहा होकर आए बांग्लादेशी नागरिकों से भी बात की थी. </p><p>इसके बाद अगस्त महीने में इंडियन एक्सप्रेस में प्रवीण स्वामी की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें यह बताया गया कि कुर्दिश सरकार से मिली जानकारी के अनुसार मूसल में बंधक बने भारतीयों के मारे जाने की संभावना है. </p><p>लेकिन इन तमाम रिपोर्टों और खबरों के बावजूद सरकार इस बात पर अड़ी रही कि मूसल में सभी भारतीय कामगार जीवित हैं और सरकार उन्हें जल्दी ही बचा लेगी. सरकार ने लगातार इन रिपोर्टों को निराधार बताना जारी रखा. </p><p>सुषमा स्वराज कहती रहीं कि उनके पास बहुत से दूसरे सूत्रों से यह जानकारी है कि सभी भारतीय जीवित हैं. हालांकि 2016 आते-आते उनके तर्कों में कुछ बदलाव जरूर नज़र आने लगा था लेकिन फिर भी वे इस बात पर टिकी थीं कि मूसल में भारतीय जीवित हैं. </p><p>ये पूरा प्रकरण दर्शाता है कि हम विदेश जाकर नौकरी करने वाले कामगारों के प्रति कैसा रुख रखते हैं. वैसे तो विदेशों में काम करने वाले लोगों के हितों के बचाव की ज़िम्मेदारी विदेश मंत्रालय की होती है लेकिन हक़ीकत यह है कि इन कर्मचारियों को बहुत से एजेंटो के ज़रिए प्रताड़ित किया जाता है. </p><p>इतना ही नहीं विदेश गए ये भारतीय वतनवापसी के लिए तरसते रह जाते हैं, और अगर किसी तरह वे वापस लौट भी आते हैं तो यहां की पुलिस और कस्टम विभाग उन्हें घेर लेता है. </p><p>इतनी दुश्वारियों के बावजूद ये कामगार मजदूर भारत की अर्थव्यवस्था में सालाना 45 अरब डॉलर का योगदान करते हैं. ये योगदान उन वीआईपी एनआरआई से कई ज़्यादा है जिनकी आवभगत हर साल भारत सरकार करती है.</p><p><strong>ये भी पढ़ेः</strong></p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-43496081">’इराक में रहना ख़तरनाक है पर यहां भी तो ग़रीबी जान ले रही थी'</a></li> </ul> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/international-43467651">आख़िर क्या हुआ था मूसल के उन 39 भारतीयों के साथ</a></li> </ul><p><strong><em>(ये लेखक के निज़ी विचार हैं)</em></strong></p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong> और </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते 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नज़रिया: सरकार ने क्यों छुपाया मूसल में मारे गए मजदूरों का सच?
<p>सरकारें आमतौर पर संवेदनाओं के लिए नहीं जानी जाती और न ही ये उनकी कोई योग्यता होती है. लेकिन भारत सरकार ने मूसल में मारे गए 39 भारतीयों के मामले में जैसा रुख अपनाया वो तो संवेदनाओं से परे चला गया. </p><p>आंकड़े बताते हैं कि काम के लिए देश के बाहर जाने वाले मजदूर भारत […]
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