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विकास को ”सर्वांगीण विकास” में बदलने के लिए आधी आबादी को मिले बढ़ावा

शिखा सिंह, लेखिका स्वतंत्र पत्रकार गणतंत्र का 68वां साल पूरा होने को है. गणतंत्र प्रौणता से परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है. देश 21वीं सदी में सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ रखता है और तमाम देशों के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों का ध्वज वाहक है. यह परिपक्वता वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक मंचों पर दिखाई भी पड़ती […]

शिखा सिंह, लेखिका स्वतंत्र पत्रकार

गणतंत्र का 68वां साल पूरा होने को है. गणतंत्र प्रौणता से परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है. देश 21वीं सदी में सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ रखता है और तमाम देशों के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों का ध्वज वाहक है. यह परिपक्वता वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक मंचों पर दिखाई भी पड़ती है. ऐसे में देश के सच्चे गणतांत्रिक मूल्यों का मूल्यांकन जरूरी हो जाता है कि जिस सपने के साथ भारतीय गणतंत्र की स्थापना की गयी थी, क्या उस दिशा में लक्ष्य प्राप्त किये जा चुके हैं या उस लक्ष्य से यह भटक तो नहीं गया?
मूल्यांकन के कई पहलू हो सकते हैं, लेकिन आधी आबादी और उससे जुड़े लोकतांत्रिक मामले इसके मूल्यांकन के लिए सबसे अच्छा साधन होगा. एक गणतंत्र बने 68 साल बीत जाने के बाद आखिर देश की आधी आबादी अपने आप को इस लोकतंत्र में कहां पाती है?
देश ने आजादी के साथ ही महिलाओं को समान वोट देने का हक दिया. ऐसा किसी भी लोकतांत्रिक देश की शुरुआती यात्रा में नहीं किया गया था. इस दस्तावेज ने सामाजिक ताने-बाने के वर्गों को तो समान रूप से आंका और साथ ही साथ समाज में महिला को पुरुषों के गैर बराबर आंकने से इनकार कर दिया. संविधान की तमाम धाराओं में उनसे जुड़े कायदे कानून दर्ज कराये गये, जिसमें उनके संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किये जा सकें, लेकिन गणतंत्र का उद्देश्य संविधान के लिख भर देने से पूरा नहीं हो जाता है, तमाम बातें इसके गणतंत्र होने पर सवाल उठाते रहे हैं, इनमें से महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और सार्वजनिक स्थानों पर उनकी उपस्थिति को लेकर है. तमाम मंचों पर यह उपस्थिति बढ़ाये जाने के उपाय किये गये हैं, लेकिन सामाजिक ताने-बानों ने उन्हें ऐसे उलझा कर रखा है कि वह अपनी बुनियादी जरूरतों को पाने के लिए भी संघर्षरत हैं.
वर्ष 2016 में देश की राष्ट्रीय महिला नीति के मसौदे ने भी स्पष्ट रूप से इस ओर इशारा किया है कि गणतंत्र की मूल अवधारणा में महिलाएं कहीं पीछे छूट रही हैं. तमाम मामलों में महिलाओं को लंबी यात्रा करनी है. राष्ट्रीय महिला नीति ने सात प्राथमिक क्षेत्र रखे हैं, जिनके बिना महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों को सुनिश्चित करना लगभग असंभव है. ये प्रमुख क्षेत्र स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा व पोषण, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, प्रशासन एवं निर्णय में भागीदारी, महिलाओं के साथ हिंसा, सशक्त बनाने वाला वातावरण, पर्यावरण और उसके प्रभाव.
अगर हम एक-एक कर इन प्रमुख मुद्दों पर नजर डालें, तो देश में महिलाएं प्राथमिक स्वास्थ्य प्राप्त करने में सबसे पीछे हैं. हालांकि, स्थितियों और आंकड़ों में काफी सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच से बाहर है. मातृ मृत्यु दर अब प्रति लाख पर 167 है, वहीं शिशु मृत्यु दर प्रति हजार पर 34 तक आ गयी है (जो कि पूर्ववर्ती वर्षों से लगातार कम हो रही है, लेकिन अभी भी यह स्तर संतोषजनक नहीं है) फिर भी पोषण के स्तर का आकलन करते ही यह स्थिति साफ हो जाती है कि महिलाओं का स्वास्थ्य निम्न स्तर पर है.
शिक्षा और उससे जुड़े मसलों में भी महिलाओं की स्थिति दयनीय है. साक्षरता (केवल अक्षर पहचनाने) का प्रतिशत भले ही वर्ष 2011 की जनगणना में 65.46 प्रतिशत था, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 2.2 प्रतिशत महिलाएं स्नातक तक पहुचीं हैं, वहीं शहरी जनसंख्य़ा में यह आंकड़ा केवल 13 प्रतिशत पर आकर ठहर जाता है. प्रशासन और निर्णय की भागीदारी एक ऐसा विषय है, जो सामाजिक ताने-बाने से कभी भी बाहर नहीं आ सका. महिलाओं को पंचायती राज के तहत प्रतिनिधित्व तो मिला है, लेकिन अभी भी बड़ी पंचायत में उनके प्रतिनिधित्व का आंकड़ा चिंतनीय हैं. संसद के 543 प्रतिनिधियों में से केवल 62 का होना, इसकी कहानी बताता है. सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति और उससे जुड़े मामलों में स्थिति में कोई भी देखने योग्य सुधार नहीं हुआ है.
सार्वजनिक जीवन में सुरक्षा और उनसे जुड़े अपराधों के चलते महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है. ऐसे में तमाम लक्ष्य उनसे दूर हैं. जरूरी है कि सुरक्षा के साथ हम उनके सपनों में आधी आबादी की भागीदारी को बढ़ावा देकर विकास को ‘सर्वांगीण विकास’ में बदल सकें और एक सच्चे गणतंत्र को स्थापित कर सकें.

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