सौरभ मुखर्जी
सीइओ, इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज, एंबिट कैपिटल
उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश भारत 16वीं लोकसभा के चुनाव में व्यस्त है. पिछले तीन दशकों (1984 से अब तक) में यहां आठ लोकसभा चुनाव हुए हैं. ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि चुनाव के आसपास अर्थव्यवस्था और बाजार की चाल कैसी रही है. आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर चुनावों के बाद एक साल और दो साल में शेयर बाजार का रिटर्न इन तीन दशकों के औसत से काफी ज्यादा रहा है. चुनावी मौसम में बाजार की चाल पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
क्या इस साल शुरू होगी विकास की चौथी लहर!
भारत में पिछले 30 वर्षो में यानी वर्ष 1984 से अब तक आठ आम चुनाव हुए हैं. इनमें से सात चुनावों के बाद के दो वर्षो में भारतीय स्टॉक मार्केट में जोरदार बढ़त देखी गयी है. आंकड़ों पर गौर करें तो लोकसभा चुनावों के बाद के एक साल और दो साल का औसत रिटर्न क्रमश: 46 और 27 फीसदी रहा है. दो वर्षो में मिले रिटर्न का आंकड़ा संयुक्त वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) आधारित है.
वर्ष 1984 से लेकर 2014 तक 30 वर्षो की अवधि में सेंसेक्स की संयुक्त वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) 16 फीसदी रही है, जबकि इस दौरान हुए लोकसभा चुनावों के बाद के दो वर्षो की औसत सीएजीआर 27 फीसदी रही है. इन आंकड़ों का निष्कर्ष यह है कि पिछले 30 वर्षो में सेंसेक्स की 75 फीसदी बढ़त आम चुनावों के बाद के दो वर्षो में ही हुई है.
यह लेख चुनाव और स्टॉक मार्केट के चक्रीय क्रम के बीच की समकालिकता पर आधारित मुख्य रूप से तीन सवालों की पड़ताल करता है :
1. लोकसभा चुनावों के बाद भारतीय स्टॉक मार्केट में क्यों सकारात्मक सुधार आता है?
2. क्यों कुछ खास चुनावों (जैसे-1984, 1991 और 2004) के बाद शेयर बाजार में जबरदस्त उछाल आया है, जबकि अन्य चुनावों में ऐसा नहीं होता?
3. तो क्या मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी स्टॉक मार्केट की सकारात्मक प्रतिक्रिया आयेगी?
पिछले तीन दशक में विकास की तीन लहरें
आर्थिक सिद्धांत में चुनाव चक्र और आर्थिक चक्र के बीच पारस्परिक संबंधों पर तकरीबन एक शताब्दी पहले चर्चा की जा चुकी है. डीआइएएल की लीसा कॉवेट (पेरिस के विचारक) और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के पॉल कोलियर ने 2008 में इन तथ्यों का उल्लेख किया है :
‘समृद्धि के लिए आर्थिक योजना विवेचनात्मक है और विकासशील समाज के लिए इसे कैसे बनाया जाता है, यह बेहद महत्वपूर्ण है. यह माना भी जाता है कि अच्छी आर्थिक नीतियों और अच्छी शासन प्रणाली के लिए संघर्ष मुख्य रूप से आतंरिक प्रक्रियाओं के तहत आता है. इसे बाहर से थोपा नहीं जा सकता. चुनाव, लोकतंत्र की वह संस्थागत तकनीक है, जो आम आदमी को एक जवाबदेह सरकार बनाने का अधिकार मुहैया कराती है. हालांकि, मजबूती खुद के लिए आधार प्रदान कर सकती है, पर मात्रत्मक राजनीतिशास्त्र की रिसर्च लोकतंत्र की क्षमता के लिए आर्थिक सुधारों को पटरी पर लाने में अविश्वसनीय बन चुकी है. हमने इस बात का अध्ययन किया है कि आखिर चुनाव कैसे सरकारों को नीतियों में सुधार के लिए मजबूर करते हैं. विकासशील देशों में तो एक के बाद एक चुनाव नीतियों को निर्धारित किये जाने में अपना असर दिखाते हैं.’
भारत के इतिहास में 1980 के शुरुआती दौर से राजनीति और आर्थिक चक्र में समकालिक संबंध रहे हैं. खासकर, आर्थिक सुधार और राजनीतिक दिशा में परिवर्तन दोनों ही आर्थिक विकास के चक्र में बदलाव के संकेतक रहे हैं. जैसा कि भारत में पिछले 30 वर्षो में तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को महसूस किया है.
अर्थव्यवस्था के विकास की पहली लहर (1985-92)
विकास की पहली लहर की शुरुआत 1984 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जोरदार वापसी की वजह से हुई थी. श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या किये जाने से पहले उन्होंने आर्थिक सुधारों की जो बुनियाद रखी थी, चुनाव के बाद उसका असर जबरदस्त तरीके से देखने को मिला. कांग्रेस को हासिल तीन-चौथाई बहुमत से राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में पहली बार एक तरह से विकास की लहर चल पड़ी थी और स्टॉक मार्केट में भी जोरदार उछाल आया.
अर्थव्यवस्था के विकास की दूसरी लहर (1993-2003)
दूसरी बार वर्ष 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी अल्पमत सरकार ने विकास के कई नये मानक गढ़े. इस सरकार के गठन और आर्थिक सुधारों के अनुकूल बह रही बयार ने आर्थिक विकास की दूसरी लहर की नींव रखी. 1990 के दशक के आरंभ में हुए स्टॉक मार्केट घोटाले से उबरने के बाद इस क्षेत्र में तेजी से सकारात्मक बदलाव आया.
अर्थव्यवस्था के विकास की तीसरी लहर (2004-14)
तीसरी बार आर्थिक क्षेत्र में 2004 में बदलाव आया, जब कांग्रेस की अगुआई में केंद्र में यूपीए की सरकार बनी. पूर्ण बहुमत के साथ बनी नयी सरकार ने एनडीए सरकार द्वारा तैयार किये गये अनुकूल माहौल का फायदा उठाते हुए आर्थिक विकास को मूर्तरूप दिया. साथ ही, स्टॉक मार्केट में एक बार फिर से उछाल आया.
आर्थिक विकास की चौथी लहर की उम्मीद
तीनों महत्वपूर्ण चुनावों (1984, 1991, 2004) में दो बातें बेहद खास रहीं, जिसकी वजह से पिछले 30 वर्षो में तीन ऐसे मौकों पर आर्थिक विकास की इबारत लिखी गयी और भारतीय अर्थव्यवस्था व स्टॉक मार्केट में जबरदस्त बदलाव आया. पहला, आर्थिक सुधार की शुरुआत प्रधानमंत्री के रूप में नये चेहरे के आने की वजह से हुई, क्योंकि नया प्रधानमंत्री कारोबार माहौल कायम करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है. दूसरा, और बेहद महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जानेवाली सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम एक-दो वर्षो में सुधारों के लिए कई ठोस और अहम कदम उठाती है. इसलिए जब नया प्रधानमंत्री कार्यभार संभालता है, तो इन आर्थिक सुधारों के अहम फैसलों का फायदा उसे मिलता है. उसका नया चेहरा एवं पिछली सरकार द्वारा सुधारों के लिए उठाये गये कदम मिलकर आर्थिक विकास के लिए संजीवनी का काम करते हैं और स्टॉक मार्केट में जबरदस्त उछाल आने की वजह बनते हैं.
ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीय स्टॉक मार्केट राजनीतिक-आर्थिक चक्र को बड़ी समझदारी के साथ पढ़ पाने में सफल रहा है और पूरे दशक में हासिल विकास की लहर को स्टॉक प्राइसेस के रूप में भुनाता है. अत: भारत में स्टॉक मार्केट में उछाल आनेवाले तीन अहम वर्षो- 1984, 1991, 2004 की शुरुआत 10 वर्षीय विकास की लहर पर ही आधारित है.
मौजूदा आम चुनावों में ओपिनियन पोल एनडीए के ज्यादा सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं, लेकिन यूपीए सरकार ने पिछले 18 महीनों में वृहद आर्थिक प्रबंधन का खाका तैयार किया है. खासकर बजट घाटे में सुधार, डीजल मूल्यों को नियंत्रण मुक्त करने में अनुकूल कदम, मुद्रा नीति में सुधार करते हुए उसे प्रतिष्ठित एकेडमिक के हाथों में सौंपना, निवेश पर प्रभावी कैबिनेट कमेटी का गठन, कुछ बड़े राज्य बिजली बोर्डो के उत्थान के लिए वित्तीय मदद आदि महत्वपूर्ण हैं. कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आर्थिक विकास के लिए एक नयी शुरुआत होने जा रही है.
बदलाव की उम्मीदें
आर्थिक मोरचे पर देखें, तो नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए मजबूत दावेदारी से खासकर इंफ्रास्ट्रक्चर और बैंकिंग सेक्टर में बदलाव की उम्मीदें ज्यादा हैं. मजदूरी और कृषि में सुधार के साथ निजीकरण के क्षेत्र में भी सकारात्मक सुधारों की उम्मीद है. ऐसा माना जा रहा है कि मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार यूपीए सरकार की ओर से चलायी गयी व्यापक सामाजिक कल्याण नीतियों को बदल सकती है. इस तरह राजनीतिक बदलाव और यूपीए सरकार द्वारा किये गये सकारात्मक कार्यो से भारत में चौथे आर्थिक विकास की लहर की उम्मीद जगी है और 1984 से स्टॉक मार्केट में चौथी बार उछाल आने के संकेत दिख रहे हैं.
एंबिट कैपिटल के विशेषज्ञ गौरव मेहता के मुताबिक, ‘हाल में निफ्टी में आये उछाल से माना जा रहा है कि अत्यधिक निराशा के बाद अब परिस्थितियां सामान्य होने जा रही हैं. भारतीय शेयर बाजार में आशाजनक संकेत दिख रहे हैं.’
(‘फाइनांशियल टाइम्स’ के ब्लॉग से साभार)
एफआइआइ ने चुनाववाले देशों में बढ़ाया निवेश
विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) ने तेजी से बढ़ते बाजारों (इमर्जिग मार्केट), खासकर जहां इस वर्ष चुनावी गतिविधियां चल रही हैं, वहां अपनी निवेश की सीमा को बढ़ा दिया है. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञों के मुताबिक, माना जा रहा है कि इन देशों में नयी सरकारों के सत्ता में आने पर आर्थिक सुधारों के प्रति विदेशी संस्थागत निवेशक ज्यादा आशान्वित हैं. इसी कड़ी में भारत में भी इस वर्ष की शुरुआत से ही अच्छा खासा निवेश हुआ है. विशेषज्ञों का कहना है कि जिन देशों में इस वर्ष चुनाव हो रहे हैं, उनमें भारतीय बाजार एफआइआइ के लिए सबसे पसंदीदा बाजार है.
इस वर्ष विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा कुल 15 अरब अमेरिकी डॉलर का भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की, पोलैंड और हंगरी में निवेश किया गया है. इसमें से 5.2 अरब अमेरिकी डॉलर यानी तरकीबन 35 फीसदी अकेले भारत में निवेश हुआ, जबकि हंगरी में 28 फीसदी, इंडोनेशिया में 17 फीसदी हुआ. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस वर्ष के शुरू से इंडोनेशिया के सूचकांक में रिकॉर्ड 21 फीसदी का उछाल आया. वहीं भारत में इसमें 10 फीसदी और हंगरी में सात फीसदी बढ़ोतरी हुई.
विदेशी संस्थागत निवेशकों ने उभरते बाजारों में अपने मौजूदा व्यापक लागत से इतर ज्यादा ध्यान देकर और निवेश बढ़ा कर इन देशों में राजनीतिक दावं खेला. सात बड़े उभरते बाजारों के साथ कोलंबिया और पेरू में इस वर्ष चुनाव होनेवाले हैं.
ब्रिक देशों में तेजी से बढ़ोतरी
रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड में प्राइवेट बैंकिंग के चीफ इन्वेस्टमेंट ऑफिसर राजेश चिरुवु के मुताबिक, ब्राजील, भारत, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की और इंडोनेशिया जैसे उभरते बाजारों में विदेशी संस्थागत निवेश तेजी से बढ़ रहा है. विदेश संस्थागत निवेश चुनावों के बाद व्यापक तौर पर माहौल में उभरने वाले बड़े परिदृश्य के लिए जमीन तैयार कर रहा है. माना जा रहा है कि चुनाव ही इन भौगोलिक क्षेत्रों में फंड इकट्ठा करने में अहम भूमिका अदा कर रहा है.
ब्रिक, एशिया पैसिफिक, ग्लोबल इमर्जिग फंड (जीइएम) और इएम जैसे रीजनल एलोकेशन फंड्स में भारत का वर्तमान हिस्सा औसतन दीर्घकालिक फंड के मुकाबले काफी ज्यादा है. ब्रिक फंड में भारत की मजबूत मौजूदगी को इस बात से समझा जा सकता है कि इसमें भारत का औसतन दीर्घकालिक फंड 16 फीसदी के मुकाबले वर्तमान फंड 17.6 फीसदी है. उसी तरह जीइएम में दीर्घकालिक फंड 6.5 फीसदी के मुकाबले वर्तमान आवंटित फंड 8.3 फीसदी है.
उभरते हुए बाजारों में तकरीबन 10-15 फीसदी नयी मुद्रा का सृजन कुछ उस प्रकार की निधियों से हुआ है, जिन्हें चुनावों की परिणति कहा जा सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि निवेशकर्ता एक बार फिर से उस तरह के उभरते बाजारों को ढूंढ़ रहे हैं, जहां उन्हें जोखिम का पुरस्कार उनके हित में हो यानी कम जोखिम में ज्यादा मुनाफा हो सके. इस प्रकार का राजनीतिक जोखिम निवेशकर्ता हेज फंड और इटीएफ मनी के तौर पर दीर्घअवधि के लिए ले चुका है. ऐसे कारोबारी अपनी इस तरह की पहचान को उजागर करना नहीं चाहते.
2012 को दोहराने की उम्मीद
विदेशी संस्थागत निवेशकों को उम्मीद है कि वर्ष 2012 को फिर से दोहराया जा सकता है. दरअसल, उस वर्ष मैक्सिको चुनाव में उन्हें इस संदर्भ में सफलता हासिल हुई थी. पिछले सप्ताह जारी एक रिपोर्ट में जीइएम इक्विटी के प्रमुख ने कहा है कि उभरते बाजारों में राजकीय नियंत्रण अधिक होने की वजह से खास प्रकार की उच्च बाधाएं हैं (चीन, ब्राजील, रूस और तुर्की- जो संयोग से सस्ते बाजार हैं).
अगले कुछ दिनों में चुनावों में जानेवाले नौ उभरते बाजार वाले देशों में सुधार का मसला मजबूत हुआ है. दीर्घअवधि में सुधारों की श्रेष्ठतम क्षमता चीन (थर्ड प्लेनम के माध्यम से) और भारत में (मोदी की जीत से) है.
(इकोनॉमिक टाइम्स से साभार)