।। सीके जैन।।
(लोकसभा के पूर्व महासचिव)
आज अपने देश व विश्व के अन्य देशों की स्थिति पर दृष्टि डाली जाये, तो दिखाई देता है कि सभी देश कमोवेश किसी ने किसी संकट के दौर से गुजर रहे हैं, चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो अथवा राजनीतिक. अस्थिरता, नैतिक मूल्यों में गिरावट, अपराध व हिंसा का वातावरण मिल कर अराजकता जैसी स्थिति पैदा कर रहे हैं. महायुद्ध नहीं है, तो क्षेत्रीय विवाद हैं. वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति ने अंतरराष्ट्रीय संपर्क, सहयोग व सहभागिता के माध्यमों में अभूतपूर्व वृद्धि तो की है, किंतु संकीर्ण हितों, स्वार्थो ने परस्पर भय, अविश्वास और अस्वस्थ होड़ ने भी जगह बनायी है, जो सामान्य सौहाद्र्रपूर्ण संबंध में बाधक बने रहते हैं.
सुरक्षा व शांति के नाम में अतिविनाशकारी शस्त्रों का अबाधित निर्माण और संग्रह चालू है. कितनी भी निरस्त्रीकरण की चर्चाएं या प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय फोरम में पारित होते रहें. जो संसाधन जन साधारण की पीड़ा दूर करने और उनकी मूलभूत जरूरतों पर खर्च होना चाहिए, उन्हें आतंकी गतिविधियों को रोकने में लगाना पड़ता है. इसके बावजूद निरपराधों की हत्याएं और जन संपत्ति का नुकसान रुकता नहीं.
सबसे अधिक दुखद बात है कि धर्म के नाम में विभिन्न गतिविधियों से अपेक्षित सुख-शांति प्राप्त नहीं हो रही. इस परिदृश्य पर पूर्वाग्रह के बिना गहरे चिंतन की आवश्यकता है. खुशहाली, शांति, विकास, समृद्धि जब सबकी जरूरत है, जब लक्ष्य एक है, तो सही दिशा और सही रास्ता का चुनाव कठिन नहीं होना चाहिए.
र्तीथकर महावीर ने एक रास्ता बताया था. वह रास्ता था सहअस्तित्व, सहिष्णुता व परस्पर अनुग्रह का. उन्होंने व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए आचरण संहिता भी दी थी. समवशरण (धर्मसभा) में महावीर से गौतम गणधर (प्रधान शिष्य) ने प्रश्न किया-
कधं चरे कधं चिट्ठे कधं मासे कधं समे,
कधं भुंजेज्ज मासेज कधं पावं ण वज्झादि.
हे भगवन! कैसा आचरण करें, कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे सोवें, कैसे भजन करें एवं किस प्रकार बोलें, जिससे पाप से न बंधें.
भगवान ने उत्तर दिया-
‘जदं चरे जदं चिट्ठे जस मासे जदं समे,
जदं भुंजेज्ज, मासेज्ज एवं पावं पावउझम्हे.
यत्नपूर्वक (विवेक से) गमन करें, यत्नपूर्वक खड़े हों, यत्नपूर्वक बैठें, यत्नपूर्वक सोवें, यत्नपूर्वक आहार करें, और यत्नपूर्वक बोलें. इस तरह के आचरण से पाप का बंध नहीं होता.समाज का रूप कैसा हो? इसका उत्तर महावीर वाणीविद् आचार्य समंतभद्र अपने ग्रंथ ‘युक्त्यनुशासन’ में देते हैं-
सर्वान्त वन्तद गुण मुख्य कल्पं,
सर्वान्त शून्यं च मिथोùनवे क्षम
सर्वापदा मंतवरं निरन्तम्,
सर्वोदयं तीर्थ मिदं तवैव.
सबका उदय ही सर्वोदय है. सबको उन्नति के सामान अवसर प्राप्त हों. प्रत्येक व्यक्ति सर्वोच्च पद प्राप्त कर सके. सबको पूर्ण सुखी और ज्ञानी होने का पूर्ण अधिकार हो. यही सर्वोदय तीर्थ है.
आचार्य उमास्वामी ने महावीर दर्शन की आचार-संहिता के सूत्र बताये-
‘मैत्री- प्रमोद- कारुण्य- माध्यस्थ्यानि च.
सत्त्व- गुणाधिक- क्लि- श्यमाना विनयेषु.
जगत में सभी के प्रति मित्रता, गुणवान की संगति में हर्ष, दीन-दुखी के लिए करुणा और विपरीत आचरणवान से उदासीन भाव होना चाहिए.‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ अर्थात् परस्पर अनुग्रह का भाव सामाजिक समरसता को जीवंत रखता है. लेकिन आज हर व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक है, यह भूलता है कि वही अधिकार दूसरों को भी प्राप्त है. दूसरों के अधिकार अगर अपने दायित्व समझ लें, तो सहअस्तित्व, सहिष्णुता व सहयोग की भावना को बढ़ावा मिलेगा. महावीर दर्शन के मूल- अहिंसा, अनेकांत व अपरिग्रह- सहअस्तित्व, सहिष्णुता व सहयोग के समानार्थक हैं. अगर हम रोजमर्रा की जिंदगी में इन तीन बातों को स्वीकारें, तो आज के रुग्ण (रोगी) समाज के लिए संजीवनी साबित होगी. व्यक्ति के लिए उत्कर्ष के प्रथम सोपान जैसी.