हम बिहार के पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकिनगर से भारत-नेपाल सीमा पर बसे सुस्ता की तरफ़ जा रहे थे.
सफ़र शुरू हुआ था तो सड़क एकदम ठीक थी. कुछ किलोमीटर बाद भारतीय अर्धसैनिक बल एसएसबी (सशस्त्र सीमा बल) की चकदहवा पोस्ट पर तैनात जवानों ने हमें रोका. परिचय और उद्देश्य जानने बाद उन्होंने गाड़ी वहीं छोड़कर आगे जाने की सलाह दी.
आगे कच्चा रास्ता था और बाढ़ के कारण बुरी तरह टूट चुका था. रास्ते के दोनों तरफ़ घने जंगल थे. दिन में ही अंधेरे का आलम. इस कदर अंधेरा कि बारिश की बूंदें और हवा की सरसराहट भी आपको कुछ पल के लिए डरा दे.
इसमें करीब एक किलोमीटर पैदल चलकर हम चकदहवा पहुंचे और वहां से गन्ने के खेतों के बीच से होते हुए सुस्ता.
सुस्ता पर भारत और नेपाल दोनों देशों का दावा है.
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क्या है विवाद की वजह?
जानकार बताते हैं कि सुस्ता पर विवाद की वजह है गंडक नदी, जो अपनी धार बदलने के साथ-साथ विवादों को उकसाती रही है.
मार्च 1816 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और नेपाल के बीच हुए समझौते के मुताबिक, गंडक नदी की धार को भारत और नेपाल की सीमा माने जाने पर सहमति बनी थी. तब यह तय किया गया कि यहां बहने वाली गंडक नदी के दाहिनी तरफ़ की ज़मीन भारत की होगी और बायीं तरफ़ की ज़मीन नेपाल की.
पहले सुस्ता गंडक नदी के दाहिनी तरफ़ था लेकिन लगातार कटाव के कारण अब यह बस्ती नदी की बायीं तरफ़ आ चुकी है.
अपने-अपने दावे
चकदहवा गांव के लोग 14000 हेक्टेयर में बसे सुस्ता को नेपाल द्वारा कब्जा कर लिया गया भारतीय भूभाग बताते हैं. वहीं, नेपाल सरकार इसे नवलपरासी ज़िले का हिस्सा मानती है.
नेपाल ने वहां अपनी सशस्त्र प्रहरी पोस्ट भी बनाई हुई है. इधर, चकदहवा में भारतीय अर्धसैनिक बल एसएसबी के जवानों की एक टुकड़ी तैनात है. इसमें शामिल जवान भी कहते है कि सुस्ता पर नेपाल का जबरन कब्ज़ा है.
चकदहवा झंडवा टोला के 75 वर्षीय नथुनी राम ने बीबीसी को बताया कि चकदहवा और सुस्ता दोनों गांव बाद में बसे हैं. वन विभाग के लोग इसे अपनी जमीन बताते हैं. इसके बावजूद रमपुरवा, भेड़िहाड़ी आदि जगहों से विस्थापित लोगों ने इन दोनों गांवों मे बसना शुरू किया और अब यहां हजारों लोगों का बसेरा है.
उन्होंने बताया, "गंडक नदी हर साल भीषण कटाव करती है. कभी भारत की तरफ़ कटाव होता है तो कभी नेपाल की तरफ़. इस कारण दोनों देशों में विवाद है. लेकिन, सुस्ता को तो नेपाल ने जबरन अपने कब्ज़े में कर लिया है. जबकि, चकदहवा के लोगों की जमीन भी उस गांव में है."
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सुस्ता के सुरेंद्र कुर्मी को नेपाल की नागरिकता मिली हुई है. लेकिन, उनके मुताबिक यह दोयम दर्जे की है. उन्हें वे सारे लाभ आसानी से नहीं मिल पाते जो ‘ऊंची श्रेणी की नेपाली नागरिकता’ वालों को मिलते हैं.
सुरेंद्र कहते हैं, "सुस्ता नेपाल के नवलपरासी जिले के त्रिवेणी सुस्ता वॉर्ड नंबर 4 में पड़ता है. अब इसे वॉर्ड नंबर-5 बनाया जा रहा है. सुस्ता में सभी लोगों को नेपाली नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं मिल सका है. कुछ लोगों के पास भारत की भी नागरिकता है."
दोनों देशों के मोबाइल सिग्नल
सुरेंद्र कुर्मी ने बीबीसी से कहा, "सुस्ता में भारत और नेपाल दोनों देशों के मोबाइल सिग्नल मिलते हैं. गांव के अधिकतर लोगों ने नेपाली और भारतीय दोनों सिम ले रखे हैं. जब हमें नेपाल में बात करनी होती है तो नेपाली सिम इस्तेमाल करते हैं. बाकी समय हमलोग भारतीय सिम से बात करते हैं क्योंकि, इसका सिग्नल अच्छा है. हमारा ज्यादा काम भारत से ही होता है.’
यहां नेपाल के अलावा भारत के बिहार और उत्तर प्रदेश के मोबाइल टावरों के सिग्नल मिलते हैं.
सुस्ता के चंद्रिका चौधरी कहते हैं कि हमें बाजार से कुछ लेने के लिए भारतीय सीमा में भेड़िहाड़ी (बिहार) जाना पड़ता है या फिर गंडक नदी को नाव से पार कर उत्तर प्रदेश के रानीनगर बाजार. क्योंकि यहां से नजदीकी नेपाली बाजार बुटवल जाने-आने में पूरा दिन लग जाता है.
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सुस्ता में जिधर देखिए, गन्ने के खेत नज़र आते हैं. यहां के बदरे आलम ने बताया कि पूरे गांव के लोग गुड़ बनाने के व्यवसाय में लगे हैं. इसे बेचने के लिए भारत के वाल्मीकिनगर जाना होता है. वहां से गुड़ के बोरे नेपाल की राजधानी काठमांडू भेजे जाते हैं.
सुस्ता में रहते थे पूर्व सैनिक
350 घरों वाले सुस्ता की आबादी 4000 से भी अधिक है. पहले यहां जंगल था. बाद में नेपाल सरकार ने इस इलाके में पूर्व सैनिकों को बसाया.
यहां हमारी मुलाकात लैला बेगम से हुई.
उन्होंने बीबीसी को बताया, "साल 1962 में यहां भीषण बाढ़ आई. तब सबकुछ तबाह हो गया. इसके बाद अधिकतर भूतपूर्व सैनिक गांव छोड़कर चले गए. तब इस गांव में हम जैसे लोग रमपुरवा, धनैया (बिहार) आदि जगहों से आकर बस गए. तब से हमलोग यहीं हैं और नेपाल की सरकार हमें सुविधाएं देती है."
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