हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र को उनके उपन्यास ‘धूल पौधों पर’ के लिए 23 वें सरस्वती सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा की गयी है. 22 भारतीय भाषाओं की पुस्तकों में से इस पुरस्कार के लिए पुस्तक का चयन किया जाता है. हरिवंश राय बच्चन के बाद यह सम्मान पानेवाले वह हिंदी भाषा के दूसरे रचनाकार हैं. प्रस्तुत है इस मौके पर गोविंद मिश्र से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के मुख्य अंश..
आपके उपन्यास ‘धूल पौधों पर’ को 23 वें सरस्वती सम्मान के लिए चुना गया है. इस पर क्या कहेंगे?
अच्छा लग रहा है यह देख कर कि हिंदी की कृति को दूसरी बार, इतने बरसों बाद ही सही, यह सम्मान मिला. और यह प्रतिष्ठित सम्मान इसलिए है भी कि इसमें सभी प्रतिनिधि भारतीय भाषाओं के विद्वान विभिन्न स्तरों पर रचनाओं का चयन करते हैं और अंतिम ज्यूरी में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस चेयरमैन होते हैं. त्न उपन्यास ‘धूल पौधों पर’ की रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं?
यह उपन्यास 2008 में प्रकाशित हुआ. मैंने 2004 में इसे लिखना शुरू किया था. बहुत मोटी किताब नहीं है, लेकिन इसमें इत्तेफाकन कई परतें आ गयी हैं. मैंने शुरुआत तो आधुनिक भारतीय लड़की की संघर्ष-यात्र से की थी, लेकिन जैसे-जैसे लिखता गया, और चीजें आती गयीं. जैसे प्रेम प्रकाश पात्र, जो लड़की की मदद करता है,वो बाहर से तो पूर्ण विकसित है लेकिन उसका आंतरिक विकास उस लड़की के माध्यम से होता है. जिसका इशारा उपन्यास के शुरू में है कि ‘तुम्हारे जीवन में कोई ऐसा आया ही नहीं, जो तुम्हारे सामने आईना रखे.’ उसका विकास एंद्रिकता से क्रमश: उदीप्तिकरण की तरफ होता है. लड़की और उसकी उम्र में काफी फासला है. यह उनकी प्रेम कथा भी है. एक और परत इसमें आ गयी कि धार्मिक और शिक्षा संस्थानों में कितना पाखंड है. अंतिम भाग में लड़की पूछती है प्रेम प्रकाश से कि आपका और मेरा संबंध क्या है? तो वो कहता है- वो सब जो तुमने खोया है, मैं हूं. मैं तुम्हारा मायका हूं, जो तुम्हें कभी मिला ही नहीं. मायका संघर्ष से थकी स्त्री को आगे बढ़ने की ऊर्जा देता है. इस तरह छोटी काया में शुरू हुआ यह एक बड़ा उपन्यास बन गया. इसमें सब चीजें कलात्मक रूप से अपने आप आती गयीं. कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ रचनाएं, रचनाकार से आगे निकल जाती हैं. ऐसा ही कुछ इस कृति के साथ हुआ.
एक लेखक के रूप में आपका जीवन कैसे शुरू हुआ?
एक चीज जो प्रकृति की दी हुई होती है, वह थी मुझमें. मैं 14 वर्ष का था, हमारे एक अध्यापक हस्तलिखित पत्रिका निकालते थे, उसमें मैंने कहानियां लिखीं. लेकिन उसके बाद पढ़ाई में लग गया. गरीब घर से था, इसलिए नौकरी पाने का संघर्ष था. मैं जानता था कि अपने को पहले आर्थिक रूप से सुरक्षित कर लेना बहुत जरूरी है. साहित्य आर्थिकोपाजर्न का साधन नहीं हो सकता. मैं 1962-63 से नियमित रूप से हफ्ते में एक कहानी लिखता था. लेकिन मेरी कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में पहली बार 1965 में इलाहाबाद से निकलनेवाली ‘माध्यम’ में छपी, जिसके संपादक बालकृष्ण राव थे. 1969 में पहला उपन्यास आया ‘वह अपना चेहरा’. तब से निरंतर लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला चला आ रहा है.
आपने अंगरेजी साहित्य में एमए किया, फिर कथा लेखन के लिए हिंदी भाषा चुनने की वजह?
मुङो नौकरी की तत्काल जरूरत थी और उन दिनों अंगरेजी साहित्य में एमए करने के बाद फौरन लेक्चररशिप मिल जाती थी. लेकिन मैं हिंदी भाषी इलाके बुंदेल खंड के बांदा से हूं. इलाहाबाद जैसी जगहों में रहा. यहां की बोली-भाषा मेरे जीवन में रची-बसी थी. इसलिए मेरे दिमाग में कभी ये ख्याल ही नहीं आया कि मुङो अंगरेजी में कहानी लिखना है. और मैं हमेशा से यह बात मानता रहा हूं कि सृजनात्मक साहित्य अपनी मातृ-भाषा में ही संभव है. आप भाषा के स्तर पर उसमें प्रयोग कर सकते हैं. नये शब्द गढ़ सकते हैं. लेकिन अंगरेजी में हमेशा ग्रामर और व्याकरण से ही टकराते रहेंगे.
त्न अपने परिवेश और सामाजिक पृष्ठभूमि का अपनी रचनाशीलता से क्या संबंध पाते हैं?
मैंने 11 उपन्यास लिखे हैं और 12वां अभी लिख रहा हूं. इनमें कल्पना उतनी ही है, जितनी कलात्मक निर्वाह के लिए एक रचना में जरूरी है. बाकी सारा या तो मेरा अपना भोगा हुआ या समीप से देखा हुआ है. इसलिए, सामाजिक यथार्थ तो मेरी हर रचना में है. मैं समझता हूं कि कोई भी लेखक ईमानदारी से लिखेगा, तो उसकी रचना में यथार्थ आयेगा ही. अब वह समकालीनता को लांघ कर कैसे अपनी रचना को सर्वकालीन बनाता है, यह चुनौती होती है.
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं?
कहीं पर ऐसा कुछ दिखा या महसूस हुआ, जिसने भीतर से उद्वेलित किया, वहीं मेरे उपन्यासों का बीज पड़ा. अपने ज्यादातर उपन्यास मैंने पचमढ़ी में पूरे किये हैं. दस-पंद्रह दिन के लिए अकेले निकल जाता हूं सबकुछ से दूर. उपन्यास पूरा तो कुछ महीनों या साल भर में हो जाता है, लेकिन उन्हें मुकम्मल करने में तीन से चार साल भी लग जाते हैं. मैं उन्हें बार-बार पढ़ता हूं. कांटता-छांटता हूं. तराशता रहता हूं. एक भी गैरजरूरी वाक्य अपने पाठकों पर लादना नहीं चाहता. जितना कहे बिना नहीं रहा जा सकता, उतना ही कहता हूं.
आपकी रचनाओं में प्रकृति बहुत गहराई से आती है. खास वजह ?
व्यक्तिगत स्तर पर जब-जब मैं घायल हुआ हूं, प्रकृति ने मुङो शरण दी है. कुछ न भी बचे, तो भी जीवन जीने, जीते चले जाने, कर्म करते रहने की प्रेरणा मुङो वृक्षों से मिली है. अगर मेरे घर के आस-पास वृक्ष न हों, मैं उन्हें देखता न रहूं, तो मुङो अंदर से लगता है, मैं दुर्बल और असहाय हो रहा हूं. एक वृक्ष कम-से-कम लेता है जमीन से, लेकिन देता कितना ज्यादा है. प्रकृति के बीच अकेले होकर भी, मुङो कभी अकेलापन नहीं सालता.
यात्राएं एक लेखक के जीवन में क्या जोड़ती हैं?
संवेदना जन्मजात होती है. हां, किसी में कम, किसी में ज्यादा हो सकती है. लेकिन अपनी संवेदना को संस्कारित किये रहने, बचाये रखने के लिए दो चीजें जरूरी हैं. एक तो जहां तकलीफ दिखाई दे, उन लोगों के नजदीक जाएं. दूसरा, प्रकृति के करीब बने रहें. यात्रओं में आप अपनी संवेदना को संस्कारित करते चलते हैं. नये जुड़ाव पैदा होते हैं. यात्र वो नहीं कि काम से किसी शहर में गये, होटल में ठहरे, कॉन्फ्रेंस अंटेड की और आ गये. यात्र का मतलब है, बिना मकसद के आवारा की तरह झोला लटकाये चलते जाना. अपने को खुला छोड़ देना. और खुले कटोरे में ढेर सारी चीजें आती हैं. अपनी सृजनात्मकता बनाये रखने के लिए यात्र जरूरी है. मैं नौकरी के दौरान महानगरों में रहा हूं लेकिन रिटायरमेंट के बाद भोपाल आकर बस गया, जबकि यहां न मेरे रिश्तेदार थे, न कभी यहां पोस्टेड रहा. इसलिए बस गया कि यहां मीलों तक जंगल हैं. पास ही पचमढ़ी, पन्ना, कान्हा किसली, बांधवगढ़ जैसे राष्ट्रीय उद्यान हैं.