।। अनुज सिन्हा।।
(वरिष्ठ संपादक, प्रभात खबर)
आम चुनाव 2014 नेताओं के लिए किस्मत आजमाने का खेल बन गया है. वह भी दावं पर बिना कुछ लगाये. नेताजी अभी विधायक हैं. चाहते हैं कि सांसद बन जाये. इससे अच्छा मौका और क्या होगा? जीत गये तो सांसद, हार गये तो विधायक रहेंगे ही. रही बात खर्च की, तो उसके लिए पैसा है ही. सांसदी रास आयी तो ठीक, वरना फिर विधानसभा चुनाव लड़ लेंगे. यह चक्र चलता रहता है. ऐसे विधायकों-सांसदों का कुछ नहीं बिगड़ता. हार-जीत का खेल वे खेलते रहते हैं. घाटा होता है तो देश का. चुनाव पर पैसा खर्च होता है सरकार का, जनता का. पैसा नेताओं की जेब से खर्च नहीं होता. यह कौन नहीं जानता कि एक बार किसी मजबूत पार्टी से टिकट मिल जाये तो फिर चुनाव लड़वानेवालों की कमी नहीं रहती. बिना मांगे पैसा मिलने लगता है. ये लोग मुफ्त में पैसा नहीं लगाते हैं. इन्हें पता होता है कि नेताजी को चुनाव में मदद करो. वे जीत गये, बन गये मंत्री तो सूद समेत सब वसूल लेंगे.
देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा जहां विधायक लोकसभा चुनाव न लड़ रहे हों. वैसे संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई विधायक पद पर रहते हुए लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकता. झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में यह बीमारी (नशा) ज्यादा ही है. झारखंड में 12 विधायक लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में भी ऐसे विधायकों की संख्या कम नहीं है. अगर ये विधायक लोकसभा का चुनाव हार जाते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन अगर ये जीत जाते हैं और इनकी संख्या अधिक होती है, तो इसका सीधा असर राज्य की सरकार पर भी पड़ सकता है. उन राज्यों में असर ज्यादा पड़ेगा जहां मामूली बहुमत से सरकार है. इस सिलसिले में झारखंड पर विशेष रूप से निगाहें लगी हुई हैं.
अगर सरकार न भी गिरे, तो जितने विधायक चुनाव जीत कर सांसद बनेंगे, वहां फिर से चुनाव कराना पड़ेगा. झारखंड में तो खैर वैसे भी इस साल चुनाव होने हैं. लेकिन कई अन्य राज्यों में विधायकों के सांसद बनने पर छह माह के अंदर उन क्षेत्रों में उपचुनाव कराने होंगे. इससे सरकार का खर्च बढ़ेगा. एक-एक चुनाव पर सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं. इस्तीफा देंगे विधायक या सांसद, लेकिन खर्च का भार पड़ेगा सरकार पर. क्या यह देश पर बोझ नहीं है?
सिर्फ विधायकों की ही बात नहीं है. कई प्रमुख नेता दो-दो जगहों से चुनाव लड़ते हैं. इस बार भी ऐसे लोग हैं जो दो-दो जगहों से चुनाव लड़ रहे हैं. अगर ऐसे नेता किसी एक जगह से जीतते हैं और एक जगह से हार जाते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन दोनों जगहों से जीतने की स्थिति में एक सीट से इस्तीफा देना होगा. वहां फिर चुनाव होगा. फिर खर्च बढ़ेगा. ऐसी बात नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. पहले भी दिग्गज नेता दो-दो जगहों से चुनाव लड़ते रहे हैं. कभी ऐसे नेताओं ने सोचा है कि जीत के बाद जब एक सीट से इस्तीफा देते हैं तो वहां के मतदाताओं पर इसका क्या असर पड़ता है? यह उनका अपमान होता है.
अब वक्त आ गया है कि राजनेताओं पर अंकुश लगे. हाल में चुनाव आयोग ने खर्च पर नजर रखने के लिए जो कड़े नियम बनाये हैं, उससे प्रत्याशियों में थोड़ा भय है. टीएन शेषन के समय से प्रत्याशियों पर थोड़ा अंकुश लगा है. अब ऐसे कानून बनने चाहिए कि जिससे दो नावों पर पैर रखनेवाले राजनेताओं पर अंकुश लगे. दो जगहों से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगना चाहिए. कल्पना कीजिए कि एक व्यक्ति दस सीटों से चुनाव लड़ने लगे और सभी से जीत जाये तो उसे एक सीट को रख कर शेष नौ जगहों से इस्तीफा देना होगा. उन जगहों पर फिर से चुनाव कराना क्या सरकारी फंड की बरबादी नहीं है? इसी झारखंड में 1952 के, पहले विधानसभा चुनाव में रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह चार-चार सीटों से चुनाव लड़े थे और सभी पर विजयी हुए थे.अब ऐसे निर्णयों पर विराम लगना चाहिए.