रांची: झारखंड में वाम दलों की जमीन सिमटती जा रही है. राज्य के सभी सीटों पर वाम दल चुनावी कोण नहीं बना पा रहे हैं. कॉमरेडों की धार कम हुई है. चुनावी राजनीति में वाम दलों की धाक लगातार घटती जा रही है. वर्ष भर संघर्ष में जूझते तो हैं, लेकिन चुनावी फसल नहीं काट पाते. 1962 के चुनाव में पहली बार जमशेदपुर सीट से सीपीआइ के उदयकर मिश्र ने पहली बार चुनाव जीत कर लाल झंडा लहराया था. तब गांव-देहात से लेकर शहरों तक वामपंथियों का प्रभाव था.
एक जमाना था, मासस के एके राय की तूती बोलती थी. एके राय ने झारखंड की राजनीति को दिशा दी थी. ईमानदार और साफ-सुथरी राजनीति कर एके राय ने कोयलांचल में पकड़ बनायी थी. वर्ष 1989 में धनबाद से एके राय मासस के टिकट पर चुनाव जीते. भुनेश्वर प्रसाद मेहता वर्ष 1991 और वर्ष 2004 में हजारीबाग से सांसद बने. इसके साथ ही झारखंड के कई विधानसभा सीटों पर वामदलों का कब्जा रहा, लेकिन समय के साथ ये खास पॉकेट में ही सिमट कर रह गये. चुनाव में वाम दलों में कारगर एकता भी नहीं बन पायी.
माकपा, भाकपा, माले जैसी पार्टियों की राहें जुदा-जुदा रहीं. वर्तमान चुनाव में भी माले दूसरे वामदलों के साझा गंठबंधन से बाहर है. वहीं माकपा-भाकपा ने जदयू के साथ चुनावी गंठबंधन किया है. यह भी सच है कि संसदीय चुनाव में एकीकृत बिहार के जमाने में भी झारखंड में वाम दलों की बहुत प्रभावी उपस्थिति नहीं रही थी. राज्य की चुनिंदा सीटें हैं, जहां वाम दलों की अपनी धाक है. वहां दूसरे दल इनके गढ़ में सेंधमारी नहीं कर पा रहे हैं.
वामपंथी दलों के 14 उम्मीदवार मैदान में
लोकसभा चुनाव में वाम दलों के 14 उम्मीदवार मैदान में हैं. माकपा, भाकपा, माले और मासस ने लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार उतारे हैं. सभी 14 सीटों पर कोई भी वाम दल चुनाव नहीं लड़ रहा है. अपने आधार क्षेत्रों में ही उम्मीदवार दिये हैं. वाम दलों में सबसे ज्यादा उम्मीदवार माले के टिकट पर खड़े हुए हैं. माले ने आठ उम्मीदवार उतारे हैं. वहीं भाकपा ने तीन, माकपा ने दो और मासस ने एक सीट पर उम्मीदवार दिये हैं.