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कुछ दशकों में खत्म हो जायेगी हमारी सभ्यता!

।। नॉलेज डेस्क।। दुनिया की कई विकसित सभ्यताओं के अंत की कहानी हम इतिहास की किताबों में पढ़ते हैं. समय-समय पर ऐसी खबरें भी आती रहती हैं कि जल्द ही मौजूदा सभ्यता का भी अंत हो जायेगा. ऐसी खबरों पर कुछ दिनों तक चिंता जतायी जाती है, लेकिन सबकुछ अपने र्ढे पर ही चलता रहता […]

।। नॉलेज डेस्क।।

दुनिया की कई विकसित सभ्यताओं के अंत की कहानी हम इतिहास की किताबों में पढ़ते हैं. समय-समय पर ऐसी खबरें भी आती रहती हैं कि जल्द ही मौजूदा सभ्यता का भी अंत हो जायेगा. ऐसी खबरों पर कुछ दिनों तक चिंता जतायी जाती है, लेकिन सबकुछ अपने र्ढे पर ही चलता रहता है. इसी कड़ी में अब नासा द्वारा प्रायोजित एक शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि दुनियाभर की सरकारें जल्द नहीं चेतेंगी, तो कुछ ही दशकों में हमारी सभ्यता विनाश के कगार पर पहुंच जायेगी. कैसे हुआ यह शोध, किन-किन बातों पर किया गया गौर और क्या कहा गया निष्कर्ष में, जानते हैं विस्तार से..

दुनियाभर की कई अत्यंत विकसित सभ्यताएं अब इतिहास का हिस्सा हैं. मेसोपोटामिया, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिंधु घाटी जैसी काफी उन्नत सभ्यताएं आखिर कैसे खत्म हो गयी, यह सवाल इतिहास के पन्ने पलटते हुए हमारे दिमाग को झकझोरते हैं. सवाल यह भी कौंधता है कि क्या हमारी मौजूदा सभ्यता भी एक दिन खत्म हो जायेगी? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए दुनियाभर में कई तरह के शोध हो चुके हैं और चल रहे हैं. इसी कड़ी में अंतरिक्ष अनुसंधान एवं शोध से जुड़ी अमेरिकी संस्था ‘नासा’ के सहयोग से हुए एक खास गणितीय मॉडल पर आधारित शोध की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और बढ़ती आर्थिक विषमता के कारण मौजूदा सभ्यता भी कुछ ही दशकों में खत्म होने के कगार पहुंच जायेगी. रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में आर्थिक असमानता का तेजी से बढ़ रहा दायरा औद्योगिक सभ्यता को बरबादी के कगार पर पहुंचा देगा.

क्या है नासा की रिपोर्ट में

नासा के शोध के संबंध में ‘द गार्जियन’ में छपी डॉ नफीद अहमद की रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर में तेजी से बढ़ रही जनसंख्या, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संसाधनों का अंधाधुंध दोहन भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. प्रयुक्त गणित (अप्लायड मेथेमेटिक्स) के विशेषज्ञ सफा मॉतेसर्ॉी ने सामाजिक विशेषज्ञों के साथ मिल कर तैयार किये गये ‘ह्यूमेन एंड नेचर डायनामिकल (हैंडी) मॉडल’ में पूरे घटनाक्रम की विस्तृत व्याख्या की है. इस ‘हैंडी मॉडल’ को प्रतिष्ठित एल्सेवियर जर्नल के इकोलॉजिकल इकोनॉमिक्स सेक्शन में प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया गया है.

इस शोध में मानव और प्रकृति पर आधारित ‘प्रेडेटर-प्रे मॉडल’ में आर्थिक विषमता को केंद्र बनाया गया है. (प्रेडेटर-प्रे मॉडल में इंसान को विनाशक की भूमिका में, जबकि प्रकृति को शिकार की भूमिका में माना गया है). इसमें गणित के चार समीकरणों के माध्यम से चार चीजों (संभ्रांत एवं अमीर लोगों के विकास, आम लोगों की स्थिति, प्रकृति और धन) की व्याख्या की गयी है. इस मॉडल में बताया गया है कि आर्थिक विषमता के हालात या पारिस्थितिकीय विषमता, दोनों में से कोई भी एक मौजूदा सभ्यता की बरबादी का कारण बन सकते हैं. आकलन का यह मॉडल पुरानी सभ्यताओं के अंत पर भी सटीक बैठता है.

शोधकर्ताओं ने क्या दिये हैं तर्क

प्रयुक्त गणित के विशेषज्ञ और शोधकर्ता सफा मॉतेसर्ॉी का कहना है कि इतिहास में कई नयी सभ्यताओं के विकसित होने और अत्यंत विकसित पुरानी सभ्यताओं के खत्म होने के प्रमाण मिलते हैं और यह एक चक्रीय प्रक्रिया है. उन्होंने बताया है कि आज दुनियाभर में तेजी से जनसंख्या वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रकृति की तारतम्यता तेजी से बिगड़ रही है और इसका असर सामाजिक ताना-बाना पर भी पड़ रहा है. वैश्विक आर्थिक संसाधन केवल कुछ लोगों के पास सीमित हो रहे हैं. संपन्नता और गरीबी के बीच की खाई तेजी से बढ़ती जा रही है. थोड़े से संपन्न लोग प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर रहे, जबकि बड़ी संख्या में लोगों को निराशा हाथ लगती है. इससे सामाजिक संरचना बिगड़ रही है.

हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि सभ्यता के इस संभावित विनाश को रोका भी जा सकता है और जनसंख्या भी एक संतुलित स्तर पर आ सकती है, अगर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को सही स्तर पर लाया जाये और आर्थिक संसाधनों का समान वितरण हो.

तकनीकी विकास भी जिम्मेवार

तेजी से हो रहे तकनीकी विकास ने संसाधनों के दोहन के अतिरिक्त विकल्प मुहैया करा दिये हैं. हैंडी (ह्यूमेन एंड नेचर डायनामिकल) रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल के दशकों में तकनीकी सुविधाओं का विस्तार होने से प्राकृतिक स्नेतों का दोहन और तेज हुआ है.

तकनीकी विकास के साथ ज्यादा से ज्यादा लाभ हासिल करने के लिए कुछ लोग संसाधनों का अंधाधुंध उपभोग कर रहे हैं. आम लोग (जो संसाधनों के उपभोग में काफी पीछे हैं) को खतरे का सामना पहले करना पड़ेगा, संभ्रांत लोगों के सामने दिक्कतें बाद में आयेंगी. विनाश से पहले समाज में संभ्रांत लोगों की संख्या बढ़ेगी और संपन्नता संकेंद्रित हो जायेगी, जिससे गरीबों के सामने भुखमरी का संकट उत्पन्न हो जायेगा. इस पूरे घटनाक्रम में एक स्तर के बाद सामाजिक संतुलन बिगड़ेगा. आम लोगों का तेजी से पतन होगा और कुछ तबकों का अंत हो जायेगा, जबकि दूसरी ओर संभ्रांतों का उत्थान जारी रहेगा. कुछ समय के बाद संभ्रांत लोगों को खुद को संतुलित रख पाने में दिक्कतें शुरू हो जायेंगी और आखिरकार उसी पतन की प्रक्रिया से उन्हें भी गुजरना पड़ेगा.

शोध रिपोर्ट में सुझाव

शोध रिपोर्ट में मौजूदा सभ्यता को तबाही से बचाने के लिहाज से सरकारों, औद्योगिक घरानों और उपभोक्ताओं के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए कई बेहद महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये हैं. वैज्ञानिकों ने कहा है कि बेहतर पॉलिसी और संरचनात्मक बदलाव लाकर सभ्यता पर आसन्न संकट से फिलहाल बचा जा सकता है. इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन तुरंत रोका जाये, आर्थिक संसाधनों का समान वितरण हो और जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के ठोस उपाय किये जाएं.

रिपोर्ट में आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए दो सुझावों का उल्लेख किया गया है- पहला, संसाधनों का समुचित एवं न्यायपूर्ण वितरण हो और दूसरा, तेजी से बढ़ रही जनसंख्या पर कारगर नियंत्रण हो. इसमें कहा गया है कि निकट भविष्य में खतरे को भांपते हुए कुछ लोग सामाजिक संरचना में गुणात्मक सुधार की चेतावनी तो देते हैं, लेकिन संभ्रांत लोग और उनके सहयोगी इस तरह के बदलावों का पुरजोर विरोध करते हैं. ऐसे लोग उपलब्ध संसाधनों को लंबे समय तक इस्तेमाल के लिए प्रचुर बताते हुए किसी भी तरह के बदलाव की खिलाफत करते हैं.

मौजूदा दौर की बड़ी चुनौतियां

शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राकृतिक स्थिति में बदलावों की वजह से मानव सभ्यता के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं. इनमें कुछ प्रमुख चुनौतियां इस प्रकार हैं-

ग्लोबल वार्मिग : वैज्ञानिकों के मुताबिक समय रहते अगर सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये तो धरती पर ‘ग्लोबल वार्मिग’ सबसे भयावह चुनौती होगी. जलवायु में परिवर्तन होने से दुनियाभर में मौसम का मिजाज बदल रहा है, जिससे दुनिया के कई हिस्सों में सूखे जैसी त्रसदी से जनता को जूझना पड़ेगा. इससे कई बीमारियों के भी पनपने का खतरा बढ़ जायेगा. वैज्ञानिकों का मानना है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई बड़े शहर खतरे में पड़ जाएंगे. राजनीतिक अस्थिरता, भुखमरी, पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव पृथ्वी पर रहनेवाले जीव-जंतुओं के लिए परेशानियों का सबब बनेंगे.

त्नमहामारी की आशंका : दुनिया के कई हिस्सों में जलवायु परिवर्तनों और अन्य कारणों से कई अज्ञात और संक्रामक बीमारियां तेजी से फैलती हैं. इन बीमारियों से लड़ने के लिए कोई ठोस और कारगर इलाज संभव नहीं हो पाने पर हजारों-लाखों लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं. कुछ सालों पहले स्वाइन प्लू और बर्ड फ्लू जैसी बीमारियों के अचानक बढ़ने से दुनिया कुछ हिस्सों में परेशानियां बढ़ गयी थीं. ऐसे में कई बीमारियों का आसानी से इलाज संभव नहीं हो पाता.

-परमाणु हमला : मानव सभ्यता के लिए वैश्विक स्तर परमाणु हमला सबसे बड़ी चिंता का विषय है. जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में हुआ परमाणु हमला इतिहास के बेहद दुखद अध्यायों में से एक है. परमाणु हथियार गलत हाथों में जाने पर भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं. इस हमले से सैकड़ों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र एक बार में प्रभावित होते हैं.

-जनसंख्या विस्फोट : एशिया सहित सभी महाद्वीपों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. दुनिया की आबादी सात अरब को पार कर चुकी है. अकेले भारत की आबादी करीब सवा अरब हो चुकी है. भारत जैसे विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि और उपलब्ध संसाधनों का समुचित वितरण बड़ी चुनौती है.

जलवायु परिवर्तन से आपदा

दुनिया के तमाम हिस्सों में बाढ़, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर रही हैं. ऐसी आपदाओं से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है. खासकर विकासशील और कम विकसित देशों के लिए प्राकृतिक आपदाएं सबसे बड़ी आफत का कारण बन रही हैं. मौसम विज्ञान की वैश्विक संस्था वर्ल्ड मीटियोरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएमओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 1980 से 2005 के बीच दुनियाभर में 7500 प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 20 लाख से ज्यादा लोगों की मौतें हुईं और इसमें 1.2 खरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक क्षति हुई. इनमें से लगभग दो तिहाई आपदाएं जलवायु संतुलन बिगड़ने के कारण हुई हैं. ज्यादातर आपदाएं सूखा, बाढ़, तूफान, भूस्खलन, चक्रवात, दावानल और महामारी के रूप में सामने

आयी हैं. जलवायु असंतुलन से होनेवाली तबाही सामाजिक संरचना के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होती है. तबाही के दौरान पीड़ितों के बचाने की सबसे अहम चुनौती होती है. उन्हें खाद्यान्न सामग्री उपलब्ध कराने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. इसके अलावा आपदा प्रभावित इलाकों में मलेरिया जैसी महामारियों के फैलने का भी खतरा रहता है. पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं जल्द मुहैया नहीं करा पाने की स्थिति में काफी संख्या में लोगों की जान को खतरा बढ़ जाता है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के लगातार बढ़ने से जलवायु संतुलन बिगड़ रहा है, जिससे तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है. इस स्थिति को ‘ग्लोबल वार्मिग’ कहते हैं. ग्लोबल वार्मिग की वजह से आनेवाली प्राकृतिक आपदाओं का असर सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्ववाले स्थानों पर पड़ता है. नासा की रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक तापमान बढ़ने के कारण ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, जो तूफान आने पर तटीय बाढ़ के खतरे का कारण बन सकता है. संयुक्त राष्ट्र की इंटरगर्वमेटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालय के ग्लेशियर इलाकों में मौसम में विविधता आयी है. इसमें बताया गया है कि वर्ष 2035 तक हिमालय में दो से लेकर 29 फीसदी तक बर्फ पिघलने की घटना में बढ़ोतरी होगी, जिसके चलते भारत और चीन में पीने के पानी की समस्या पैदा हो सकती है.

केदारनाथ के संकेत!

पिछले वर्ष उत्तराखंड में आयी आपदा के चलते केदारनाथ के आसपास सब कुछ बरबाद हो गया. वाडिया इंस्टीटय़ूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु में आये बदलाव की वजह से ऊंचे पहाड़ों पर ग्लेशियर के आसपास का वातावरण बदल गया है. बर्फ पिघलने और भीषण बारिश के चलते झील टूट गयी, जिससे आयी बाढ़ में होटल, मंदिर, धर्मशाला जमींदोज हो गये. बताया गया है कि मानव-निर्मित गतिविधियों में बढ़ोतरी होने के चलते इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं का जोखिम बढ़ चुका है. यहां आनेवाले तीर्थयात्रियों व पर्यटकों के चलते भविष्य में आपदा की प्रवृत्ति में और ज्यादा वृद्धि हो सकती है. इंसानों द्वारा विविध आधारभूत संरचनाओं के निर्माण के चलते पानी के बहाव के प्राकृतिक रास्ते बाधित हो रहे हैं. तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को सुविधाएं मुहैया कराने के चलते हिमालय के दूरदराज के इलाकों में शहरीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिससे समस्या गहराती जा रही है.

कई सभ्यताएं बन गयीं इतिहास

प्रस्तुत मॉडल में रोमन, मौर्य और गुप्त साम्राज्य, मेसोपोटामिया की सभ्यता सहित दुनिया भर की कई ऐसी सभ्यताओं का उल्लेख किया गया है जो उत्थान के बाद खत्म हो गयीं. इसमें कहा गया है कि रोमन साम्राज्य का बड़े ही नाटकीय ढंग से अंत हुआ था. महामारी एवं अन्य कारणों से लगातार कई शताब्दियों तक जनसंख्या में गिरावट, आर्थिक नुकसान, शिक्षा का क्षरण रोमन साम्राज्य के पतन का कारण बना. यूरोप में किसी सभ्यता के उत्थान और पतन का यह पहला घटनाक्रम नहीं था. इसी तरह प्राचीन ग्रीको-रोमन और मिनॉन-मायसेनियॉन सभ्यता का उत्थान हुआ था और सभ्यता के विकास के चरम पर पहुंच कर इनका अंत हो गया.

मेसोपोटामिया सभ्यता के बारे में तो कहा जाता है कि कृषि विकास, संयुक्त समाज और शहरीकरण काफी उन्नत स्तर पर था, लेकिन तेजी से बढ़ी आर्थिक विषमताएं आखिरकार इसे पतन की ओर ले गयीं. पड़ोस में मिस्र में भी उत्थान-पतन का चक्रीय क्रम घटित हुआ. हड़प्पा सभ्यता के पतन के बारे में खुदाई में कई आश्चर्यजनक तथ्य सामने आये. इसी प्रकार गुप्त और मौर्य सभ्यता का भी प्रस्तुत मॉडल में उल्लेख किया गया है. दक्षिण-पूर्वी एशिया में तो 15 शताब्दियों में कई सभ्यताओं के विकास के बाद उनका नामोनिशान मिट जाने से संबंधित साक्ष्य मिलते हैं. मिस्र की तरह चीनी इतिहास में भी कई तरह के उतार-चढ़ाव हुए. खासकर झाउ, हान, तंग और सॅन्ग सभ्यताएं विकास के बाद खत्म हो गयीं.

कैसे खत्म हो गयी सिंधु घाटी सभ्यता

लाखों वर्ग किलोमीटर वर्ग क्षेत्र में फैली सिंधु घाटी सभ्यता (3300-1700 ईसा पूर्व) (इसमें वर्तमान भारत और पाकिस्तान का भू-भाग शामिल है) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी. यह हड़प्पा सभ्यता और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है. मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केंद्र थे. ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं. हड़प्पा सभ्यता कैसे जमींदोज हो गयी, इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन था या हिंसा और महामारी, इस मुद्दे पर इतिहासकारों के अपने-अपने मत हैं. शुरुआती खनन में मिले सबूतों के आधार पर इतिहासकारों का मत था कि पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ने से यह सभ्यता हमेशा के लिए खत्म हो गयी. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में नगरीय व्यवस्था काफी अच्छी थी. इन शहरों का 1900 ईसा पूर्व तक तेजी से विकास हुआ. एससीआइ-न्यूज की रिपोर्ट में एपलेशिन स्टेट यूनिवसिर्टी के डॉ रॉबिंस चुग के मुताबिक जलवायु परिवर्तन, आर्थिक असमानता, सामाजिक परिवर्तन और तेजी से शहरीकरण इसकी तबाही के कारण बने. हालांकि इस बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं हासिल की जा सकी कि जलवायु परिवर्तन ने जनसंख्या वृद्धि को किस तरह प्रभावित किया. डॉ चुग और उनके सहयोगियों ने जांच में पाया कि हड़प्पा के तीन शहरों में संक्रामक बीमारियां भी तबाही का कारण बनी थीं. यह पूरी जांच इस बात का खंडन करती है कि उस दौरान शांति और सामाजिक समरसता काफी उन्नत स्तर पर थी. उनके मुताबिक कुछ समुदायों को जलवायु और सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ा था. हड़प्पा के शहरों में तेजी से हुआ शहरीकरण जनसंख्या के लिए नयी चुनौती बन गया. इस बीच संभवत: लेप्रोसी और टय़ूबरकुलेसिस जैसी संक्रामक बीमारियां तेजी से फैलीं. डॉ चुग के मुताबिक उस समय की परिस्थितियां मौजूदा समाज के लिए बड़े सबक हैं.

एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के शोध में मेघालय, ओमान और अरब सागर से मिले साक्ष्यों से पता चलता है कि 4100 वर्ष पूर्व ग्रीष्म मॉनसून के बेहद कमजोर पड़ जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी भारत बुरी तरह से प्रभावित हो गया था. इससे पूरा क्षेत्र भीषण सूखे की चपेट में आ गया, जो तबाही का कारण बना.

उस दौर में मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताएं भी काफी उन्नत स्थिति में थीं. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक शोधकर्ताओं ने बताया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से मिस्र, ग्रीक, मेसेपोटामिया की सभ्यताओं को भारी नुकसान हुआ.

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