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‘कोई काम नहीं देता, कहता है हमारे यहां छक्कवा काम करेगा!’

"सरकार किन्नर लोगों का प्रॉब्लम कुछ नहीं जानती है. बस गवर्नमेंट कुछ किया है, ये दिखाने के लिए सरकार ऐसे फेस्टिवल करता है लेकिन इससे होता कुछ नहीं है. ना तो सरकार पूछता है कि किन्नर को क्या चाहिए और न ही उसके लिए कुछ करने को तैयार होता है." पटना में हाल ही में […]

"सरकार किन्नर लोगों का प्रॉब्लम कुछ नहीं जानती है. बस गवर्नमेंट कुछ किया है, ये दिखाने के लिए सरकार ऐसे फेस्टिवल करता है लेकिन इससे होता कुछ नहीं है. ना तो सरकार पूछता है कि किन्नर को क्या चाहिए और न ही उसके लिए कुछ करने को तैयार होता है."

पटना में हाल ही में हुए दूसरे किन्नर उत्सव में शरीक होने केरल से आईं ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट 36 साल की श्रीकुटी बिना लाग लपेट के अपनी राय बताती हैं

वो कहती हैं कि केरल में ट्रांसजेंडर जस्टिस बोर्ड बनाया जा रहा है. वहां ट्रांसजेंडर्स को लेकर नीति बनी है और अब उनके समाज को परिचय पत्र बांटने की तैयारी है.

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बिहार के कला संस्कृति मंत्री शिवचंद्र राम कहते है, "हम एक-एक स्टेप आगे बढ़ रहे है. अभी किन्नर उत्सव करके हमने एक स्टेप लिया है बाकी ट्रांसजेंडर्स के लिए नीति पर भी सरकार काम करेगी. लेकिन पहले हम एक काम तो अच्छे से करें."

बता दें कि बीते दो साल से कला संस्कृति मंत्रालय बिहार में किन्नर उत्सव करवा रहा है.

जिसका मकसद किन्नरों के प्रति सामाजिक चेतना को बढ़ाना और उनकी संस्कृति का संरक्षण है. लेकिन ये उत्सव किन्नरों के जीवन में बहुत फर्क ला रहा है, ऐसा नहीं लगता.

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ट्रांसजेंडर बोर्ड

जैसा कि बिहार में किन्नरों के मसले पर मुखर ट्रांसजेंडर रेशमा प्रसाद कहती हैं, "आप देखिए ना तो राज्य में ट्रांसजेंडर्स को लेकर कोई नीति है, ना बोर्ड है, ना स्वास्थ्य सुविधाओं, आवासीय सुविधाओं को लेकर कुछ हो रहा है. साल 2015 में ही ट्रांसजेंडर्स के लिए बोर्ड बना लेकिन उसमें सदस्य ही नहीं है."

वो आगे बताती हैं, "इसी पटना में 1500 से 2000 किन्नर हैं लेकिन किन्नर उत्सव में आए कितने? सिर्फ 60. इसलिए बहुत जरूरी है कि उत्सव के साथ साथ कुछ ठोस नीतिगत पहल हो."

बीरा पटना विश्वविद्दालय की छात्र हैं. उनकी जिंदगी पर स्थानीय स्तर पर "द बीरा: अनटोल्ड स्टोरी" नाम की फिल्म बनी है. लेकिन बीरा की ये उपलब्धियां उसको एक छोटी सी नौकरी दिला पाने में भी नाकाम रहती है.

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किन्नरों के सवाल

वो बताती हैं, "मैं खुद कमा कर पढ़ना चाहती हूं क्योंकि घरवालों ने मुझे अलग कर दिया है. लेकिन मुझे एक छोटी सी नौकरी नहीं मिल पाती. क्योंकि मैं किन्नर हूं. पहले हालात ये थे कि मुझे शनिवार और रविवार को बधाइयां गानी पड़ती थी ताकि मैं पढ़ाई का खर्चा निकाल सकूं. अभी कुछ दिन पहले मुझे सैनिटेशन के सर्वे का काम मिला है लेकिन वो भी काफी हो हल्ले के बाद. पहले तो काम देने वालों ने ये कहकर भगा दिया कि हमारे यहां छक्कवा काम करेगा."

पटना के रवीन्द्र भवन में आयोजित इस किन्नर उत्सव में शिरकत करने आईं देश के पहले किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्लवर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भी यहीं सवाल उठाती हैं.

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ठोस नीति

लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी कहती हैं, "किन्नरों का सबसे बड़ा मसला या समस्या उनका स्वास्थ्य है, शिक्षा है, जीविका का साधन है, उनके लिए आवासीय सुविधा है. उस पर हमारा सामाजिक अधिकारिता मंत्रालय क्या कर रहा है. बाकी इस तरह के उत्सव अच्छे हैं लेकिन जब तक उनके जीवन से जुड़े मुद्दों पर कोई ठोस नीति नहीं बनेगी तब तक उनका जीवन सुंदर और सुखद नहीं होगा."

हालांकि ऐसे उत्सवों को एक सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता.

जैसा कि कोलकाता से आई मेघा शायंतनी कहती हैं, "ऐसे उत्सव हमें खुद की आइडेंटिटी को सामने लाने को मौका देते हैं और देश में कितने मंच हैं, जहां पर आप जाकर इस तरह से परफॉर्म कर सकते हैं."

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