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‘रोजा’ रोजेदार के लिए दुआ का दरख्त है

डॉ नसर फिरदौसी दुनिया के हर महजब में अपने-अपने मजहबी तरीके से लोग उपवास (रोजा) रखते हैं. हर शख्स अपने-अपने मजहब की मान्यताअों के तहत उपवास के कायदे-कानून का पालन करता है. सब मजहबों में उपवास (रोजा) का तशबीहात (उपमाअों) से जिक्र किया गया है. मिसाल के तौर पर जैन धर्म में पर्यूषण पर्व के […]

डॉ नसर फिरदौसी
दुनिया के हर महजब में अपने-अपने मजहबी तरीके से लोग उपवास (रोजा) रखते हैं. हर शख्स अपने-अपने मजहब की मान्यताअों के तहत उपवास के कायदे-कानून का पालन करता है. सब मजहबों में उपवास (रोजा) का तशबीहात (उपमाअों) से जिक्र किया गया है. मिसाल के तौर पर जैन धर्म में पर्यूषण पर्व के उपवास आत्मशुद्धि और कषाय मुक्ति का पर्व है.
सनातन धर्म के माननेवालों में नवरात के उपवास मातृशक्ति और भक्ति के प्रतीक हैं. यानी हर धर्म में उपवास को विशिष्ट दृष्टि से देखा गया है. इननज यानी जो जिस धर्म का माननेवाला है, उसको अपने धर्म के मुताबिक चलने और पालन करने में इसलाम को कोई गुरेज नहीं है. हकीकत यह है कि पवित्र कुरआन के तीसरे पारा (अध्याय-30) की सूरें-काफेरन की आखिरी आयत में जिक्र है – ‘‘लकुम दीनोकुम वले यदीन’’- यानी तुम तुम्हारे दीन पर रहा मैं मेरे दीन पर हूं.
चूंकि इसलाम मजहब एकेश्रवखाद (लाइलाहा इल्लल्लाह) को मानता है और हजरत मोहम्मद (स) को अल्लाह का रसूल (मोहम्मदुर्र रसुल्ललाह) स्वीकारता है, इसलिए रोजा मुसलमान पर फर्ज की शक्ल में तो है ही, अल्लाह की इबादत का एक तरीका भी है और सलीका भी. तक्वा (पुण्य कर्म और साधनों की शुद्धता) तरीका है रोजा रखने का. सदाकत (सत्य-निष्ठा), सलीका है रोजे की पाकीजगी का. सब्र, सड़क है रोजेदार की. जकात (दान), पुल है रोजेदार का. ऐसा पाकीजा रोजा रोजदार के लिए दुआ का दरख्त है.

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