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मजदूर दिवस पर विशेष : हॉस्टल बंद, तो ईंट-भट्ठा लौटेंगे 86 बच्चे
नि:शुल्क सुविधा दे रही है आशा, सरकार से लगायी गुहार अभी आशा संस्था द्वारा दो हॉस्टल एक सरायकेला और एक रांची में संचालित है. पहले तीन हॉस्टल थे, पर फंड की समस्या के कारण एक हॉस्टल बंद करना पड़ा. गरमी की छुट्टी आरंभ हो गयी है, बच्चों के माता-पिता उन्हें लेने आयेंगे. चार महीने बाद […]
नि:शुल्क सुविधा दे रही है आशा, सरकार से लगायी गुहार
अभी आशा संस्था द्वारा दो हॉस्टल एक सरायकेला और एक रांची में संचालित है. पहले तीन हॉस्टल थे, पर फंड की समस्या के कारण एक हॉस्टल बंद करना पड़ा. गरमी की छुट्टी आरंभ हो गयी है, बच्चों के माता-पिता उन्हें लेने आयेंगे. चार महीने बाद जब ये बच्चे दोबारा यहां आयेंगे, तब शायद संस्थान उनके लिए न हो.
सुनील चौधरी/सुनील झा
रांची : मैं इस हॉस्टल में पिछले चार वर्ष से रह कर पढ़ाई कर रही हूं. माता-पिता ईंट भट्ठा में काम करते हैं. पता नहीं है कहां काम करते हैं. छोटी सी थी तब हम भी भट्ठा में ही रहते थे. अब यहां हॉस्टल में रहने लगे हैं.
यहां बहुत अच्छा लगता है. नाश्ता, खाना मिलता है, खेलते भी हैं और सिलाई-कढ़ाई भी सीखते हैं. मैं मठ तुरियंबा गांव से आयी हूं. पहले कभी साफ कपड़ा नहीं पहना. अब पहन रही हूं. गांव में रहती थी, तो बकरी-भैंस चराने जाती थी, पर अब यहां पढ़ रही हूं. मैं फुटबॉल खिलाड़ी बनना चाहती हूं. लेकिन यह हॉस्टल बंद हो गया, तो हमें फिर से ईंट -भट्ठा पर जाना होगा. यह कहते हुए सुकरमनी उरांव सिसक पड़ती है.
वह बंगाल के ईंट-भट्ठों से यहां लायी गयी है. पिछले चार साल से यहां रह कर पढ़ाई कर रही है. इस समय वह नामकुम प्रखंड के भुसुर स्थित आशा संस्था द्वारा संचालित हॉस्टल में रह रही है. अच्छी फुटबॉल भी खेल लेती है. पर उसके चेहरे पर एक चिंता साफ झलक रही है, कहीं फिर से उसी ईंट-भट्ठे में न लौटना पड़े.
यही चिंता कक्षा पांच में पढ़नेवाले नितेन कुजूर का है. बिरसमुनी धनवार, आरती लकड़ा सबकी यही चिंता है. फिलहाल तो कोई परेशानी नहीं है, पर आनेवाले संकट को लेकर हॉस्टल संचालक से लेकर यहां रहनेवाले तमाम आदिवासी छात्र-छात्राएं चिंतित हैं.
वर्ष 2011 से चल रहा है बच्चों का हॉस्टल
आशा के सचिव अजय कुमार जायसवाल बताते हैं कि 10 साल पहले वह हावड़ा के एक ईंट-भट्ठा गये थे. वहां देखा कि मजदूरों के बच्चों का जीवन दयनीय है. कोई काम नहीं है, पढ़ाई भी नहीं कर रहे हैं. फिर वह और उनके साथी पूनम टोप्पो, मुन्नी कच्छप और गुंजा कुमारी ने वहीं पर बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. वहां के मजदूर रांची, खूंटी और गुमला के ही थे.
इसके बाद उन्होंने तय किया कि रांची में ही ऐसा हॉस्टल खोला जाये कि जिनके मां-बाप बाहर मजदूरी करते हैं उनके बच्चे यहीं रहकर पढ़ाई कर सके. वर्ष 2011 में लालखटंगा के भुसुर में हॉस्टल खोला. पूनम टोप्पो ने अपनी जमीन दी. आरंभ में दो-तीन कमरे ही थे. 30-40 बच्चों से हॉस्टल आरंभ हुआ. जोश में खोल लिया गया पर बच्चों के खाने-पीने को लेकर फंड की समस्या आने लगी. फेसबुक में उन्होंने यह बात लिखी. तब फ्रांस के एयर लिक्विड फाउंडेशन और एड भारती फाउंडेशन के लोग संपर्क में आये. उन्होंने मदद की. फेसबुक से ही लिटरेट मिसेस एक संस्था ने भी मदद की पेशकश की. फ्रांस से 15 लोगों का एक ग्रुप आया. यहां 15 दिन रहकर उन्होंने हॉस्टल के दूसरे तल्ले का निर्माण कराया.
आठ महीने रहते हैं बच्चे
इस हॉस्टल में बच्चे आठ महीने तक रहते हैं अक्तूबर से लेकर जून तक बच्चे रहते हैं. मई माह से ही ईंट-भट्ठाें के मजदूर जब लौटते हैं तब अपने साथ बच्चों को घर ले जाते हैं. बच्चे यहीं रहकर अपने स्कूल जाते हैं. पढ़ाई करते हैं. यहां भी उनकी पढ़ाई, सेहत व साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है.
अबकी बार संगी दुइओ खेलब होली : एक छात्र विमल लकड़ा अच्छा गायक है. नागपुरी में वह गीता सुनाता है अबकी बार संगी दुइओ खेलब होली. उसे दुख है कि होली कभी अपने माता-पिता के साथ नहीं मना पाता. यह दर्द उसके गाने से छलक रहा था. वह कहता है कि जब वह बड़ा होगा तो पुलिस में जायेगा और फिर माता-पिता को कभी ईंट-भट्टों में नहीं जाने देगा.
पलायन करनेवाले परिवारों के लिए आशा
आशा संस्था झारखंड से पलायन करनेवाले मजदूर परिवारों के बच्चों के लिए आशा बन कर उभरा है. आज तक बिना किसी सरकारी सहायता से यहां संस्था चल रहा है. यहां वैसे मजदूरों के बच्चे रहते हैं जिनके माता-पिता गरीबी और बेरोजगारी से तंग आकर पलायन के लिए बेबस हैं.
कोई मुंबई में है, कोई कोलकाता, यूपी, बिहार और आंध्रप्रदेश में. सबके बच्चे यहां हैं. नीचे में लड़कों को रखा जाता है. ऊपरी तल्ले पर लड़कियों को. पांच से 14 वर्ष तक के बच्चे यहां हैं. सब अनुशासित. लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग बाथरूम है.
सरकारी दफ्तरों में झूल रही है फाइल
अजय बताते हैं कि एडीजी अनुराग गुप्ता अक्सर यहां सहायता करते हैं. उन्होंने ही सरकार से मदद लेने का सुझाव दिया था. इसके बाद मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव संजय कुमार से मुलाकात उन्होंने ही करायी. प्रधान सचिव ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत फंड उपलब्ध कराने के लिए स्कूली शिक्षा विभाग के पास फाइल भेज दी. सचिव अाराधना पटनायक ने भी मदद का भरोसा दिया. पर नीचे जाकर फाइल अटक गयी है. चिंता इस बात की है कि बच्चों को क्या होगा. कहीं से कोई आस नहीं दिख रही है, मजबूरन संस्था को बंद करना पड़ सकता है.
बच्चों की गुहार, छूट न जाये कहीं स्कूल
आशा संस्था में रांची, खूंटी, गुमला, सरायकेला, लातेहार समेत झारखंड के अन्य जिलों के लगभग 86बच्चे रहते है़ं बच्चों ने कहा कि अगर संस्था बंद हुआ, तो उनका पढ़ाई भी बंद हो जायेगी. फिर कभी स्कूल नहीं जा पायेंगे़ संस्था में आने से पहले वे अपने माता-पिता के साथ ईंट भट्ठा में काम करने या उनके साथ वहीं रहने चले जाते थे़ आशा संस्था में वर्ष में आठ माह रहते है़ं अब जबकि संस्था को कहीं से अनुदान नहीं मिल रहा है, इनका भविष्य भी अधर में लटक सकता है़
कैसे होती है व्यवस्था : संस्था के सचिव अजय बताते हैं कि आजतक सरकार से कोई सहायता नहीं मिली है. पिछले वर्ष तक यूनिसेफ के लोग सहयोग कर रहे थे. अब उनका कहना है कि अभी यूनिसेफ हेल्थ सेक्टर पर ध्यान दे रहा है, फिलहाल हॉस्टल का खर्च उठाना संभव नहीं है.
सीसीएल और एचपीसीएल द्वारा कभी-कभी मदद की जाती है. राशन की कमी को देखते हुए पिछले माह अाइएएस वाइव्स एसोसिएशन ने एक माह का राशन दिया है. यहां बच्चों को नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का भोजन दिया जाता है. एक बच्चे पर 40 रुपये का खर्च आता है. 16 स्टाफ हैं जो इनकी देखरेख करते हैं. इस समय 86 बच्चे हैं. अजय ने बताया कि कई बार आइएएस व आइपीएस की पत्नियां यहां आकर बच्चों को भी पढ़ाती हैं.
हॉस्टल के अलावा यहां सुबह में दिन के नौ बजे से एक बजे तक ड्रापअाउट बच्चों का स्कूल भी चलता है. अभी आशा संस्था द्वारा दो हॉस्टल एक सरायकेला और एक रांची में संचालित है. पहले तीन हॉस्टल थे, पर फंड की समस्या के कारण एक हॉस्टल बंद करना पड़ा. गरमी की छुट्टी आरंभ हो गयी है, बच्चों के माता-पिता उन्हें लेने आयेंगे. चार महीने बाद जब ये बच्चे दोबारा यहां आयेंगे, तब शायद संस्थान उनके लिए न हो.
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