रांची : रांची रेलवे स्टेशन में 16 बेड का डोरमेट्री बन कर तैयार हो गया है. इस डोरमेट्री को रांची रेलवे स्टेशन के पहले तल्ले में यात्री निवास के सामने बनाया गया है. इसके बन जाने से रांची में किसी काम से आये यात्रियों को रहने की सुविधा मिल सकेगी. डोरमेट्री में हर यात्रियों को एक कमरा मिलेगा.
यह कमरा आठ बाई आठ का होगा. इसके अंदर एक बेड, एक चेयर व एक मिरर रहेगा. कमरे के अंदर लगनेवाले सभी सामानों की खरीदारी हो चुकी है. वातानुकूलित डोरमेट्री में कई अन्य सुविधा भी उपलब्ध करायी जायेगी. शौचालय कॉमन रहेगा. इसके लिए यात्रियों को कम से कम किराया देना होगा. इसका किराया तीन सौ रुपये के अंदर रखे जाने की उम्मीद है.
सत्ता विकेंद्रीकरण का रास्ता तय होना अभी बाकी
प्रकाश विप्लव
झारखंड में गैर दलीय त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था ने पांच वर्ष पूरे कर लिये हैं अौर राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा नये चुनाव के कार्यक्रमों की घोषणा के बाद चार चरणों में कराया गया मतदान भी समाप्त हो गया है. पहले चरण के पंचायत चुनाव से ही लोगों ने काफी उत्साह दिखाया अौर नक्सल प्रभावित इलाकों में भी नक्सलियों के ‘वोट बहिष्कार’ के नारे की उपेक्षा कर ग्रामीण जनता ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लिया है.
इस चुनाव में जीत कर आये 55 हजार से ज्यादा निर्वाचित प्रतिनिधियों में बड़ी संख्या हाशिये पर रखे गये वैसे तबकों की थी, जिन्हें पहली बार लोकतांत्रिक स्वशासन चलाने का अधिकार मिला. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जड़ जमाये निहित स्वार्थी तत्व जो अब तक विकास योजनाअों को धरातल पर उतरने से पहले ही उसे हड़प जाते थे.
ऐसे बिचौलियों, दलालों अौर भ्रष्ट नौकरशाहों का यह गंठजोड़ पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास करने लगे. इनमें से कई ने चुनाव के पूर्व उम्मीदवारों पर निवेश भी किया था इस उम्मीद से कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को वे अपनी कठपुतली बनाये रख सकें.
झारखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चनाव होने के बाद भी पंचायत प्रतिनिधियों को उनके अधिकार से वंचित रखा गया. राज्य सरकार पंचायतों को वित्तीय अौर प्रशासनिक अधिकार देने के प्रति उदासीन रही, जिसके खिलाफ निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा झारखंड राज्य पंचायत परिषद के आह्वान पर 8 अगस्त, 2012 को झारखंड बंद का कार्यक्रम किया गया.
कहने को तो राज्य सरकार ने झारखंड पंचायत राज्य अधिनियम में उल्लेखित 29 कार्य पंचायतों के हवाले करने की घोषणा कर दी, लेकिन व्यवहार में अब तक कुछ नहीं हुआ. बालू घाटों की नीलामी का अधिकार भी पंचायतों से छीन कर बालू माफियाअों के हवाले कर दिया गया है.
राज्य सरकार ने जो अधिकार दिये वह भी आज आधे-अधूरे थे, उसी प्रकार अनुसूचित क्षेत्र में पेसा कानून की अनदेखी कर अौर संवैधानिक ग्राम सभाअों को दरकिनार कर आदिवासी अौर दूसरों गरीबों की जमीन कॉरपोरेट घरानों को दे दी गयी है. इस काम में राज्य में अब तक की सभी सरकारों का रवैया एक जैसा ही रहा,
जिसके चलते पंचायती राज का समुचित लाभ ग्रामीण जनता नहीं उठा सकी. सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए सबसे जरूरी है कि इसमें तमाम वंचित वर्ग के लोगों की सीधी भागीदारी सुश्चित हो. यह पिछले पांच वर्षों में कितना हुआ है इस पर कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ है. लेकिन नीचे के स्तर पर ग्रामीण जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं. अब जबकि पंचायती राज संस्था ने पांच साल पूरे कर लिये हैं अौर ग्रामीण जनता भी अपने अनुभवों से थोड़ी परिपक्व हुई है,
लेकिन एक बड़ी बाधा यह है कि गैर दलीय पंचायती व्यवस्था होने के कारण निवार्चित प्रतिनिधि व्यक्तिगत तौर पर ही स्वशासन को जमीन पर उतारने की कोशिश कर रहे हैं.
बहरहाल, अब जब नये पंचायत चुनाव हो चुके हैं तब सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि पंचायतें ग्रामीण गरीबों के नियंत्रण में होंगे या भ्रष्ट ठेकेदारों -नौकरशाहों अौर बिचौलियों के हाथों में? इसी पर ग्रामीण गरीबों का भविष्य निर्धारित होगा. सत्ता के विकेंद्रीकरण एवं लोकतंत्र में जनभागीदारी के लिए पंचायत चुनाव एक बड़ा अवसर था चूंकि झारखंड में गैरदलीय पंचायत राज व्यवस्था है इसलिए पंचायतों के अपने जन प्रतिनिधियों के लिए कुछ कार्यक्रम निर्धारित करने होंगे, ताकि अगले पांच वर्षों में इनके कार्यक्रमों के परिणामों के आधार पर चुने गये पंचायत प्रतिनिधियों के काम आकलन किया जा सके.
इन पांच वर्षों में कुछ तो सकारात्मक बदलाव हुए हैं. ग्रामीण मतदाता भी पहले की अपेक्षा जागरूक हुए हैं. जरूरत है नीचे स्तर पर लोकतंत्र की बुनियाद पंचायतों पर ग्रामीण गरीबों का नियंत्रण सुदृढ़ करने की, लेकिन यह निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है. इसलिए उम्मीद करना चाहिए कि ग्रामीण गरीबों की चेतना को आगे बढ़ाने की दिशा में वर्तमान पंचायत चुनाव एक मील का पत्थर साबित होगा. क्योंकि पंचायत व्यवस्था राज सत्ता के विकेंद्रीकरण की अोर बढ़ा हुआ एक महत्वपूर्ण कदम है. (लेखक माकपा नेता हैं)