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आखिर ऐसा क्‍या लिख दिया सोवेंद्र शेखर ने कि उद्वेलित हुए आदिवासी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता

रांची : साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता झारखंड के डॉक्टर और लेखक-साहित्यकार हांसदा सोवेंद्र शेखर के खिलाफ आदिवासी समाज में उबाल है. साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ताअों ने उनके उपन्यास ‘सीमेन, सलाइवा, स्वीट, ब्लड’ की अश्लील भाषा पर उनका जबरदस्त विरोध किया है. यहां तक कि साहित्य अकादमी को पत्र लिख कर यह पूछा गया है कि […]

रांची : साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता झारखंड के डॉक्टर और लेखक-साहित्यकार हांसदा सोवेंद्र शेखर के खिलाफ आदिवासी समाज में उबाल है. साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ताअों ने उनके उपन्यास ‘सीमेन, सलाइवा, स्वीट, ब्लड’ की अश्लील भाषा पर उनका जबरदस्त विरोध किया है. यहां तक कि साहित्य अकादमी को पत्र लिख कर यह पूछा गया है कि ऐसे किसी लेखक को साहित्य अकादमी जैसा प्रतिष्ठित सम्मान कैसे दे दिया गया.

दरअसल, डा. शेखर को वर्ष 2015 में साहित्य अकादमी ने युवा लेखक का पुरस्कार दिया था. यह उन्हें यह पुरस्कार उनके उपन्यास ‘द मिस्टीरियस एलीमेंट ऑफ रूपी बास्के’ के लिए दिया गया था. साहित्यकारों ने अकादमी से पूछा है कि अकादमी के पुरस्कार देने के नियम क्या हैं?

डा. हांसदा के खिलाफ झारखंड से उठा विरोध का यह स्वर अब राष्ट्रीय स्वरूप लेने लगा है. जामिया मिलिया इसलामिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर डॉ आइवी इमोजेंस हांसदा ने अकादमी को पत्र लिखा है. इसमें शेखर के ताजा उपन्यास के साथ-साथ उनकी कहानी संग्रह ‘आदिवासी विल नॉट डांस’ पर भी गंभीर सवाल खड़े किये गये हैं.’

आदिवासी समाज और आंदोलन पर कई किताबें लिखनेवाले अश्विनी कुमार पंकज तो डा. हांसदा की भाषा शैली से क्षुब्ध हैं. वह कहते हैं, ‘जब मैंने इस अंग्रेजी उपन्यास को पढ़ा, तो हैरत हुई कि एक लेखक सिर्फ बाहरी दुनिया, जिससे आदिवासी समाज अनेक वर्षों से सांस्कृतिक युद्ध में है, से प्रशंसा-पुरस्कार पाने के लिए किस हद तक ‘गैरजरूरी’ लेखन कर सकता है. और जब हांसदा सोवेंद्र शेखर की कहानियों का संग्रह ‘द आदिवासी विल नॉट डांस’ आया, तो मेरी यह धारणा और मजबूत हुई कि इस आदिवासी लेखक को अपने ‘आदिवासीपन’ से घृणा है. यह बेहद दुखद पहलू है.’

हालांकि, हांसदा सोवेंद्र शेखर को अपनी लेखनी में कुछ भी गलत नहीं लगता. वह कहते हैं, ‘मैंने जो लिखा है, वह एकदम सही लिखा है. किसी को आपत्ति हो सकती है. इसमें कुछ भी गलत नहीं लिखा है.’

बहरहाल, लेखक अपनी लेखनी के बारे में क्या सोचता है, यह मायने नहीं रखता. मायने यह रखता है कि कोई किसी लेखक की पुस्तक के बारे में क्या सोचता है. वह लोगों को कितना प्रभावित कर पाता है, यह मायने रखना है. और हांसदा सोवेंद्र शेखर के मामले में उनके ही समाज के लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताअों ने उनकी लेखनी का विरोध शुरू कर दिया है. सोशल मीडिया पर जिस आक्रामकता के साथ विरोध शुरू हुआ है, वह बताता है कि आदिवासी समाज के लोग सोवेंद्र शेखर से बेहद नाराज हैं.

अश्विनी कुमार पंकज ने हांसदा का विरोध करते हुए उनके समर्थकों को भी आड़े हाथ लिया. उन्होंने फेसबुक पर लिखा, ‘जो लोग एक कोकशास्त्रीय आदिवासी लेखक के पक्ष में खड़े हैं और कह रहे हैं कि बेचारा ‘शहीद’ किया जा रहा है, उन सम्माननीयों से निवेदन है कि फिलहाल वे सब इस एक पृष्ठ का अनुवाद हिंदी, बांग्ला और संताली में जरूर करें, ताकि लोग जान सकें कि यह कितना साहित्य है और कितना पोर्नोग्राफी. लेखक के समर्थकों से यह भी आग्रह है कि वे सरकार पर दवाब बनायें कि कम से कम बीए साहित्य की कक्षाओं के सिलेबस में इसे जरूर पढ़ाया जाये. अगर यह कोकशास्त्र नहीं है तो. और है, तो फिर उन्हें लेखक की भर्त्सना तो करनी ही चाहिए.’

अश्विनी कुमार पंकज के इस पोस्ट को जबरदस्त समर्थन मिला. लोगों के विरोध के स्वर और तेज हुए. नरेश मुर्मू ने लिखा, ‘मैंने इसे अभी तक न पढ़ा है और न ही देखा है. अगर ऐसी भाषा और संताल महिलाओं की गलत तस्वीर अपने किताब मे व्यख्या की है, तो निश्चित रूप से यह गंभीर मामला है. हम लोग इसे संज्ञान में लेकर अंतराष्ट्रीय संताल पारिषद की ओर से साहित्य अकादमी से संपर्क कर पुनर्विचार करने के लिए आग्रह करेंगे एवं सामाजिक रूप से भी हांसदा सोवेंद्र शेखर से स्पष्टीकरण मांगा जायेगा.

महेंद्र बेसरा ने लिखा, ‘डॉ साहेब. आप अंग्रेजी लेखक के साथ-साथ सम्मानित पद पर कार्यरत हैं. आपकी जो मानसिकता है, वह आपने दिखा ही दी है. अपनी कहानियों में आदिवासी ताड़का लगा कर जो वाहवाही बटोर रहे हैं, उसकी हम भर्त्सना करते हैं. सुधर जाइए और भोली-भाली संताल लड़कियों को बेचना छोड़ दिजिये.

लॉरेंस हेम्ब्रोम धमकी भरे शब्दों में लिखते हैं, ‘सुधार जाओ, वरना तुम जानते हो. वहां चोर को नहीं छोड़ा जाता, तो चरित्र हनन करनेवाले का क्या हश्र होगा, सोच लो.’ ऐसा ही गुस्सा लॉरेंस टुडू ने भी दिखाया. उन्होंने लिखा, ‘इसे पाकुर के चौक पर मुंह काला और मुंड कर घुमाया जाये.’ अजित कुमार इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का हथकंडा मानते हैं, वह लिखते हैं, ‘चीप पब्लिसिटी स्टंट, कुछ तो करेंगे न भाई… ऊपर से अंग्रेजी में… फिर तो कहना ही क्या…’

इसके बाद लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग ने फेसबुक पर डा. हांसदा सोवेंद्र शेखर के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया. उन्होंने लिखा, ‘कोकशास्त्र के महान लेखक डा. हांसदा सोवेंद्र शेखर को साहित्यकार बता कर उनकी कृति के लिए उन्हें पुरस्कार दिया गया, और अब जब उनकी आलोचना हो रही है, तो कुछ लोग उनको अभी भी महान साहित्यकार बता कर उनके पक्ष में खड़े हैं. ऐसे लोगों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि डा. हांसदा के उपन्यास और कहानी संग्रह में आदिवासी दर्शन कहां है?’

उन्होंने आगे लिखा है, ‘आदिवासी दर्शन के बगैर लिखे गये उपन्यास, कहानी या अन्य लेखन को आप आदिवासी समाज का प्रतिबिंब कैसे मान सकते हैं? क्या आपको आदिवासी दर्शन से डर लगता है, इसलिए एक आदिवासी लेखक के द्वारा लिखे गये कूड़ा को साहित्या का दर्जा देने पर तुले हुए हैं? कोई एक नकारात्मक घटना, एक व्यक्ति के साथ हुए अमानवीय व्यवहार या एक परिवार की समस्या पूरे समाज का प्रतिबिंब नहीं होती. ऐसी घटनाएं या समस्याएं समाज में सनसनी जरूर पैदा कर सकती हैं. जिस उपन्यास, कहानी या अन्य लेखनी में आदिवासी दर्शन ही न हो, वह न तो आदिवासी साहित्य कहलायेगा, न ही आदिवासी लेखनी.’

डुंगडुंग यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा, ‘आदिवासी समाज को वैसे आदिवासी लेखक अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए बदनाम कर रहे हैं, जो व्यक्तिवादी दिकू समाज का हिस्सा बन चुके हैं. उनका एक ही मकसद है, आदिवासी समाज को बदनाम करके नाम, पैसा और पुरस्कार हासिल करना.’

ग्लैडसन ने अपने गुस्से का इजहार करते हुए लिखा है, ‘ऐसा देखा गया है कि अंग्रेजी भाषा में लिखनेवाले अधिकांश लेखक ने अपने समाज को ही बदनाम करके दुनिया में नाम, पैसा और शोहरत हासिल की है. लेकिन, यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी समाज को ऐसे लेखकों की जरूरत है? क्या ऐसे लेखकों को आदिवासी समाज कभी माफ करेगा? यदि आज आदिवासी समाज खड़ा है, तो इसके लिए बाबा तिलका मांझी, सिदो-कान्हू और बिरसा मुंडा के साथ हजारों आदिवासियों ने इसे बचाये रखने के लिए अपना खून बहाया है और अपनी जान दी है?’

ग्लैडसन डुंगडुंग हांसदा सोवेंद्र जैसे लेखकों को चुनौती देते हुए कहते हैं कि यदि उनमें हिम्मत है, तो तो आदिवासी दर्शन को अपनी लेखनी के जरिये दुनिया के सामने रखें. यदि उन्होंने कभी ऐसी हिम्मत दिखा दी, तो न तो कोई उनकी पुस्तक को प्रकाशित करेगा, न ही कोई पुरस्कार देगा. स्टार बनाना और उनके साथ खड़ा रहना तो दूर की बात है.

ग्लैडसन ने जैसे ही गुस्से का इजहार किया, आदिवासी समाज के कई और लोगों ने भी हांसदा के प्रति गुस्से का इजहार किया. किसी ने उन्हें लैंगिक रोगी कहा, तो किसी ने घटिया इंसान की संज्ञा तक दे डाली. माखनलाल शोरी ने लिखा, ‘घटिया मानसिकता साहित्य नहीं, लैंगिक रोग होती है.’ वहीं, सरोजिनी हांसदा टुडू ने कहा, ‘साहित्यकार नहीं घटिया किस्म का इंसान है.’

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डा. हांसदा के उपन्यास की भाषा से झल्लाये जय एक्का लिखते हैं, ‘यदि यह साहित्यिक रचना है, तो ये लेख साहित्य अकादमी के गेट पर लगायी जाये. लेखक के नाम और उपाधि के साथ.’ वहीं, राजू मादावी ने लिखा कि आदिवासियों की उपासना का इतिहास है. उसमें ये कड़ी और जोड़ी गयी है, जो सोची-समझी साजिश का हिस्सा है.

संजय कुमार तांती ने डुंगडुंग के फेसबुक पोस्ट पर इन शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दी है, ‘हमें ऐसी पुस्तकों की जरूरत है, जिसमें हमारी संस्कृति और हमारे समाज का असल इतिहास हो. हालांकि, हमें इस पुस्तक के बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं है, जिसका आपने ऊपर जिक्र किया है.’

यहां बताना प्रासंगिक होगा कि रांची में जन्मे और घाटशिला व चकुलिया में पले-बढ़े डा. हांसदा सोवेंद्र शेखर पेशे से चिकित्सक हैं. पाकुर के सिविल सर्जन कार्यालय में पदस्थापित हैं. 15 साल की उम्र से ही उन्होंने पत्र-पत्रिकाअों में लिखना शुरू कर दिया था. इंडियन लिटरेचर, द स्टेट्समैन, द एशियन एज, गुड हाउसकीपिंग, नॉर्थईस्ट रिव्यू, द फोर क्वार्टर्स मैगजीन, अर्थेन लैंप जर्नल, अलकेमी जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाअों में उनकी लघु कहानियां और लेख प्रकाशित हो चुके हैं.

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