जावेद इस्लाम
चंदा कर एजेंट जुगाड़ते थे अपना बूथ खर्च
बरही : सीपीआइ नेता रामलखन सिंह 1985 में चुनाव जीत कर भी हार गये थे. बरही सीट के लिए अंतिम मतगणना में 24 वोटों से उनको विजयी घोषित कर दिया गया था. वह प्रमाणपत्र मिलने का इंतजार कर रहे थे, तभी जिला निर्वाचन पदाधिकारी ने बूथ नंबर 120 के वोटों की पुनर्मतगणना की घोषणा कर दी.
दोबारा गिनती के बाद वह कांग्रेस के निरंजन सिंह से 104 वोटों से हार गये. 1990 के चुनाव में निरंजन सिंह ने भाजपा से चुनाव लड़ा. इसमें रामलखन सिंह ने अपनी हार का बदला ले लिया. कांग्रेस दूसरे और भाजपा तीसरे नंबर पर रही. 1995 में रामलखन सिंह कांग्रेस प्रत्याशी मनोज यादव से चुनाव हार गये.
श्री सिंह कहते हैं : 1985 में मुझे जान-बूझ कर चुनाव हराया गया था. मैंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन, फैसला आते तक दोबारा चुनाव हो गये और मैं जीत गया. 1995 का चुनाव हारने के बाद मैं सक्रिय राजनीति से दूर हूं. मौजूदा राजनीति की गिरावट देख कर 80 साल की उम्र में भी मुझे बहुत गुस्सा आता है. उस समय चुनाव में जात-पात व धन का प्रभाव नहीं था. कार्यकर्ता अपने घर से सत्तू-चूड़ा लाकर प्रचार के लिए निकलते थे. बूथ खर्च के रूप में दस-बीस रुपये बूथ एजेंट को देते थे. कई तो गांव में चंदा करके बूथ खर्च का जुगाड़ करते थे.
पूरा चुनाव आम जनता से चंदा लेकर लड़ा जाता था. जीप का किराया देने के लिए घर का सामान तक बेचना पड़ा था. अपने जुझारूपन की बात करते हुए श्री सिंह कहते हैं : 1968 में मैंने बिहार की महामाया सरकार में पीडब्लूडी मंत्री राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह के विरुद्ध सरकारी खजाने का गबन का केस किया था. राजा पटना में गांधी सेतु निर्माण के लिए अमेरिका से डिजाइनिंग कराना चाहते थे. इसके लिए सरकारी खजाने से 28,800 रुपये निकाले गये थे. महामाया सरकार गिरने के बाद बिहार में जगदेव बाबू- बीपी मंडल की सरकार बनी. राजा मंत्री नहीं रहे. उन्होंने न तो अमेरिका जाकर डिजाइनिंग करायी और ना ही सरकार को राशि लौटायी. मैंने मामला सुप्रीम कोर्ट तक ले गया. लेकिन, इसी बीच राजा साहब की रहस्यमय मौत हो गयी और मामले का पटाक्षेप हो गया.