23.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

नयी राह खोजें !

-दर्शक- अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो और हेमंत सोरेन के लिए सुनहरा मौका है. झारखंड की खोई गरिमा और साख लौटाने की. देश-दुनिया में बदनाम और अपमान की दृष्टि में देखे जानेवाले झारखंड को एक आदर्श राज्य बनाने का अवसर. दस वर्षों का पाप धो लेने का मौका. एक दशक पहले झारखंड बना. बिहार से अलग […]

-दर्शक-

अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो और हेमंत सोरेन के लिए सुनहरा मौका है. झारखंड की खोई गरिमा और साख लौटाने की. देश-दुनिया में बदनाम और अपमान की दृष्टि में देखे जानेवाले झारखंड को एक आदर्श राज्य बनाने का अवसर. दस वर्षों का पाप धो लेने का मौका. एक दशक पहले झारखंड बना. बिहार से अलग होकर. तब क्यों झारखंड बना था? बिहार पतन के रास्ते अग्रसर था. इसलिए झारखंडियों ने मांग की कि हम बिहार से बेहतर बनें.

अविकास और पतन के साझीदार न रहें. कुशासन से मुक्त हों. आज सम्मान, विकास एवं साख की दृष्टि से कहां खड़ा है बिहार और कहां पहुंच गया है झारखंड? आज बिहार की प्रतिष्ठा की गूंज देश-दुनिया में है. नीतीश कुमार ने अपनी कार्यशैली, शिष्टता, मर्यादा और नयी कार्य संस्कृति से बिहार का खोया सम्मान लौटाया है. लगभग 30-40 वर्षों का पाप पांच वर्षों में धोया. उनके ठीक पहले पंद्रह वर्षों तक किस मॉडल से बिहार चला? दबंगई, गाली-गलौज, अफसरों के साथ मारपीट, अपहरण, राजनेताओं की हेकड़ी से. इस रास्ते क्या पाया बिहार ने? दुनिया में जगहंसाई का केंद्र बना.

देश का सबसे पिछड़ा राज्य बना. काम की तलाश में बिहारी (तब झारखंडी भी) देश भर में भटकने लगे. अपमानित होने लगे. पढ़ने और रोजगार के लिए ठौर-ठिकाना ढ़ूंढ़ने लगे. वर्ष 2000 में अलग होने के बाद झारखंड में सपना जगा. हम होंगे सर्वश्रेष्ठ. और गुजरे दस वर्षों में रसातल में पहुंच गये.

इस रसातल से उबरने का अवसर परिस्थितियों ने दिया है. अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो और हेमंत सोरेन को. वे या तो इतिहास बनायेंगे या फिर इतिहास बन जायेंगे. अयोध्या मुद्दे ने पूरे देश को साफ संदेश दे दिया है कि इस देश के गरीब, बेरोजगार नौजवान अब प्रतीक्षा नहीं करनेवाले. उन्हें धर्म, राजनीति, बाहरी- भीतरी से बांटने का पुराना हथियार अब नाकामयाब हो गया है. लोग बंटेंगे नहीं, अब वे नेताओं से हिसाब लेंगे. उनके काम का. आचरण का.

सामान्य परिस्थितियों में लोकतंत्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान नहीं है, नहीं तो झारखंडी जनता की पहली पसंद शायद राष्ट्रपति शासन रहता. स्थायी तौर पर. इस तरह झारखंड की सरकार और राजनेताओं पर दोहरा बोझ है. लोकतंत्र की छीजती विश्वनीयता लौटाना और प्रभावी (इफेक्टिव) सरकार चलाना.

सत्ता में आते ही मुंडा सरकार ने चार अच्छे संदेश दिये. बोल कर नहीं. काम करके. पहला, चालीस बदनाम एवं बटमार अभियंताओं को बरखास्त (11 सितंबर) कर . दूसरा, पंद्रह अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप में कार्रवाई (19 सितंबर) कर. फिर भ्रष्टाचार के आरोप में चार अभियंताओं के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति (20 सितंबर) देकर. अपराधियों के खिलाफ सीसीए लगाने का फैसला (23 सितंबर) कर.

पर राजनेता झारखंड को इस कदर अशासित-कुशासित कर चुके हैं कि ये फैसले झारखंडी अव्यवस्था के लाल तवे पर गिरने के पहले ही भाप बन गये. इस तरह इस सरकार को नये और साहसिक कदम उठाने होंगे. बिना पूर्व घोषणा व प्रवचन के. सरकार का काम बोले, तब बात बनेगी. झारखंड को इस सुरंग से निकालने के लिए जनता को भी जगना होगा. कैसे?

हिंदी कविता में ठहराव का दौर था. बदलाव के लिए बेचैन ताकतों ने कहा तोड़ छंद के बंद. मतलब पुरानी पारंपरिक धारा को तोड़ कर समय, काल और परिस्थितियों के संदर्भ में नयी रचना. इसी तरह आज देश की राजनीति को चाहिए, नये विचार, नये मुहावरे, नये आइडिया, लोकतांत्रिक विरोध के नये स्वर और अहिंसक हथियार. युवाओं में घटते सामाजिक सरोकारों को लेकर पहल की जरूरत है. खास तौर से झारखंडी राजनीति में नयी ऊर्जा चाहिए. अपनी चुनौतियों से निबटने के लिए. मसलन आज झारखंड के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हैं.

हड़ताल : चालीस दिनों से पारा शिक्षक हड़ताल पर हैं (84,000 के आस-पास). इससे दो लाख से अधिक छात्र प्रभावित हैं. इन शिक्षकों की हड़ताल के कारण बच्चों को भोजन नहीं मिल रहा. झारखंड में इन शिक्षकों को अन्य राज्यों से अधिक मानदेय मिलता है. मध्य प्रदेश में 2500 से 3000 रुपये के बीच. ओड़िशा में 2000-5200. उत्तर प्रदेश में 3500. छत्तीसगढ़ में 3800-5300. और झारखंड में 4000 से 5000 रुपये. पारा शिक्षकों की मांग, अगर सरकार मान ले, तो उस पर सालाना अतिरिक्त 1600 से 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे. फिलहाल इन पर हर साल 450 करोड़ रुपये का खर्च है. राज्य सरकार का जो बजट है, उसके अनुसार विकास के लिए महज 2350 करोड़ रुपये उपलब्ध है. अब ये पढ़े-लिखे शिक्षक बतायें कि क्या वे चाहते हैं कि झारखंड की तीन करोड़ की आबादी पर विकास के लिए कोई खर्च न हो. पारा शिक्षकों की कुल संख्या है, 84000. झारखंड की आबादी तीन करोड़ मान लें, तो पारा शिक्षकों की संख्या हुई कुल आबादी की 0.28 फीसदी.

झारखंड में सरकारी कर्मचारियों की संख्या है, तीन से चार लाख के बीच. उनके वेतन पर खर्च है, 5160 करोड़ रुपये सालाना. जो पेंशनभोगी हैं, उन पर खर्च है, 2040 करोड़ सालाना. इस तरह वेतन और पेंशन पर झारखंड सरकार का सालाना खर्च है, कुल 7200 करोड़ रुपये. उदार होकर भी मान लें कि कुल सरकारी कर्मचारियों और रिटायर लोग, पारा शिक्षकों समेत 5 से 6 लाख के बीच हैं. झारखंड की आबादी तीन करोड़. इस कुल आबादी से पांच लाख कर्मचारियों की संख्या घटा दें, तो पायेंगे कि 2.95 करोड़ आबादी के विकास कार्यों, स्वास्थ्य, कल्याण आदि पर 2200 करोड़ रुपये भी खर्च न हो और पांच लाख लोगों पर 7200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं. सालाना. अगर पारा शिक्षकों की मांग मान ली जाये, तो 2.94 या 2.95 करोड़ झारखंडी जनता के विकास, कल्याण, स्वास्थ्य वगैरह पर वार्षिक खर्च होगा, हजार करोड़ के आसपास. इस सवाल पर किसकी नजर है? यह बारूद जैसा सवाल है. जिस दिन 2.95 करोड़ लोग, पांच लाख लोगों के खिलाफ उठ खड़े होंगे, उस दिन स्थिति साफ हो जायेगी. क्या यह सामान्य बात भी पारा शिक्षक नहीं समझ पा रहे हैं? ऐसी हड़तालें, सीधे बेजुबान जनता पर अत्याचार है. सरकार को कठोर कदम उठाना चाहिए और जनता को ऐसे सख्त कदमों के पक्ष में सड़क पर उतरना चाहिए. 2002 में इन पारा शिक्षकों की नियुक्ति 1000 रुपये के मानदेय पर हुई थी. 2009 में यह बढ़ कर 5000 रुपये हो गयी है. उस पर इनका अहं देखिए. ये पारा शिक्षक परीक्षा देना नहीं चाहते. अपनी योग्यता की जांच या टेस्ट कराये बिना ये स्थायी व नियमित नौकरी चाहते हैं. सूचना यह भी है कि फरजी डिग्रीधारी भी पारा शिक्षक बने हैं. बस कंडक्टर भी बने हैं. लिख-लोढ़ा पढ़-पत्थर भी पारा शिक्षक हैं. साथ में पढ़े-लिखे और अच्छे भी हैं. नाकाबिल भी हैं. क्या इन अयोग्य लोगों के हाथों में कोई अभिभावक अपने बच्चे का भविष्य सौंपना चाहेगा?

आज चीन एवं अमेरिका की दुनिया में तूती बोल रही है. इसके मूल में है कि उन्होंने अपने यहां बुनियादी शिक्षा को ठीक किया है. वहां एक भी फरजी अध्यापक नहीं बन सकता. क्योंकि समाज निर्माण में सबसे बड़ी और निर्णायक भूमिका अध्यापकों ने अदा की है. वे बच्चों का संस्कार ही नहीं गढ़ते, भविष्य भी बनाते हैं. देश और समाज का भाग्य तय करते हैं. यह भाग्य तय करने का काम और समाज के भविष्य निर्माण का काम, क्या नाकाबिल और अयोग्य लोगों के हाथों में सौंपा जा सकता है? क्या किसी अयोग्य और नाकाबिल डॉक्टर से गंभीर व्यक्ति इलाज कराना चाहेगा?

खुद बिहार में पारा शिक्षकों की हड़ताल और अनुचित मांग के आगे सरकार नहीं झुकी. इनका टेस्ट जरूरी है. इनका प्रशिक्षण जरूरी है. सरकारें राजनीतिक दबाब में झुकती हैं. वोट बैंक के लिए सौदेबाजी करती हैं. अगर झारखंड में ऐसा ही रहा, तो यह देश का लेबर सप्लायर और पिछड़ा राज्य ही रहेगा. इसलिए झारखंड की जनता को जगना जरूरी है. सभी राजनीतिक दल इस सवाल पर गोलबंद हों. अपना स्टैंड साफ करें. क्योंकि आज कोई सरकार है, कल विपक्ष की सरकार होगी. इस तरह की अनुचित मांग सबको फेस करना होगा. यह राज्यहित का प्रसंग है. इस तरह झारखंड को चाहिए चुस्त गवर्नेंस. नो नॉनसेंस.

पारा शिक्षकों और झारखंड की जनता के लिए एक सलाह है. आपने पढ़ा कि सरकारी कर्मचारी और रिटायर्ड लोगों पर सालाना 7200 करोड़ रुपये खर्च है. इनकी संख्या कुल पांच लाख मान लीजिए. तो शेष 2.95 करोड़ झारखंड की आबादी के विकास, कल्याण, स्वास्थ्य वगैरह के मद में कुल 2200 करोड़ रुपये खर्च. यह विषमता सुलगती आग है. नयी राजनीति को चाहिए कि वह इसे मुद्दा बनाये. जो राजनीतिक दल, युवा अपने देश और समाज को बदलना चाहते हैं, उनके लिए जरूरी सवाल है. वे गांव-गांव, घर-घर तक इस सवाल को ले जायें. वे मांग करें कि नेताओं का तामझाम कम हो. वेतन कहीं न बढ़े. जनता के विकास पर खर्च बढ़े. इन व्यापक सवालों को लेकर आंदोलन किये जायें. इसमें पारा शिक्षक भी शामिल हों. समाज के अन्य तबके भी. अपने-अपने हित या वर्गीय स्वार्थ के लिए समाज के अलग-अलग गुटों की अलग-अलग मांग न हो. पूरी जनता पर विकास का खर्च बढ़ेगा, तो सबका भला होगा.

सफाई : पंद्रह दिनों से कमोबेश राज्य में सफाई कर्मचारी हड़ताल पर हैं. कुछेक जिलों को छोड़ कर. अब शहर कूड़े के ढेर बन रहे हैं. डेंगू फैल रहा है. यह सवाल उठना चाहिए कि क्या पुराने ढंग से शहरों की सफाई व्यवस्था चलेगी? ये सरकारी कर्मचारी क्या करते हैं? इन पर कुल कितना खर्च होता है? कितनी बार ये हड़ताल करते हैं? क्यों नहीं इन्हें व्यवस्थित किया जाये. देश के कई हिस्सों में सरकारी काम, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) पर चल रहा है. वहां सफाई हो रही है. वहां न हड़ताल का लफड़ा, न ब्लैकमेलिंग और न डेंगू का खतरा. श्रेष्ठ सफाई के मामले में सूरत का उदाहरण सामने है. 1994 में जो हैजा से ग्रस्त शहर था, वह देश का सबसे साफ-सुथरा शहर हो गया है. यह सब सरकारी कर्मचारियों के भरोसे नहीं हुआ. यह सब लोगों की दृढ़ इच्छाशक्ति से संभव हुआ. झारखंड को आज इसकी जरूरत है.

कचरे (सिवरेज) की सफाई आज बड़ा उद्योग है. देश के कई हिस्सों में इसके प्लांट लगा कर युवा अच्छी आमद कर रहे हैं. क्यों झारखंड में उसी पुरानी पद्धति पर चीजें चले? क्यों नहीं यहां भी प्रशासन के क्षेत्र में छंद के बंद तोड़े जायें और नये प्रयोग हों. यह कैसी व्यवस्था है कि इंटरनेट के इस युग में एक इंजीनियर खूंटी से करोड़ों रुपये लेकर चंपत हो जाता है. पंद्रह करोड़ रुपये लेकर भागने का एफआइआर हुआ है. अभी तक पता नहीं है कि किस विभाग से और कितनी रकम लेकर वह चंपत है? ऐसे एडवांस झारखंड में कितने लोग कितना लेकर गायब हैं, कोई नहीं जानता. क्या ऐसे अफसरों पर त्वरित और कठोर कार्रवाई के लिए नये कानून नहीं बन सकते?

बिजली : इसी तरह बिजली बोर्ड पुराने स्वरूप और जर्जर ढांचे में नहीं चल सकता. इसका 10 वर्षों में घाटा 1000 करोड़ तक पहुंच गया. हर साल सरकार इसे रिसोर्स गैप भरने के नाम पर 300 करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है. 2003 में बिजली बोर्ड का बंटवारा होना था. यह अब तक आठ बार टल चुका है. जिन राज्यों ने यह बंटवारा किया है, वे बेहतर तरीके से मैनेज कर रहे हैं. झारखंड के साथ ही छत्तीसगढ़ अलग हुआ. आज बिजली उत्पादन में वह सरप्लस स्टेट है. बिजली बेच कर कमा रहा है. जबकि झारखंड का बिजली बोर्ड गवां रहा है. यह स्थिति क्यों है? क्योंकि बिजली बोर्ड एक संस्था के तौर पर सड़ी लाश है. इससे बदबू ही फैल रही है. इस बदबू को थोड़े-मोड़े सुधार या स्प्रे से आप दबा-ढंक नहीं सकते. बिजली बोर्ड मौजूदा स्वरूप में सुरंग की तरह है. बेशुमार घाटे का. यूनियनों की ब्लैकमेलिंग का. स्थापित क्षमता से बहुत कम प्रोडक्शन का. पतरातू जैसे सफेद हाथी का. इन भ्रष्ट संस्थाओं को जनता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर देकर कब तक ढोयेगी? जो गरीब नून, लकड़ी, माचिस खरीदते हैं, वे क्यों ढोयें ऐसी संस्थाओं को? उन्हें भी इन चीजों पर कर देना पड़ता है. इस तरह झारखंड में पार्टियों को इन नये सवालों के ईद-गिर्द नयी राजनीति गढ़नी चाहिए. नहीं तो झारखंड का विकास नहीं होनेवाला.

धमकी : झारखंड के राजनेता अफसरों से जो व्यवहार कर रहे हैं (अगर यह सही है) तो झारखंड में कोई अफसर नहीं टिकेगा. अच्छे अधिकारी लगातार झारखंड से बाहर निकलते रहे हैं. जो बचे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी हैं, वे भी भाग जायेंगे. फिर राज्य का क्या होगा? इस तरह के आचरण के दो तरह के खतरे हैं. पहला प्रशासनिक और दूसरा कानूनी.

प्रशासनिक अधिकारी अगर हर जगह से लिख कर देने लगें कि हम काम नहीं करेंगे, तो क्या हालात होंगे? किसके सौजन्य से सरकारी कामकाज होगा? अगर अच्छे अफसर बिदक गये, तो क्या निष्क्रिय पड़े रहनेवाले अफसरों से राज्य का विकास होगा? देश में जो विकसित राज्य हैं, क्या वे अफसरों को प्रताड़ित करके आगे बढ़े हैं या अच्छे अफसरों की सक्रिय साझेदारी से आगे गये हैं?

कानूनी पहलू : क्या सरकार में ऊपर बैठे किसी मंत्री को भारतीय प्रशासनिक सेवा के किसी अधिकारी या सरकारी कर्मचारी से कुछ भी अनाप- शनाप कहने का हक है? अगर अफसर अड़ जाये एवं मुद्दा बना दे, तो राजनेता को इसकी कीमत समझ में आ जायेगी. सही है, झारखंड ऑफिसर एसोसिएशन निष्पंद है. उत्तर प्रदेश आइएएस ऑफिसर एसोसिएशन ने ऐसे सवालों पर पहल की थी. अपने बीच के भ्रष्ट और धब्बों को भी पहचाना था. शिष्टता और मर्यादा बुनियादी चीजें हैं. सत्ता निरंकुश नहीं होती. और न यह हमें अमर्यादित अधिकार देती है. आप कानून से ऊपर नहीं. प्रधानमंत्री भी नहीं.

यह भी सही है कि आज आत्म स्वाभिमान वाले सरकारी अफसरों की कमी है. जीवन में आत्मसम्मान से बड़ा कुछ भी नहीं होता. अगर आदमी सही है, तो उस पर वह समझौता नहीं करता. आमतौर से. झारखंड के अफसरों को भी यह समझना चाहिए कि कानून है. सरकार में बैठे लोग कानून के सबसे बड़े रखवाले हैं. अगर कानूनन कोई चीज होनी है, तो उसे रोक सकने की क्षमता-हैसियत किसी में नहीं है. अगर अफसर काम नहीं कर रहे हैं, तो सरकार में बैठे राजनीतिक लोग सक्षम हैं कि लिख कर आदेश दें और उसे लागू करवायें. संविधान के तहत राज्य सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है, अफसर. वह स्टेट पावर का हिस्सा है. संविधान या कानून की रक्षा की जिम्मेवारी उस पर है. अगर वह गलत है, तो उसकी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी. यह सरकार में बैठे लोगों को मालूम होना चाहिए. आज जेपीएससी मेंबरों से गलत करानेवाले राजनेता कीमत चुका रहे हैं या कमीशन में पदाधिकारी रहे लोग भागे-भागे फिर रहे हैं.

कुछ ही दिन पहले की घटना है. बड़कागांव के विधायक योगेंद्र साव ने एनटीपीसी के जीएम से मारपीट की. कारण, कोई स्थानीय समारोह एनटीपीसी ने आयोजित किया था. जिसमें विधायक महोदय आमंत्रित नहीं किये गये थे. इससे खफा होकर उन्होंने मारपीट की. क्या विधायक महोदय को मालूम है कि उन्हें हर सरकारी संस्था के समारोह में जाना और काम में हस्तक्षेप करना, उनका संवैधानिक अधिकार नहीं है? ऋण वितरण समारोह में अगर डीसी किसी राजनीतिज्ञ को नहीं बुलाता है, तो क्या इसके लिए भी उसे सजा दी जायेगी? क्या यह कानूनी प्रावधान है? क्या ऐसा संवैधानिक अधिकार है या कानूनी प्रावधान है? शायद नहीं. बहुत आसान रास्ता है. सभी विधायक या सांसद मिल कर यह कानून बना दें कि किसी लोक उपक्रम या स्थानीय प्रशासन द्वारा आयोजित समारोह में विधायक-सांसद को बुलाना कानूनी रूप से आवश्यक है, तो यह व्यवस्था स्वत: हो जायेगी.

और नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि वे नया सिस्टम नहीं बना सकते, तो पुराना ध्वस्त न करें. सिस्टम में वे ही सुधार कर सकते हैं. लेकिन जो बचा-खुचा सिस्टम है, उसे धवस्त और तबाह न करें. सरदार पटेल ने नौकरशाही को स्टील फ्रेम कहा था. आजादी के बाद भारत को एकसूत्र में बांधे रखने में नौकरशाही की बड़ी भूमिका रही है. राजनीति की ही तरह नौकरशाही में भी भारी पतन हुआ है. उसे ठीक करने की जरूरत है. उसे ठीक करने का दायित्व राजनीतिज्ञों और राजनेताओं पर ही है. डॉ लोहिया अक्सर कहा करते थे कि नौकरशाह दो नंबर के राजा हैं और स्थायी हैं. इन्हें भी जबावदेह बनाने की जरूरत है. अगर ये खराब प्रदर्शन करते हैं, तो इन्हें सरकारी सेवा से बाहर करने का प्रावधान हो. भ्रष्टाचार करने के बाद पुन: सेवा में न लेने का प्रावधान हो. क्यों नहीं सरकार या विपक्ष और राजनीतिक दल, इन बुनियादी सवालों पर चर्चा करते हैं?

क्या हाल है झारखंड का? एक उदाहरण काफी है. पलामू में सुखाड़ से निपटने की सरकारी योजना बनी. उस योजना के तहत अच्छे बीज खरीद कर किसानों को देना था. 75 फीसदी सब्सिडी पर. यानी 100 रुपये का माल 75 रुपये में. सबसे पहले तो खरीद में घपला हुआ. जो बीज 1.37 करोड़ में खरीदा जाता, वह खरीदा गया 7.52 करोड़ में. बाजार में बीज का आलू छह रुपये किलो था, तो खरीदा गया 25 से 28 रुपये किलो. अब सूचना है कि 65 प्रतिशत आलू सड़ गये. ईश्वर जाने यह खरीदा भी गया था या नहीं? जैसे पहले बिहार के गांवों में सड़क बनती थी या नहर खोदी जाती थी और बाढ़ में यह गायब हो जाती थी. जानकारों का कहना है कि सड़क या बांध बनाने जैसे काम होते ही नहीं थे. पर पैसे निकाल लिये जाते थे. उसी तरह इन सड़े हुए आलुओं का माजरा ईश्वर ही जाने. पर जब सब तरह से झारखंड में दीमक लगा हो और हर जगह लूट मची हो, तो इस सरकार के लिए मौका है कुछ कर दिखाने का. एक नया झारखंड बनाने का. बदहाल और बिखरते झारखंड को और तबाह नहीं करने का. तुरंत इस सरकार को फैसला करना चाहिए. पंचायत चुनाव हों. समय से हो. तब ग्राम सभा के माध्यम से विकास पर खर्च होंगे. यह ऐतिहासिक अवसर है, जब सरकार पहल कर झारखंड की सूरत बदल सकती है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें