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फख्र करें, डॉ चक्रवर्ती जैसे इंसान हमारे समाज में हैं

-हरिवंश- मैनेजमेंट सेंटर फार ‘ह्यूमन वैल्यूज (एमसीएचवी) की नींव कैसे पड़ी? प्रो एसके चक्रवर्ती मूलत: फाइनेंस-एकाउंट्स के प्रोफेसर रहे हैं. आइआइएम कलकत्ता के प्राध्यापक, जहां प्राफिट (मुनाफा), स्ट्रेटजी (रणनीति), मार्केटिंग (बाजार) एलायंस (समझौता) जैसे अनेक नये विषयों पर दुनिया-देश के श्रेष्ठ दिमाग पठन-पाठन में लगे हैं. वहां के ‘फाइनेंस-एकाउंटेंसी’ के एक सर्वोत्तम प्रोफेसर की रुचि […]

-हरिवंश-

मैनेजमेंट सेंटर फार ‘ह्यूमन वैल्यूज (एमसीएचवी) की नींव कैसे पड़ी? प्रो एसके चक्रवर्ती मूलत: फाइनेंस-एकाउंट्स के प्रोफेसर रहे हैं. आइआइएम कलकत्ता के प्राध्यापक, जहां प्राफिट (मुनाफा), स्ट्रेटजी (रणनीति), मार्केटिंग (बाजार) एलायंस (समझौता) जैसे अनेक नये विषयों पर दुनिया-देश के श्रेष्ठ दिमाग पठन-पाठन में लगे हैं. वहां के ‘फाइनेंस-एकाउंटेंसी’ के एक सर्वोत्तम प्रोफेसर की रुचि मानवीय मूल्यों जैसे विषय में कैसे हो गयी?

आइआइएम कलकत्ता प्रवास में एक दिन डॉ चक्रवर्ती से पूछा? उनका नपा-तुला जवाब था. कभी कल्पना नहीं की थी कि यह सेंटर (एमसीएचवी) बने. 1978-79 में अनुभूति हुई कि हम अपने देश की उपलब्धियों के बारे में कुछ नहीं बताते. पश्चि›म की चीजें ही पढ़ाते-बताते हैं. यह तृष्णा मेरे मन में बैठी. इसका प्रतिफल था, अध्ययन-मनन, लिखाई-पढ़ाई में मन का रमना. मैं फाइनेंस-एकाउंट्स, बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) का अध्यापक हूं. कल्पना के किसी छोर पर इस सेंटर की झलक नहीं थी.

मूल्यों-भारत की आध्यात्मिक विरासत में आपकी रुचि कैसे-कब पैदा हुई? डॉ चक्रवर्ती ने इस प्रसंग में अपना निजी अनुभव सुनाया. वर्ष 70 के आरंभ में मेरा छोटा भाई अचानक इंग्लैंड से लौटा. वह मानसिक रूप से रुग्ण था. मैं बड़ा भाई ठहरा. मेरे मन में सवाल उठने लगे कि मैं उसके लिए क्या कर रहा हूं? मेरे मानसिक संताप के दिन थे, वे. 72-73 में उसे लेकर मैं रांची जा रहा था. स्टेशन पर स्वामी योगानंद की अॅाटो बायोग्राफी अॅाफ ए योग(योगी की आत्मकथा) पुस्तक देखी. खरीदा. पुस्तक पढ़ी. उसमें एक प्रसंग है कि कैसे प्रार्थना से स्वामी योगानंद अपनी छोटी बहन के पति को मौत के मुंह से लौटा लाये. मेरे अंदर प्रेरणा जगी, सवाल भी उठा. मैं अपने भाई के लिए क्या कर सकता हूं? किसी को बोले बगैर मैंने प्रार्थना शुरू की, अपने इग्नोरेंट-वे (अनजाने रास्ते) से. ईश्वर की कृपा से 2-3 वर्षों बाद भाई ठीक हुआ. जीवन में स्थिरता मिली. शांति मिली. इन सबमें दवा की थेरपी या मेरी अनप्रोफेशनल प्रार्थना का क्या असर रहा, या सबके फल से ऐसा हुआ, कहना मुश्किल है. पर मेरा यह फेज कटा. मेरी पढ़ाई (आध्यात्मिक साहित्य) चलती रही. बचपन में मां, रामकृष्ण कथावृत सुनाती थीं. संस्कार थे, बीज रूप में. भाई की बीमारी से प्रेरणा मिली. 1977-78 में छोटे पैमाने पर रिसर्च प्रोजेक्ट आरंभ किया. मात्र 30 हजार रुपये से. साथ में दो रिसर्च असिस्टेंट थे. शास्त्रों का अध्ययन कराया. पांच साल चुपचाप रहा. श्रद्धा से पढ़ाई की, पढ़ते हुए सोचता, आज हम भारतीय, अपने ॠषियों के अवदान का क्या मूल्य दे रहे हैं? ॠषि-ॠण का मुझे एहसास तीव्र हुआ. 1978 से 1983 तक पढ़ाई और आत्ममंथन का दौर रहा. संस्कृत जानता नहीं था. सीखता, तो पूरा जीवन लगता. अनुवाद से पढ़ा-सीखा. (हालांकि प्रो चक्रवर्ती संस्कृत के श्लोकों को अक्सर कोट (उधृत) करते हैं, बहुत सुंदर उच्चारण के साथ).

पहली बार 1983 में प्रबुद्ध भारत में तीन किश्तों में लेख लिखा. ‘इंडियन मिस्टिसिज्म एंड बिजनेस’ (भारतीय रहस्यवाद एवं व्यवसाय). प्रबुद्ध भारत में दिल्ली रामकृष्ण मिशन के हेड स्वामी थे. स्वामी बुद्धानंद. भिलवारा कंपनी के मालिक झुनझुनवाला जी कलकत्ते से पढ़े थे. स्वामी बुद्धानंद जी ने उन्हें तीनों लेख दिये. उन्होंने पढ़ कर कहा, मेरे यहां आइए.

पर मैं ॠषि ॠण चुकाने में लगा रहा. वर्ष 83 मेरे लिए लैंडमार्क है. वैकल्पिक विषय के रूप में आइआइएम में इस विषय पर छात्रों के लिए कोर्स तैयार किया. व्याख्यान दिये. प्रजेंटेशन दिये.

पर अनुभव यह रहा कि भारत में भावनाओं की कद्र नहीं होती. पांच साल तक एक विषय की गहराई में जाने में लगा रहा. पर अपने स्तर पर. बौद्धिक स्तर पर कहीं से कोई मदद नहीं. बल्कि प्रैक्टिसिंग मेनेजर्स (कंपनियों में कार्यरत एक्जक्यूटिव्स) मदद कर रहे थे.

1991 अंत में स्वैच्छिक अवकाश के लिए मैंने आवेदन दे दिया. मन में सोचा, रिस्क लेना चाहिए. उन्हीं दिनों आइआइएम कलकत्ता के डायरेक्टर बदल गये. नये डायरेक्टर आये, डॉ सुबीर चौधरी. आते ही उन्होंने मुझे संपर्क किया. कहा, आपकी वीआरएस की चि™ट्ठी मुझे मिली है. मैं आपके कमरे में आना चाहता हूं. आये. दो घंटे रहे. कहा, मेरे आते ही आप जाना चाहते हैं. मुझे समय दीजिए. इसी बीच उन्होंने आइआइएम बोर्ड से सेंटर की मंजूरी करा ली. कहा, अब आप मत छोड़िए. इस मंजूरी के अलावा अब मेरा महज मॉरल सपोर्ट (नैतिक समर्थन) है. इसके लिए कोई सरकारी मदद नहीं मिलेगी. आप अपना सेंटर बनाएं. यह ‘92 अप्रैल की बात है. कहां वीआरएस ले रहा था. कहां सेंटर बनाने की चुनौती सामने आ गयी. यह संयोग था.

डॉ चक्रवर्ती कहते हैं, मेरे नये डायरेक्टर डॉ सुबीर चौधरी ने मुझे समंदर में फेंक दिया. मुझे तैरना नहीं आता था. भला, अध्यापक का फंड कलेक्शन (पैसे का जुगाड़) से क्या वास्ता? बहुत अनुभव हुआ, पिछले आठ सालों में. कैंसर या अनाथों के लिए पैसे मांगना आसान है, पर वैल्यूज (मूल्यों) के नाम पर चंदा? पर दैवी कृपा, डॉ सुबीर चौधरी की कृपा से यह सब पूरा हुआ. ‘92 से काम शुरू हुआ. सवा चार करोड़ रुपये एकत्र हुए. यह सेंटर खुल गया. यह सब नहीं कहना चाहता, इगो (अहं) आता है.

यह सब कहते हुए कहीं भी डॉ चक्रवर्ती ने अपनी भूमिका का उल्लेख नहीं किया. बड़े संकोच से कहा, फिर आत्मनियंत्रण के साथ अपने योगदान के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला. यह शिष्टता अद्भुत है. सारा काम खुद करना. श्रेय में कहीं अंश नहीं लेना. दिखावे के लिए नहीं, यथार्थ में. पर यथार्थ यही है कि एक व्यक्ति के संकल्प के साथ अनूठा संस्थान खड़ा हो गया. संकल्प साकार हुआ. 2003 में उस सेंटर (आइआइएम) से डॉ चक्रवर्ती रिटायर हो गये. सेंटर में एक-एक तथ्य दर्ज हैं कि किसने कितनी मदद की. सेंटर में लगातार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोगों के व्याख्यान होते रहते हैं. राष्ट्रपति बनने के पहले डॉ एपीजे कलाम ने भी वहां व्याख्यान दिया. डॉ चक्रवर्ती के इस सृजनात्मक पहलू पर बहुत कुछ कहा-बताया जाना शेष है. पर इससे भी अधिक उनकी मौलिक अवधारणाओं के बारे में बताना जरूरी है, जो समस्याओं से घिरे समाज-व्यक्ति को रोशनी देते हैं. शायद आइआइएम जैसी विशिष्ट संस्थाओं में वह अकेले भारतीय हैं, जो साहस के साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति-पुरखों के गुणों की चर्चा करते हैं. उनकी प्रासंगिकता बताते हैं.

वेदांत रिसर्च सेंटर के आयोजन में रांची आये डॉ चक्रवर्ती

रांची वेदांत रिसर्च सेंटर ने रविवार, चार अप्रैल को शाम चार बजे अपना सातवां वार्षिक सम्मेलन बुलाया है. इस अवसर पर आयोजित विचार गोष्ठी में वेदांतिक इथिक्स फार मैनेजमेंट एंड एडमिनिस्ट्रेशन (प्रबंधन और प्रशासन के लिए वैदांतिक मूल्य) पर चर्चा होगी. राज्यपाल महामहिम वेद मारवाह उद्घाटन भाषण देंगे. प्रोफेसर एसके चक्रवर्ती इस गोष्ठी की अध्यक्षता करेंगे. बीज व्याख्यान डॉ रूपा महंती देंगी. कार्यक्रम श्रीकृष्ण लोक प्रशासन संस्थान (राजभवन के उत्तर) में होगा.

26 वर्षों बाद विद्यार्थी जीवन

सुखद अनुभूति है. बिना फोन-अखबार के रहने का सुझाव है. पालन कर रहा हूं. 26 वर्षों पूर्व छूटा विद्यार्थी जीवन वापस मिला है. एक सप्ताह के लिए. पर, क्या वह उम्र, सपने, इच्छाशक्ति भी वापस आयेंगे? पीछे लौटना (अतीत में झांकना) मनुष्य का प्रिय शगल है. पर आइआइएम (इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट) कलकत्ता के मैनेजमेंट सेंटर फार ह्यूमन वैल्यूज (एमसीएचवी के 16वें इंटरनेशनल मैनेजमेंट डेवलपमेंट वर्कशाप, जनवरी 5 से 11, 2003) के अनुभव-पाठ नये सिरे से निजी जीवन, मूल्य परखने को बाध्य करते हैं. वर्तमान में जीने की कला व जरूरत सिखाते हैं. अपने साथ जीना. प्रो संजय मुखर्जी वर्कशॉप का उद्देश्य बताते हैं एक्टिग वाइ माइसेल्फ, आन माइसेल्फ, टू इंप्रूव माइसेल्फ’ या वाइ माइ माइंड, आन माइ माइंड, टू इंप्रूव माइ माइंड आधुनिक प्रबंधन की संस्कृति में एक नया साहसिक प्रयोग-पहल और जरूरी कदम.

इस वर्कशाप की रूपरेखा (डिजाइन) तैयार की है, प्रो एसके चक्रवर्ती ने. इसके कोआर्डिनेटर हैं, प्रो संजय मुखर्जी, प्रो एसके मुखर्जी स्टेट्समैन में उनके लेख पढ़ता था. यह कहना सही होगा कि उनके लेखों के लिए स्टेट्समैन लेता था. पिछले कुछेक वर्षों से उनके लेख स्टेट्समैन में नहीं आ रहे हैं और मेरा पढ़ना भी बंद है. वे पुरानी कतरनें मेरे पास हैं. उन लेखों को पढ़ कर उनकी पुस्तकों को कैसे ढूंढ़ा, यह याद है. एक नयी ताकत, नयी दृष्टि और सबसे ऊपर उनके विचारों में भारतीय मि˜ट्टी-चिंतन की गंध. बिना मिले, बिना जाने वे मेरे लिए पूज्य बन गये. दिमाग में उनकी तसवीर भी बन गयी. भारतीय मनीषियों की परंपरा की एक कड़ी. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए जिन महान शिक्षकों (जो अब लुप्तप्राय हैं) के बारे में सुना था, वही विद्वता, स्वनुशासन और चरित्र होगा, ऐसा उनके लेखों से धारणा बनी. और पहली बार देखा, तो बिल्कुल वैसा ही.

वर्कशाप के पहले दिन प्रो संजय मुखर्जी बताते हैं कि हमारी चेतना क्या है? ज्ञानेंद्रियां-कमेद्रियां क्या हैं? वह जिद्दू कृष्णमूर्ति को उद्धृत करते हैं. समस्याएं, संसार में नहीं, हमारी चेतना में हैं. मनुष्य कहां से ऊर्जा पाता है, कैसे ऊर्जा आती-जाती है. ऊर्जा के उदय-क्षय का भारतीय राज बताते हैं. वह रवींद्र नाथ टैगोर की दिनचर्या याद दिलाते हैं. टैगोर रोज सूर्योदय, सूर्यास्त निहारते थे. पुरानी भारतीय जीवन पद्धति में, आधुनिक होली डे की अवधारणा नहीं थी. क्योंकि मनुष्य, प्रकृति में जीता था. प्रकृति के साथ जीता था. आज जीवन में तनाव से लेकर, आधुनिक जीवन शैली से उपजे संकट, प्रकृति के दोहन के परिणाम हैं. प्रकृति से मनुष्य के छिटक जाने का अभिशाप. सचमुच इस प्रदूषण, पानी संकट, जलवायु परिवर्तन, वायुमंडल संकट के स्रोत क्या हैं? भारतीय मानस तीन तरह की पुस्तकें मानता है. पहला, ज्ञान की पुस्तकें, दूसरा प्रकृति पुस्तक. तीसरा जीवन पुस्तक. प्रकृति के सान्निध्य में जाने कितनी ॠचाएं लिखी गयीं? वेद, उपनिषद रचे गये. उस समाज का मानस और परिवेश कैसा अद्भुत रहा होगा, जहां उपनिषदों के रचनाकारों ने अपने नाम तक नहीं लिखे. आज काम, रचना से अधिक प्रचार की भूख है. यह सवाल अलग है कि 21वीं सदी की प्रगति, आधुनिकता और विकास के बावजूद इस उच्च कोटि की रचनाएं नहीं हो रहीं. मनुष्य का स्व, अहं, इतना बड़ा और अहंकारी कैसे हो गया?

(8.1.03 की रात आइआइएम हास्टल कलकत्ता परिसर में लिखा गया अनुभव)

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