दही, चूड़ा, गुड़ व मूली का लगता है भोग
Advertisement
नयी फसल से इष्टदेव की हुई अाराधना, मनाया गया नवान्न त्योहार
दही, चूड़ा, गुड़ व मूली का लगता है भोग सुपौल : नयी फसल तैयार होने पर नवान्न मनाने की परंपरा काफी पुरानी रही है. अगहन माह के शुक्ल पक्ष को मनाये जाने वाले नवान्न का त्योहार कोसी इलाके में गुरुवार को धूमधाम से संपन्न हुआ. पौराणिक काल से चली आ रही परंपरा के मुताबिक नवान्न […]
सुपौल : नयी फसल तैयार होने पर नवान्न मनाने की परंपरा काफी पुरानी रही है. अगहन माह के शुक्ल पक्ष को मनाये जाने वाले नवान्न का त्योहार कोसी इलाके में गुरुवार को धूमधाम से संपन्न हुआ. पौराणिक काल से चली आ रही परंपरा के मुताबिक नवान्न के दिन श्रद्धालु अपने इष्टदेव को फसल के नए अन्न का भोग तैयार कर उन्हें अर्पण करते हैं. इष्टदेव व अग्निदेव को भोग अर्पण करने के बाद नए अन्न का भोजन ग्रहण कर नवान्न का त्योहार मनाया. इस त्योहार में इष्टदेव को दही, चूड़ा, गुड़ व मूली का भोग लगाये जाने की परंपरा रही है. जिस कारण बाजार में उक्त सामग्री की खरीदारी लोगों द्वारा भारी मात्रा में किया गया.
वहीं त्योहार को लेकर विक्रेताओं द्वारा काफी मात्रा में दूध का स्टॉक कर लिया गया था. वहीं गुड़ व मूली का बढ़ते डिमांड को देख बुधवार की देर संध्या तक फुटकर व्यवसायियों की चांदी कटती रही. माना जाता है गुड़ और मूली का खाने का है विशेष परंपरा. किसानों ने इस त्योहार को बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं. और दही चुड़ा का सेवन करते हैं.
किसानों के घर बनी रहती है सुख समृद्धि
कोसी इलाके का आर्थिक आधार खेती व कृषि जनित कार्य को माना जाता रहा है. जहां नयी फसल होने पर किसानों द्वारा उसे ग्रहण करने के पहले नवान्न पर्व का आयोजन करते रहे है. साथ ही इस त्योहार के पीछे ऐसी मान्यताएं रही है कि नवान्न त्योहार मनाये जाने से किसानों के घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है. कई किसानों ने बताया कि मिथिलांचल में मनाये जाने वाले पर्व त्योहार में अनाज का विशेष महत्व रहा है. बताया कि नवान्न पर्व ऐसे त्योहारों में से एक है. बताया कि वर्तमान समय में हरेक त्योहारों के स्वरूप में बदलाव देखा जा रहा है. कहा कि कुछ वर्ष पूर्व तक नवान्न पूजा के उपरांत खलिहान में बांस का किला यानी मेंह लगाया जाता था. जिसके उपरांत उक्त मेंह के सहारे किसान धान की फसल को तैयार करते थे. लेकिन वर्तमान समय में कृषि कार्य पर भी आधुनिकता का अमिट छाप देखा जा रहा है. धान की तैयारी कृषि संयंत्र से कराये जाने के कारण खलिहान में लगाये जाने वाले मेंह की परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है.
पूवोत्तर व पहाड़ी प्रदेश में भी होता है आयोजन
पूर्वी भारत के पहाड़ियां पुस्तक के अनुसार नवान्न पर्व मनाने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है. पूजा के एक दिन पूर्व पूजा स्थल पर लकड़ी की एक मचिया रख दी जाती है. उस स्थल को ठीक से साफ कर देहरी (पुजारी) की पत्नी जिसे कोतवारी कहा जाता है. वहां भात बनाती है. साथ ही पूजा के दिन माल पहाड़िया समुदाय का देहरी यानि कोतवार के साथ ग्रामीण माड़ी (दारू) भरा बर्तन इत्यादि लाते हैं. इसके बाद अन्य विधि-विधान कर बलि देने के उपरांत बरबट्टी खाते हैं.
द्वितीया व पंचमी तिथि को मनाये जाने की परंपरा
गौरतलब हो कि पहाड़िया समाज में अगहन माह के द्वितीया एवं पंचमी तिथि को नवान्न मनाने की परंपरा है, लेकिन आधुनिक समाज से दूर रहने के कारण इस समाज में अलग-अलग तिथि निर्धारित कर नवान्न मनाने की परंपरा शुरुआत हुई, जिसका निर्वहन आज भी किया जा रहा है. यहां यह भी बता दें कि पहाड़िया समाज कोई भी फसल तैयार होने के बाद पूजा करने के उपरांत उस फसल को ग्रहण करते हैं. इस एक कारण माना जा रहा है कि पहाड़ों पर सर्वाधिक बरबट्टी (घंघरा) की ही खेती होती है. इसलिए इस फसल के होने के बाद इसे खाने के पूर्व मनाये जाने वाले त्योहार में काफी उल्लास रहता है.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement