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वर्षों का इंतजार, पर हाथ रहे खाली

18 वर्षों से बंगाली बाजार के ओवरब्रिज का इंतजार कर रहे लोगों को इस बार के रेल बजट में भी निराशा हाथ लगी. रेलबजट में इस लंबित परियोजना पर ध्यान न देकर दूसरे और तीसरे जगह ओवरब्रिज बनाने का स्थान दिखा दिया गया है. सहरसा : 18 वर्षों का इंतजार फिर भी रहे खाली हाथ. […]

18 वर्षों से बंगाली बाजार के ओवरब्रिज का इंतजार कर रहे लोगों को इस बार के रेल बजट में भी निराशा हाथ लगी. रेलबजट में इस लंबित परियोजना पर ध्यान न देकर दूसरे और तीसरे जगह ओवरब्रिज बनाने का स्थान दिखा दिया गया है.

सहरसा : 18 वर्षों का इंतजार फिर भी रहे खाली हाथ. बंगाली बाजार का ओवरब्रिज अब अबूझ पहेली बन गया है. इस बार भी रेलबजट में इस लंबित परियोजना पर ध्यान न देकर दूसरे और तीसरे जगह ओवरब्रिज बनाने का स्थान दिखा दिया गया है. स्थान ही नहीं दिखाया है, बल्कि पहले चरण में पांच-पांच लाख रुपये का आवंटन भी दिया है.
ऐसे जगह, जहां कभी जाम की समस्या उत्पन्न नहीं होती है और न ही वहां किसी को रेलवे क्रॉसिंग पार होने की ही जल्दबाजी होती है. रेलवे के इस निर्णय को लोग हास्यास्पद बताते कहते हैं कि दूसरी जगह ही बनानी थी तो गंगजला ढाला का चयन करते, जहां दिन भर में कम से कम पांच बार महाजाम की स्थिति बनती है.
जाम के दौरान मार-पीट तक की नौबत आती रहती है. हर बार पुलिस को पहुंच भीड़ को आगे का रास्ता दिखाना पड़ता है. सर्वा ढाला व पोलिटेक्निक क्रॉसिंग का प्रस्ताव समझ से परे है. नए जगह के प्रस्ताव पर सभी सरकार को बधाई दे रहे हैं, लेकिन वैसे नेता बंगाली बाजार में ओवरब्रिज के लिए राशि आवंटित नहीं किए जाने का अफसोस तक नहीं जता रहे हैं. लोग कहते हैं कि ऐसे छद्म राजनेताओं के कारण ही बंगाली बाजार में आरओबी का काम आगे नहीं बढ़ पाया है.
मिला न मिला, बजा दी ताली
बंगाली बाजार पर आरओबी बनाने की बात सभी करते हैं. इसके लिए हुए आंदोलनों में स्वयं को श्रेष्ठ बताने की भी होड़ लगी रहती है, लेकिन शहर की इस प्राथमिक जरूरत पर भी सब साथ नहीं होते. कहते हैं कि बीते 10-15 वर्षों में सहरसा की राजनीति में शून्यता आ गयी है. तभी तो ओवरब्रिज की कहानी इतिहास में दबती जा रही है. राजनीति के दबाव में यहां के राजनेता इतने निस्सहाय व निर्बल हो गए हैं कि सरकार से वे अपनी बात तक नहीं रख पा रहे हैं,
जो मिलता है या फिर मिले न मिले उसी में ताली बजा कर रह जाते हैं. उसे ही अपनी उपलब्धि बता पीठ थपथपाते रह जाते हैं. लोग कहते हैं कि नेताओं के इसी स्वभाव के कारण सहरसा में शिलान्यास होने के बाद भी भारती-मंडन विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं हो सका. लोकसभा क्षेत्र से नाम तक छीन गया और सब छद्म राजनीति करते रह गए.

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