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इंसानियत की पाठ पढ़ाता है रमजान

इल-उल-फितर. रहमतों व बरकतों की बारिश का महीना है रमजान ‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का पैगाम भी पहुंचाती है. पूर्णिया : खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना ‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और […]

इल-उल-फितर. रहमतों व बरकतों की बारिश का महीना है रमजान

‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का पैगाम भी पहुंचाती है.
पूर्णिया : खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना ‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का पैगाम भी पहुंचाती है. लिहाजा मौजूदा हालात में रमजान का संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है और इसकी प्रासंगिकता वक्त के साथ बढ़ती ही जा रही है. मौलाना मोहम्मद उमर फारूख के अनुसार रोजा अच्छी जिंदगी जीने का प्रशिक्षण है.
जिसमें इबादत कर खुदा की राह पर चलने वाले इंसान का जमीर रोजेदार को एक नेक इंसान के व्यक्तित्व के लिए जरूरी हर बात की तरबियत देता है. रमजान के पाक महीने का न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि सामाजिक एवं स्वास्थ्य की बेहतरी के लिहाज से भी कई आयाम हैं. रमजान के पाक महीने को धार्मिक आइने में देखना नाइंसाफी होगी. सच तो यह है कि वक्त के साथ ही बुराई से घिरी इस दुनिया में रमजान का संदेश और भी प्रासंगिक होता जा रहा है. हर तरफ झूठ, मक्कारी, अश्लीलता और असहिष्णुता का बोलबाला है. ऐसे में मानव जाति को संयम, भाईचारगी और आत्मनियंत्रण का संदेश देने वाले रोजे का महत्व और भी बढ़ गया है. मौलाना फारूख ने कहा कि रोजे के दौरान झूठ बोलने, चुगली करने, किसी पर बुरी निगाह डालने, किसी की निंदा करने और हर छोटी से छोटी बुराई से दूर रहना अनिवार्य है. उन्होंने कहा कि रोजे रखने का असल मकसद महज भूख-प्यास पर नियंत्रण रखना नहीं है बल्कि रोजे की रूह दरअसल आत्म संयम, नियंत्रण, अल्लाह के प्रति अकीदत और सही राह पर चलने के संकल्प और उस पर मुस्तैदी से अमल में बसती है.
रोजा नहीं रखने वाले मुनक्कर
रोजा सिर्फ मुसलमान या साहब-ए-इमाम, बालिग, मर्द और औरत पर फर्ज है. बीमार एवं लंबी यात्रा पर के इंसानों को इससे छूट मिलती है. रोजा नहीं रखने वाले अर्थात इस्लाम के एक अहम रूक्न को छोड़ने वाले हदीस के मुताबिक मुनक्कर होते हैं. जिसकी सजा मरने के बाद जहन्नम की आर है. रोजा रखने के बाद यदि जानबूझ कर खा-पी लिया जाय तो एक रोजा के बदले 60 रोजे रखने पड़ते हैं. साथ ही उसका एक रोजा अलग से यानि कजा और कफर्रा दोनों लाजिमी होगा.
मजहब-ए-इस्लाम का अहम रूक्न
पाक संग्रह ‘ हदीस ‘ के अनुसार जिसने रमजान के रोजे इमान और यकीन के साथ रखा, उसके अगले और पिछले तमाम गुनाह बख्श दिये गये. जाहिर है कि रमजान की अहमियत यह है कि जब इस महीने में रोजेदार रोजा रखते हैं तो रोजा रखने की वजह से उसके गुनाह धूल जाते हैं. इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाता है और भूखे-प्यासे रहकर खुदा की इबादत करने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं. इस माह में दोजख के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत की राह खुल जाती है. लब्बोलुआब यह कि रमजान मजहब-ए-इस्लाम के पांच अरकान में से एक अहम रूक्न है.
सदके फितर का है रिवाज
रोजा से एक और चीज का पता चलता है कि गरीब और मोहताज इंसान गुरवत की वजह से भूखे की सख्ती को कैसे बरदाश्त करते हैं. पूरी दुनिया की कहानी भूख, प्यास और इंसानी ख्वाहिशों के गिर्द घूमती है और रोजा इन तीनों चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है. रमजान का महीना तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है ताकि रोजेदारों में भले-बुरे को समझने की सलाहियत पैदा हो. रोजे के दौरान जब रोजेदार भूख और प्यास की हालत से गुजरते हैं तो रोजेदार का दिल जाग उठता है और गरीबों की पैसे तथा कपड़े से मदद की जाती है. जिसको इस्लाम में सदके फितर कहा जाता है.

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