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गुम हुआ टिक-टिक की आवाज, आर्थिक समृद्धि पर लगा ग्रहण

गुम हुआ टिक-टिक की आवाज, आर्थिक समृद्धि पर लगा ग्रहण -80 और 90 के दशक में घर-घर होता था चावल उत्पादन- महिलाओं ने संभाल रखी थी कुटीर उद्योग की बागडोर- कुट्टी प्रथा से संचालित था यह उद्योग – राइस मिल ने किया कुटीर उद्योग चौपट —————————पूर्णिया. जिले का कसबा शहरी क्षेत्र 80 और 90 के […]

गुम हुआ टिक-टिक की आवाज, आर्थिक समृद्धि पर लगा ग्रहण -80 और 90 के दशक में घर-घर होता था चावल उत्पादन- महिलाओं ने संभाल रखी थी कुटीर उद्योग की बागडोर- कुट्टी प्रथा से संचालित था यह उद्योग – राइस मिल ने किया कुटीर उद्योग चौपट —————————पूर्णिया. जिले का कसबा शहरी क्षेत्र 80 और 90 के दशक में चावल का मुख्य उत्पादक क्षेत्र के रूप में चर्चित था.यहां अमीर हो या गरीब सभी के घरों में चावल का उत्पादन किया जाता था.यहां के चावल से गुलाबबाग मंडी गुलजार हुआ करता था. लोगों की दिनचर्या धान उसनते वक्त दोअछिया चुल्हे में टोंकना मारने की मधुर ध्वनि टीक -टीक से शुरु होती थी.लोग समझ जाते थे कि सुबह हो चुकी है.किंतु बीतते वक्त के साथ इस कुटीर उद्योग को आधुनिक तकनीक ने लील लिया और कसबा की फिजां से टिक-टिक की मधुर संगीत भी गुम हो गयी.गुम हो गया कुटीर उद्योगकसबा के ग्रामीण इलाको की बात यदि छोड़ भी दें तो नगर पंचायत क्षेत्र में आज से महज पंद्रह से बीस वर्ष पूर्व तक 90प्रतिशत लोग अपने घरों में कुटीर उद्योग के रूप में चावल का उत्पादन करते थे. खास बात यह है कि यह कुटीर उद्योग महिलाओं के श्रम से संचालित होता था. इस कार्य के लिए महिलाएं चावल व्यवसायी से कुटाई (कुट्टी प्रथा) पर सामर्थ्य अनुसार धान लाती थी.जिसे अपने घरों में उसन -भांप कर धान सुखाकर मिल में ले जाकर चावल तैयार करायी जाती थी. कुट्टी प्रथा अनुसार तयशुदा चावल माप कर महिलाएं व्यवसायी के घर पहुंचा देती थी. इस कुटीर उद्योग ने एपीएल और बीपीएल की बीच की खाई को समाप्त कर दिया था. इस काम से रोजाना महिलाओं के पास प्रति क्विंटल पर पंद्रह से बीस किलो चावल की आमदनी होती थी. किंतु बीतते वक्त के साथ राइस मिल एवं प बंगाल से आयातित चावल ने यहां की महिलाओं को बेरोजगार बना दिया. मधुर ध्वनि से शुरु होती थी दिनचर्यासर्दी हो या गर्मी का मौसम, यहां की महिलाओं की दिनचर्या साढ़े तीन बजे सुबह शुरु हो जाती थी. उस समय सबसे पहले आंगन में बने दो अछिया चुल्हे को जलाया जाता था.जिस पर पूर्व सुुबह भंपाये गये धान को नाद से निकाल कर उसनने का काम किया जाता था.धान उसनने एवं भंपाने में धान के भूसे को ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता था.बांस के जलावन से चुल्हे के मूंह पर भूसे को रख कर टोंकना दिया जाता था.चुल्हा निर्बाध जलती रहती थी.आस-पास के सभी घरों से टोकने की टिक-टिक की आवाज बहुत ही कर्ण प्रिय होती थी.घरों में सोये लोगों को यह भान हो जाता था कि सुबह हो चुकी है.धान उसनने एवं भांपने की प्रक्रिया सुबह आठ बजे तक समाप्त हो जाती थी.इसके बाद शुरु होता था.धान सुखाने और मिल में कुटाने की प्रक्रिया.इसमें भी औसतन दो दिन लग जाते थे. नेपाल तक जाता था कसबा का चावलकसबा में तैयार चावल भाया गुलाबबाग मंडी होते हुए सीमांचल,कोसी एवं नेपाल तक भेजा जाता था. यहां के उत्पादित चावल की गुणवत्ता एवं चमक अन्य स्थानों में तैयार चावल की तुलना में काफी अच्छी मानी जाती थी.यही कारण था कि यहां के चावलों की मांग अधिक थी. इस प्रकार जब तक टिक-टिक संगीत गूंजता रहा, कसबा के इलाके में समृद्धि की भी बयार बहती रही. अब जब टिक-टिक बंद है तो महिलाओं की आर्थिक समृद्धि पर भी ग्रहण लग चुका है. फोटो:- 2 पूर्णिया 2परिचय:- धान की भंपाई करती महिला

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