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कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

बाढ़ के दौरान लोगों ने झेली है कठिन परिस्थितियां टूटे घर और टूटी उम्मीद के बीच नहीं है गृहस्थी की डगर आसान अब भी दोनों वक्त नहीं जल पा रहे हैं घर में चूल्हे कर्ज लेकर परदेस जाने लगे हैं बाढ़ पीड़ित पंकज भारतीय/ अरविंद पूर्णिया : कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, […]

बाढ़ के दौरान लोगों ने झेली है कठिन परिस्थितियां
टूटे घर और टूटी उम्मीद के बीच नहीं है गृहस्थी की डगर आसान
अब भी दोनों वक्त नहीं जल पा रहे हैं घर में चूल्हे
कर्ज लेकर परदेस जाने लगे हैं बाढ़ पीड़ित
पंकज भारतीय/ अरविंद
पूर्णिया : कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक ………..’ जनकवि बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियां बायसी अनुमंडल के बाढ़ प्रभावित इलाके के लोगों की दशा के संदर्भ में पूरी तरह प्रासंगिक प्रतीत होती है. इस बार के सैलाब ने इस कदर लोगों की कमर तोड़ी है कि इस त्रासदी को भुलाने में पीड़ितों को शायद दशकों लग जाये. वजह साफ है कि महानंदा और परमान के साये में रहने के बावजूद बाढ़ ने कभी इस कदर तांडव नहीं मचाया था. लोग वर्ष 1987 को पहले याद कर कोसा करते थे, लेकिन वर्ष 2017 ने जो जख्म दिये है, वह शायद आने वाली पीढ़ी भी याद रखेगी. लोग घर तो लौट चुके हैं, लेकिन उनका सब कुछ बरबाद हो चुका है.
इस इलाके में अधिकांश लोगों के घर फूस के बने हैं. ऐसे में शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जो पूर्णत: या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त न हुआ हो और उसकी बुनियाद नहीं हिली हो. स्याह सच यह है कि इलाके के अधिकांश घरों में दो वक्त चूल्हा नहीं जल पाता है.
घर वापसी के बाद कई दिनों तक चूल्हा रोया तो चक्की उदास रहने जैसी स्थिति बनी रही. धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो रही है तो एक वक्त चूल्हा बमुश्किल जल पा रहा है. बेबसी और लाचारी के इस दौर में लोगों ने उपाय भी ढूंढ़ लिया है. दोपहर बाद घरों में चूल्हे जल रहे हैं, ताकि रात के भोजन की जरूरत ही महसूस नहीं हो. इलाके के बुजुर्ग असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ हैं तो युवाओं के चेहरे उदास हैं. दरकी हुई फूस की घरों की दीवार और टूटे हुए छप्पर उनके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर रहे हैं.
घर में मां-बाप की खामोशी उन्हें बेचैन कर रही है. लिहाजा घर के लिए घर छोड़ कर परदेस जाने की विवशता आ पड़ी है. सैलाब के बीच मो नेहरूल के घर जुड़वां बेटी नन्हीं और चुन्नी पैदा हुई है. पैदा हुए बच्चे की परवरिश के लिए परदेस जाने की मजबूरी है. लेकिन बच्चे बीमार हैं तो नेहरूल के अब्बा मो इस्लाम ने उसे परदेस जाने से मना कर दिया है. मो इस्लाम खुद परदेस कमाने के लिए सोमवार को जा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अपनी बीबी के चांदी के जेवर को महाजन के पास गिरवी लगा दिया है. मो इस्लाम बताते हैं ‘ चार रुपये सैकड़ा पर कर्ज मिला है.
लौट कर आयेंगे तो बीबी की अमानत भी महाजन से वापस ले लेंगे ‘ . मो इस्लाम की तरह सैकड़ों ऐसे लोग हैं, जो आने वाले आठ-दस दिनों में कर्ज का सहारा लेकर सीमांचल एक्सप्रेस और हाटे बाजारे जैसे ट्रेनों की टिकट कटा चुके होंगे, क्योंकि उन्हें सैलाब के बाद टूटे हुए घरों का निर्माण करना है और घर में दो वक्त चूल्हे जल सके, इसकी मुकम्मल व्यवस्था करनी है.
केस स्टडी – 03
लोगों को इस बात का सुकून है कि बाढ़ ने उनकी जिंदगी बख्श दी है. मौत सामने से बहती हुई गुजर गयी, लिहाजा वे खुद को खुशकिस्मत समझते हैं. लेकिन बाढ़ के बाद की जिंदगी पहले से कुछ अधिक ही कठिन हो गयी है. सारी फसलें डूब चुकी है और किसान के साथ-साथ मजदूरों की उम्मीद भी समाप्त हो चुकी है. लिहाजा किसान और मजदूर दोनों के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ महत्वपूर्ण हो गया है. ऐसे में लोग पलायन की तैयारी में जुट गये हैं.
बायसी के पोखरिया, सठेरा, मजलीसपुर आदि से अब पलायन की तैयारी शुरू हो चुकी है. मो इस्लाम चार रुपये प्रति सैकड़ा कर्ज लेकर सोमवार को भोपाल के लिए रवाना होंगे. जबकि बनगामा के मो गुलाम, मो कैशर, मो साजिद आदि रविवार को भोपाल धान की कमौनी के लिए निकल चुके हैं. कुछ लोग दशहरा का इंतजार कर रहे हैं और उसके बाद वे भी दिल्ली और पंजाब का रूख करेंगे.
केस स्टडी – 01 : ‘ इखान घर से उखान घर गेलूं, तब तक घर गिरे गेल, बहुत तकलीफ में छी, खाने वाला समान जे छिले भसे गले, खावर कोई सहारा नय छय, नय इलाज करवा के सहारा छेय ‘ यह कहते-कहते बायसी के बनगामा के रेहाना खातून रो पड़ती है. वह 14 अगस्त की रात की घटना को याद कर सिहर उठती है.
एक तरफ पल-पल आगे बढ़ता बाढ़ का पानी तो दूसरी ओर उसकी पतोहू प्रसव पीड़ा की असहनीय वेदना से तड़प रही थी. खुद की जान बचाएं या प्रसव पीड़ा सह रही पतोहू को संभाले, रेहाना खातून को समझ में नहीं आ रहा था. इसी दौरान पतोहू जिस घर में रह रही थी, उसे उठा कर उस घर में ले आयी, जिसमें वह खुद रहती है. लेकिन अंतत: वह घर भी धराशायी हो गया. बड़ी मुश्किल से सबों की जान बची.
केस स्टडी – 02: सैलाब के बाद लोग अपनी जिंदगी को पटरी पर लाने की कवायद में जुटे हुए हैं.
लेकिन टूटे घर और टूटी उम्मीद के बीच गृहस्थी की डगर आसान नहीं रह गयी है. ऐसा ही है बायसी प्रखंड का मरूआ गांव का मो तैयब का परिवार, जिसका घर महानंदा के तट पर है. महज चंद कदम की दूरी पर यहां महानंदा और परमान का मिलन होता है. लिहाजा जब दोनों नदी मिल कर बेलगाम हुई तो मो तैयब के घर में छाती भर पानी जमा हो गया.

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