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प्रधानमंत्री देश को बताएं कि क्यों नहीं कम हो रहा भ्रष्टाचार

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को लाल किले के प्राचीर से देश को यह आश्वासन दिया था कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा. तब अनेक लोगों को यह लगा था कि सरकार के भीतर और बाहर के भ्रष्ट तत्वों की अब खैर नहीं. पर, गत 5 मार्च को […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को लाल किले के प्राचीर से देश को यह आश्वासन दिया था कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा. तब अनेक लोगों को यह लगा था कि सरकार के भीतर और बाहर के भ्रष्ट तत्वों की अब खैर नहीं. पर, गत 5 मार्च को वाराणसी में फिर एक बार मोदी जी को यह कहना पड़ा कि इस देश और प्रदेश के लुटेरों को छोड़ूंगा नहीं. इस बार प्रधानमंत्री का लहजा बहुत तल्ख था. इस बीच के पिछले पौने तीन साल में उन्होंने कई बार अपना यह संकल्प दोहराया है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अभियान को उन्होंने जंग कहा है. इसके बावजूद इसी मंगलवार को ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट आयी है. उसके नतीजे चिंता पैदा करते हैं. इस संगठन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रिश्वत के मामले में भारत शीर्ष पर है. दो तिहाई भारतीयों को सरकारी सेवाओं के बदले किसी न किसी रूप में रिश्वत देनी पड़ती है. ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल ने माना है कि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ शासन ने भले कड़े कदम उठाये हैं, फिर भी उस कदम के वांछित नतीजे नहीं मिल रहे हैं.
मोदी सरकार के कड़े कदमों के बावजूद यदि भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया जा रहा है, तो फिर प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह देश को बताएं कि उन्हें इस काम में दिक्कत कहां-कहां से आ रही है. यदि इस मामले में जनता उन्हें कोई मदद कर पायेगी तो जरूर करेगी. जिन लोगों ने मोदी जी को वोट देकर उन्हें सत्ता में पहुंचाया है वे यह नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां करते-करते वे अपना कार्यकाल पूरा कर लें. देश की आम जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकारी अभियान में अपने तरीके से सरकार की मदद कर सकती है. यही बात राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बारे में पक्के तौर नहीं कही जा सकती है. कुछ साल पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि वे घूसखोर अफसरों और कर्मचारियों को गिरफ्तार करवाएं. पर, शायद ही कोई कार्यकर्ता सामने आया. लगभग सभी दलों के अधिकतर राजनीतिक कार्यकर्ताओं का आज यही हाल है.
अधूरा प्रयास भी सराहनीय
नरेंद्र मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई कदम उठाये हैं. नोटबंदी भी उसमें एक है. हालांकि, वे कदम अधूरा साबित हो रहे हैं. वैसे वे भी सराहनीय हैं. इस दिशा में इतने काम भी पिछली किसी केंद्र सरकार ने किये हों, यह याद नहीं. प्रधानमंत्री सचिवालय स्तर पर सरकारी फैसलों के बेचे जाने की खबर अब नहीं मिलती है. केंद्रीय मंत्रिमंडल स्तर पर भी भ्रष्टाचारियों का पहले जैसा बोल बाला अब नहीं है. यानीइस सरकार से ऐसी उम्मीद की जा सकती है किवह भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक व कारगरजंग छेड़ दें. पर, लोगों को यह लगता है कि इस जंग में अधिकतर प्रशासनिक अधिकारी मोदी कासाथ नहीं दे रहे हैं. निर्णय के पदों पर बैठे भ्रष्टअफसरों से निबटने के आखिर क्या उपाय हैं? जब सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर भ्रष्टाचार के खिलाफ फैसले सुनाता ही रहा है तो फिर सरकार आखिर डरती किससे है? क्या उसे यह डर है कि भ्रष्ट अफसरों पर निर्णायक कार्रवाई करने पर वे सरकारी काम ठप कर देंगे? यदि ऐसा हुआ तो नये चुनाव का विकल्प सरकार के पास होगा. यदि जनता को लगेगा कि भ्रष्टाचार से जंग के कारण चुनाव की नौबत आयी है तो मतदाता और अधिक बहुमत से जिता देंगे. फिर तो भ्रष्टाचार की बीमारी के पोख्ता इलाज के लिए संविधान में संशोधन भी संभव हो सकेगा. क्योंकि, तब संविधान संशोधन के लिए पर्याप्त बहुमत एक दल को मिल जा सकता है.
भ्रष्टाचार से देश की सुरक्षा को खतरा
आतंकवादी शमसुल होदा ने हाल ही में एनआइए को बताया है कि भारत में रेल हादसों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी खुफिया संगठन आइएसआइ को भारत विरोधी शक्तियों द्वारा 600 करोड़ रुपये का फंड मुहैया कराया गया है. याद रहे कि अन्य तरह की गतिविधियों के लिए भी टेरर फंडिग हो रही है. अब तो यहां आइएसआइएस के समर्थकों के भी सक्रिय होने के सबूत मिल रहे हैं. इस देश की सरकार के बाहर और भीतर के तत्वों को भारतद्रोही तत्वों द्वारा खरीदने की खबरें भी आती रहती हैं. ऐसे भ्रष्ट तत्वों को यदि कठोर ढंग से नहीं रोका गया तो वे पैसे के लिए आतंकवादियों के कठपुतली बन सकते हैं. यानी भ्रष्टाचार से देश की सुरक्षा को भी खतरा है. यह समस्या इसलिए भी गहरा गयी है, क्योंकि आतंकवादियों से मुकाबले के मामले में इस देश में अब भी आम राजनीतिक सहमति नहीं बन पा रही है.
दुर्रानी की स्वीकृति से भी तो सीखें हमारे नेता! पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी ने इसी 6 मार्च को कहा कि 2008 में हुए मुम्बई हमले को पाक के आतंकी संगठनों ने अंजाम दिया और यह सीमा पार आतंकवाद का शानदार उदाहरण है. इस बयान पर यह कहा गया कि इससे पाकिस्तान की पोल खुल गयी जो उस हमले में पाक की संलिप्तता का सबूत मांगता रहा है. दरअसल, पाकिस्तान की ही पोल नहीं खुली, बल्कि उन भारतीय नेताओं की भी पोल खुल गयी जिन्होंने मुम्बई के उस हमले में कथित हिंदू आतंकियों का हाथ बता रहे थे. एक नेता ने तब कह दिया था कि घटना से ठीक पहले ही महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे ने मुझे फोन पर बताया था कि उनकी जान पर हिंदू आतंकियों से खतरा है. याद रहे कि मुम्बई आतंकी हमले में हेमंत करकरे सहित 164 लोग मारे गये थे. एक तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ने भी इसी तरह का बयान दिया था. इस देश का दुर्भाग्य है कि लखनऊ की ताजा घटना पर भी उसी तरह का सवाल उठाया जा रहा है. संभव है कि हेमंत करकरे की जान को किसी हिंदू अतिवादी संगठन से सचमुच खतरा रहा हो. पर क्या जिस संगठन से खतरा था, उसी ने 2008 में मुम्बई में आतंकी हमला किया था? हर आतंकी हमले के बाद इस देश के कुछ नेता असली हमलावरों को बचाने के लिए उलूल-जलूल बयान देने लगते हैं. ऐसा करते समय वे यह नहीं समझते कि इससे उस भाजपा को बिना कुछ किये राजनीतिक लाभ मिल जाता है जिसे वे सांप्रदायिक पार्टी मानते हैं. इस देश के एक तथाकथित धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवी का लेख याद आ रहा है जो उन्होंने 2001 में अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र पर हमले के तत्काल बाद लिखा था. उन्होंने लिखा कि घटना के दिन उस केंद्र में कार्यरत सभी यहूदी कर्मचारी एक साथ छुट्टी पर थे. जबकि हकीकत यह है कि उस घटना में जो 3 हजार लोग मारे गये थे उसमें 400 यहूदी भी थे. दूसरी ओर दुर्रानी की ही तरह ओसामा बिन लादेन ने भी बाद में यह स्वीकार किया था कि उसी के बंदों ने विश्व व्यापार केंद्र और पेंटागन की उन घटनाओं को अंजाम दिया था.
…और अंत में
इस देश के कुछ वोट लोलुप नेतागण अकसर किसी सैफुल्लाह में वोट तलाशते हैं. जबकि, तलाशना ही है तो उन्हें देशहित और अपने दल के हित के लिए भी किसी सरताज अहमद में तलाशना चाहिए. लखनऊ की मुठभेड़ में मारा गया आतंकी सैफुल्लाह के पिता सरताज ने कह दिया है कि देशद्रोही बेटे की लाश मैं नहीं लूंगा. वैसे भी इस देश के अधिकतर मुसलमान आइएसआइएस को नापसंद करते हैं. पर, हमारे देश के कुछ नेता ऐसे अवसरों पर ऐसे-ऐसे बयान के तीर चलाते हैं जिससे साफ लगता है कि वे आतंकियों के मददगार हैं.

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