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सत्ता संतुलन नीतीश के सामने नयी चुनौती
पंकज मुकाती लालू-नीतीश की जोड़ी सुपरिहट हो गयी. शायद उनकी खुद की उम्मीदों से भी ऊपर. नीतीश के संयमित बोल और लालू की तपाक जवाबी ने इसे पूर्ण कर दिया. इसी अंदाज़ के कारण विपक्ष को ताबड़तोड़ जवाब मिले. बीजेपी की तमाम रणनीतियों को बिहार की नब्ज समझने वाले और सबसे अनुभवी इस जोड़ी ने […]
पंकज मुकाती
लालू-नीतीश की जोड़ी सुपरिहट हो गयी. शायद उनकी खुद की उम्मीदों से भी ऊपर. नीतीश के संयमित बोल और लालू की तपाक जवाबी ने इसे पूर्ण कर दिया. इसी अंदाज़ के कारण विपक्ष को ताबड़तोड़ जवाब मिले.
बीजेपी की तमाम रणनीतियों को बिहार की नब्ज समझने वाले और सबसे अनुभवी इस जोड़ी ने चित कर दिया. दिल्ली के बाद बिहार के परिणामों ने पांच बातों को साबित किया. पहली, बिना जमीनी रिपोर्ट जाने-समङो चुनाव नहीं जीते जा सकते. दूसरी, कॉरपोरेट कल्चर की तर्ज पर राजनीतिक दल नहीं चल सकते. तीसरी, जनता को लुभावने वादों, बिना पैर के सपनों और तथ्यहीन दावों, झूठ से ठगा नहीं जा सकता. चौथी, स्थानीय नेतृत्व, कार्यकर्ताओं को दरिकनार कर कुछ हासिल नहीं होता.
पांचवीं, भडकाऊ भाषण, धार्मिक प्रतीक, अशालीन भाषा और पाकिस्तान के नाम के लिए कोई जगह नहीं है. ये बातें अच्छे संकेत हैं लोकतंत्र के लिए. पिछले कुछ सालों में खासकर लोकसभा चुनाव के बाद ये भ्रम फैला कि मतदाता नासमझ है. वो चकाचौंध, भड़कीले भाषण और सपनो में उलझ जायेगा. इसके जरिये जीत तय है. बिहार ने एक बार फिर पूरे देश में साबित किया कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं. मतदाता किसी चकाचौध में नहीं उलझता है.
इस चुनाव की शुरु वात इस लाइन से हुई कि नीतीश जी भले आदमी हैं, पर सरकार बीजेपी बनायेगी. नीतीश लगातार कहते रहे- मैंने अपना काम किया, मजदूरी जनता देगी. उनके अहंकारी होने को बीजेपी ने अपना चुनावी पोस्टर बनाया. पर पूरा बिहार मानता है यह उनका निजी गुण है.
वे किसी के लिए अहंकारी होंगे, पर बिहार की जनता के लिए वह कामकाजी आदमी हैं. जनता मानती है कि वह भले हैं, और बिहार उनके हाथ में ही सुरक्षित है. परिणामों ने इसे साबित भी किया. बिहार के लिए यह परिवर्तन का दौर है. दो धाराएं एक साथ सरकार में हैं. लालू का मंडल और नीतीश का विकासवाद मिलकर इस सरकार का चेहरा बना है.
जात एक सच्चाई है. इसे कोई नकार भी नहीं सकता, लालू ने इसे अपनी ताकत बनायी, तो नीतीश ने विकास को चुना. यह जीत है नीतीश कुमार पर जनता के भरोसे की. जब महिलाओं का वोट प्रतिशत बढ़ा, तभी यह लगभग तय हो गया था कि नीतीश सरकार बनायेंगे. गल्र्स स्टूडेंट्स के लिए सायकल, पोस्ट ग्रेजुएट तक मुफ्त शिक्षा, पंचायतों और पुलिस में आरक्षण के अलावा कई योजनाएं हैं. यह हार है तेज़ आवाज में खुद की प्रशंसा, दंभ, बदजुबानी, आलोचना की. यह जीत है नीतीश कुमार के संयम, सहनशीलता, सरलता की. उन्हें अहंकारी कहा गया. डीएएन पर सवाल उठाया गया. चंदन कुमार, रणछोड, मौकापरास्त, धोखेबाज़ तक कहा गया. पर नीतीश ने अपने स्वाभाव के मुताबिक किनारा कर लिया. वह कभी बदजुबान नहीं हुए.
नीतीश ने अपनी जीत से साबित किया कि सुशासन और काम को किसी प्रचार की जरु रत नहीं होती. जनता खुद नेता का कद तय करती है. उनकी साफछवि का सबसे बड़ा आधार ही यही है कि उनके दस साल के शासन के बाद भी सत्ता विरोधी कोई हवा नहीं दिखी.
वह बेदाग भी साबित हुए. यही कारण है कि विरोधी उनके खिलाफ कोई अभियान खड़ा नहीं कर सके. नीतीश कुमार ने हमेशा सिद्धांतों की खातिर अपनी लाइन तय की. सरल रास्ते और समझोते के बजाय कठिन राह पर चलना स्वीकारा. जब उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ा, तो उसे उनकी पहली गलती और जब लालू से हाथ मिलाया, तो उसे आत्महत्या माना गया. पर वह डटे रहे.
साम्प्रदायिकता के खिलाफ और बिहार हित के लिए. लालू के साथ सीट बंटवारा या चुनाव अभियान, कहीं भी नीतीश समझौता करते अभी तक नहीं दिखे हैं. आगे मंत्रिमंडल के स्वरूप से ही तय हो जायेगा कि नीतीश समझौता करेंगे या अपनी ही लाइन पर चलेंगे. जनता की निगाह में भी इस बार नीतीश कुमार के लिए सत्ता संतुलन चुनौती होगा. इस बार साथ बीजेपी नहीं, लालू प्रसाद हैं. देखना है, सुशासन बाबू इस चुनौती से कैसे निपटते हैं.
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