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जनादेश ने सांप्रदायिकता की राजनीति को हराया

प्रंजॉय गुहा ठकुराता राजनीतिक विश्‍लेषक हार का चुनाव परिणाम भाजपा विरोधी राजनीति की जीत है. देखा गया है कि जब भी भाजपा-विरोधी शक्तियां एक हो जाती हैं, भाजपा को चुनावी हार का सामना करना पड़ता है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही परिणाम दिखा था. कांग्रेस उस समय अकेली लड़ रही थी, जबकि भाजपा […]

प्रंजॉय गुहा ठकुराता
राजनीतिक विश्‍लेषक
हार का चुनाव परिणाम भाजपा विरोधी राजनीति की जीत है. देखा गया है कि जब भी भाजपा-विरोधी शक्तियां एक हो जाती हैं, भाजपा को चुनावी हार का सामना करना पड़ता है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही परिणाम दिखा था.
कांग्रेस उस समय अकेली लड़ रही थी, जबकि भाजपा को हरानेवाली अन्य ताकतें आम आदमी पार्टी के साथ खड़ी थीं. भाजपा के विरोधी दलों के वोट बंटने पर ही पार्टी को फायदा होता है.
देश के चुनावी इतिहास पर गौर करें, तो 1967 में कांग्रेस के खिलाफ वामदल, जनसंघ, समाजवादी सभी एक मंच पर खड़े हो गये थे. आपातकाल के समय भी कांग्रेस के खिलाफ गोलंबदी का फायदा विरोधी दलों को मिला था. 1989 में वीपी सिंह के उभार के दौरान भी विपक्षियों की एकता के कारण कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था. उसी प्रकार 1996 में भाजपा के उभार के खिलाफ समाजवादी और वामदलों की एकता ने बड़ी भूमिका निभायी थी.
वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया. उस समय नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के व्यक्तित्व के आधार पर चुनाव लड़ा गया. अन्य दलों ने भी अलग-अलग चुनाव लड़ा और भाजपा महज 31 फीसदी वोट पाकर केंद्र की सत्ता पर बहुमत के साथ काबिज हो गयी. स्पष्ट है कि जब वर्ग और जाति एक साथ खड़े हो जाते हैं, तो परिणाम अप्रत्याशित होते हैं.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद व्यक्ति केंद्रित राजनीति को बढावा दिया गया. व्यक्ति केंद्रित राजनीति की अपनी सीमाएं होती है. यह सही है कि देश में व्यक्ति केंद्रित राजनीति बढ़ रही है, लेकिन सामाजिक आधार और सद्भाव के बिना यह प्रयोग सफल नहीं हो सकता है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में सामाजिक सद्भाव का माहौल खराब हुआ है. पूंजीपतियों का भी मानना है कि सामाजिक सद्भाव के बिना विकास संभव नहीं है.
भाजपा ने देश में दक्षिणपंक्षी राजनीति को बढावा देने की कोशिश की, लेकिन विविधतापूर्ण भारत में यह राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती है. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत का चुनाव अमेरिका की तरह नहीं होता है. अमेरिका में व्यक्तित्व आधारित चुनाव होते हैं, लेकिन भारत में राजनीतिक विचारधारा की महत्ता है. जब राजनीतिक विचारधारा के आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं, तो व्यक्ति केंद्रित राजनीति कमजोर पड जाती है.
निश्चित तौर पर इस चुनाव के नतीजों से मोदी सरकार की आर्थिक नीति पर प्रभाव पड़ेगा. इस चुनाव से साफ हो गया है कि देश में आम लोग सांप्रदायिकता की राजनीति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. कह सकते हैं कि यह देश में बढती असहिष्णुता और केंद्र सरकार की गरीब विरोधी नीतियों के खिलाफजनादेश है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

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